सख्त रवैय्ये व विभिन्न चेतावनी के बावजूद नहीं दिख रहा शिक्षा व्यवस्था में कोई सुधार उत्तराखंड सरकार में पहली बार मंत्री बने अरविंद पाण्डे ने जब अपने मंत्रालय का कार्यभार संभाला तो उनका युवा जोश व फैसले लेने का जुनून देखकर एक बारगी ऐसा लगा कि वाकई एक बड़ा बदलाव आने वाला है और राज्य बनने के बाद से ही स्थानांतरण उद्योग चलाये जाने जैसे कई आरोंप झेल रहा प्रदेश का शिक्षा विभाग अब अपने ढ़र्रे पर आ सकता है लेकिन समय बीतने के साथ ही साथ तमाम उम्मीदें दम तोड़ने लगी और जर्जर भावनाओं में बैठकर शिक्षकों के आभाव में आधी-अधूरी शिक्षा ग्रहण कर रहे प्रदेश के नौनिहालों के संदर्भ में अपनी रक्षा व व्यवस्था खुद करने सम्बन्धी बयान ने माननीय मंत्री जी की पोल खोलकर रख दी। निजी स्कूलों द्वारा हर वर्ष लिये जाने वाले प्रवेश शुल्क की अभिभावकों को वापसी तथा काॅपी-किताब व अन्य शिक्षण उपयोगी सामग्री खरीदने के लिऐ निजी स्कूलों द्वारा नियत दुकानों की बाध्यता समाप्त करने सम्बन्धी आदेश जारी कर मंत्री जी ने जनता का दिल जीतने की कोशिश तो की लेकिन उनके इस फैसले को किस हद तक अमल में लाया गया, यह पता लगाने की तकलीफ किसी ने नहीं की । ठीक इसी तरह शिक्षा विभाग के अन्र्तगत् आने वाले सरकारी स्कूलों के अध्यापक -अध्यापिकाओं के संदर्भ में ड्रेस कोड का निर्धारण किया जाना एक अच्छा फैसला था लेकिन इसके साथ ही साथ इस अध्यापक वर्ग की अन्य समस्याओं पर भी विचार किया जाना था और यहाँ पर यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि अपने दैनिक जीवन में तमाम तरह के सरकारी फरमानों को झेलने वाले अध्यापक की स्थिति वर्तमान मंे ठीक उस बंधुआ मजदूर की है जिससे कभी भी व कहीं भी, कोई भी काम लिया जा सकता है। कितना बड़ा विद्रुप है कि सरकारी संरक्षण में स्कूली शिक्षा पा रहे बच्चों के पास शैक्षणिक कार्यो के अलावा अन्य कई तरह की जिम्मेदारियाँ भी है और कई जगह तो स्थितियाँ इतनी नाजुक है कि अध्यापक वर्ग का सारा समय यहीं सोचने-विचारने व कागजी कार्यवाही करने में गुजर जा रहा है कि उसे अपने छात्रों को मध्यांहन को भोजन कैसे देना है। यह माना कि सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में काम करने के लिऐ अधिकांश अध्यापक तैयार नही है और सुगमतापूर्वक नौकरी करने के लिऐ राज्य के सीमित मैदानी इलाके में जाने वाले अथवा जाने के इच्छुक अध्यापकों की लगातार बढ़ रही संख्या ने ही शिक्षा विभाग में स्थानांतरण उद्योग को उकसाया है। राज्य के मैदानी इलाकों में आने के लिऐ अध्यापकों द्वारा बिमारी के झूठे मेडिकल सर्टिफिकेट प्रस्तुत करने से लेकर आपसी सामजस्य के आधार पर तलाक लेने तक के तमाम दस्तावेज प्रस्तुत किये जा रहे है लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नही है कि शिक्षा विभाग में सिर्फ शिक्षक ही बेईमान व भ्रष्ट है बल्कि अगर हालातों का सही तरह से मुआयना करें तो हम पाते है कि शिक्षकों द्वारा की जाने वाली इस तरह की बेईमानी या फिर कूट रचित दस्तावेज प्रस्तुत करने के पीछे उनकी मजबूरी है और बिना किसी सिफारिश व चढ़ावे के असंभव से लगने वाले स्थानांतरण को संभव बनाने के लिऐ कुछ परेशान अथवा चालाक शिक्षकों द्वारा इस प्रकार की पैतरेंबाजी आजमाया जाना समझ में भी आता है। राज्य गठन के बाद से ही हम देख रहे है कि स्थानांतरण के उद्देश्य से सत्र शून्य किये जाने की घोषणाओं के बावजूद न सिर्फ बड़े पैमाने पर पहाड़ से मैदान की ओर स्थानांतरण होते है बल्कि सचिवालय में कार्यरत् अधिकारियो व कर्मचारियों समेत तमाम नेताओं, विधायकों व मंत्रियों के परिजनों व निकटवर्ती रिश्तेदारों को स्थानांतरण के जरिये देहरादून या अन्य मैदानी इलाकों में लाने के लिऐ लगभग हर वर्ष ही एक वृहद अभियान की तर्ज पर शिक्षा विभाग द्वारा सूची तैयार की जाती है। यह बताने को कोई तैयार नही है कि इस सूची के लिऐ मानक क्या है या फिर व्यवस्था के नाम पर शिक्षा विभाग से इतर अन्य विभागों में सम्बद्ध अध्यापकों को एक के बाद एक कर कई आदेश जारी करने के बावजूद आज तक मूल विभागों में वापस क्यों नही भेजा जाता और फर्जी प्रमाण पत्रों के आधार पर नियुक्ति पाने वाले अध्यापकों की जाँच एकाएक बीच में ही क्यों रोक दी जाती है लेकिन अध्यापकों से सदाचरण करने, सचिवालय व मंत्रियों के चक्कर न लगाने अथवा नियमतः नौकरी बचाने की उम्मीद हर सरकारी विभाग व जनता करती है। यहाँ यह कहने में भी कोई हर्ज नही है कि सरकारी लापरवाही के चलते गिरते जा रहे स्कूली शिक्षा के स्तर को देखते हुऐ स्कूलों में छात्र संख्या को बनाये रखना तथा अपने आस-पास के माहौल से तालमेल बैठाते हुऐ ग्राम प्रधान से लेकर क्षेत्रीय विधायक व मंत्री तक की जी-हुजूरी करना भी स्कूली अध्यापक की जिम्मेदारी है। पहाड़ों में लगातार हो रहे पलायन का मुख्य कारण यहाँ के स्कूलों की बदहाली तथा अध्यापकों को आभाव है लेकिन अगर पस्तु स्थिति पर नजर डाले तो हम पाते है कि पहाड़ों में लगातार हो रहे पलायन को लेकर गाहे-बगाहे चिन्ता व्यक्त करने वाले जनप्रतिनिधि ही नहीं चाहते कि अच्छा पढ़ा-लिखा व सामाजिक चेतना का प्रयास करने वाला अध्यापक उसके निर्वाचन क्षेत्र में रूके और सामाजिक जनजागृति के माध्यम से उन विद्रुपों को दूर करने का प्रयास करें जिनके चलते हमारा समाज विभिन्न संकटो से जूझ रहा है। यह ठीक है कि अरविंद पाण्डे के लिऐ एक शिक्षा मंत्री के रूप में यह सब ठीक करने के लिऐ तीन-चार-माह का समय काफी नही है और न ही किसी सरकारी व्यवस्था से यह उम्मीद भी की जा सकती है कि वह सिर्फ तीन चार माह के अन्तराल में अपने पुराने रवैय्ये में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने में सफल होगी लेकिन एक शिक्षा मंत्री के रूप में पाण्डे जी जिस अंदाज में शुरूवाती दौर में शिक्षा विभाग को लेकर सक्रिय दिखे थे, उसका कोई भी फायदा जनता को मिलता नही दिख रहा है और न ही यह उम्मीद लग रही है कि इन तौर-तरीकों से छात्रो के भविष्य पर कोई बड़ा प्रभाव पड़ेगा। हाँ इतना जरूर है कि शिक्षा मंत्री के रूप मे पाण्डे जी द्वारा दिये गये बयानों से शिक्षकों के एक बड़े वर्ग में आक्रोश है और वह स्कूलों में ड्रेस कोड लागू किये जाने के बाद आने वाली कई सामान्य दिक्कतों का जिक्र करते हुये अपनी समस्याओं व स्थानांतरण के तौर-तरीकों को लेकर आक्रोश व्यक्त कर रहे है जबकि दूसरी तरफ शिक्षा मित्र, अतिथि शिक्षक, शिक्षा आचार्य एवं संविदा शिक्षक जैसे तमाम छोटे-बड़े संगठन भी मंत्री को निशाने पर लेकर हड़ताल पर जाने के संदर्भ में चेतावनी देते हुये अपनी ताकत को एकजुट करने का प्रयास कर रहे है।