अन्र्तराष्ट्रीय परिपेक्ष्य में पाकिस्तान के लिऐ घातक हो सकती है नवाज शरीफ की सत्ता से बेदखली।
पनामा लीक मामले में नाम आने के बाद न्यायालय के आदेशों को ध्यान में रखते हुऐ कुर्सी छोड़ने को मजबूर हुऐ पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का राजनैतिक भविष्य क्या होगा और पाकिस्तान की राजनीति में हुई इस उथल-पुथल का भारत-पाक सम्बन्धों पर क्या फर्क पड़ेगा, यह प्रश्न वाकई में राजनीति के उन धुरन्धरों को परेशान करने वाला है जो यह मानकर चल रहे थे कि भारतीय जनमानस की खुशहाली के लिऐ देश-विदेश की यात्रा कर रहे भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने राजनैतिक पराक्रम व वैश्विक समुदाय के साथ बेहतर सम्बन्ध के दम पर पाकिस्तान सरकार पर आंतकवादियों को मदद न किये जाने के संदर्भ में दबाव डालने में सफल होंगे। भारत की ही तरह पाकिस्तान में भी सत्ता के शीर्ष पदों को लेकर घमासान है लेकिन वर्तमान परिपेक्ष्य में यह तय दिखता है कि सत्तापक्ष पीएमएलएन नवाज के छोटे भाई और विश्वसनीय शाहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री पद की कुर्सी सौंप दी जायेगी। हाँलाकि अभी निवर्तमान सरकार के पेट्रोलियम मंत्री शाहिद खाकान को अंतरिम प्रधानमंत्री चुना गया है और शहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचने के लिऐ नेशनल असेम्बली का चुनाव लड़ना भी जरूरी है जिसमें पूर्व क्रिकेटर इमरान खान के नेतृत्व में विपक्ष की ओर से साझा उम्मीदवार भी उतारा जा सकता है लेकिन असल मुसीबत 2018 में शुरू होगी जब पाकिस्तान में एक बार फिर आम चुनाव होगा और नवाज शरीफ के कमजोर पड़ने के बाद कुछ अन्य चेहरें प्रधानमंत्री पद पर कब्जेदारी का प्रयास करेंगे। यह ठीक है कि न्यायालय द्वारा अपने आदेश में स्पष्ट नहीं किया गया है कि नवाज शरीफ की अब सक्रिय राजनीति में वापसी नामुमकिन है और यह भी हो सकता है कि इस वक्त सेना भारतीय हमले का भय दिखाकर अन्तरिम प्रधानमंत्री को अपदस्थ करने का प्रयास करें। जैसे हमने पूर्व में भी कहा कि पीएमएलएन नवाज शरीफ के वारिस के रूप मे 65 वर्षीय शहबाज शरीफ को मैदान में उतारने का मन बना रही है जो इस समय पंजाब प्रान्त के मुख्यमंत्री है लेकिन शहबाज के विधानसभा से इस्तीफा देकर नेशनल असेम्बली में चुने जाने तक की पूरी प्रक्रिया के लिऐ कम से कम पैंतालिस दिन की दरकार हैं। पाकिस्तानी फौज व आईएसआई के लिऐ यह अन्तराल कम नही होता। अगर पाकिस्तानी सेना के प्रमुख इस वक्त सत्ता की बागडोर अपने हाथ में लेना चाहे तो उनके पास सैकड़ो बहाने है और भारत-पाक सम्बन्धों की डोर भी इस वक्त इतनी कमजोर है कि उसे किसी भी वक्त खींचकर युद्ध का ऐलान किया जा सकता है। वैसे भी भारत की सीमाओं पर इस वक्त युद्ध का सा ही माहौल है तथा वैश्विक परिदृश्य में पाकिस्तान का एकमात्र बाहुबली साथी दिख रहा चीन खुद भारत तिब्बत सीमा पर अपनी सैन्य टुकड़ी को तैनात किये हुऐ है। इन हालातों में पाकिस्तानी सेना के कमाण्डरों व जिम्मेदार अधिकारियों के लिऐ अपनी आवाम को यह समझाना ज्यादा कठिन नही होगा कि इस वक्त चीन के साथ मिलकर अपनी पुरानी हार का आसानी से बदला लिया जा सकता है और इसके लिऐ सत्ता की बागडोर सेना के हाथ लिया जाना आवश्यक है। जहाँ तक चीन और भारत के बीच युद्ध की संभावनाओं का सवाल है तो इसे ठीक इस तर्क से समझा जा सकता है कि जिस प्रकार पाकिस्तानी सेना व आईएसआई तख्ता पटल के लिऐ आवाम का समर्थन जुटाने के वास्ते भारत के सीमावर्ती इलाकों पर तनाव पैदा करते हुऐ युद्ध का सा माहौल बनाने का प्रयास कर सकती है, उसी तर्ज पर भारत की सत्ता पर काबिज राजनैतिक विचारधारा भी जनभावनाओं को अपने साथ जोड़े रखने तथा आगामी लोकसभा चुनावों में इसे मुद्दे की तरह इस्तेमाल करने की नीयत से भारत-चीन युद्ध को लेकर भय का माहौल बनाये रखना चाहती है। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि तिब्बत के दलाई लामा समेत अधिसंख्य आबादी को भारत में राजनैतिक शरण देने के मामले में भारत से नाराज चीन भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के अभिन्न अंग माने जाने वाले कुछ क्षेत्रों को लेकर न सिर्फ अपना अधिकार जताता रहा है बल्कि भारत को रणनैतिक रूप से घेरने के लिऐ भारत के तमाम पड़ोसी मुल्कों के साथ सामरिक समझौते कर वहाँ सड़क व रेल मार्ग बनाने सम्बन्धी गतिविधियों को लेकर भी उसकी कार्यवाही में तेजी आयी है और इधर पिछले दिनों तिब्बत से लगती भारतीय सीमाओं पर चीनी सैनिकों की तैनाती के बाद भारत व चीन की सेनाओं के आमने-सामने आने वाले हालात भी पैदा हुऐ है लेकिन इस सबके बावजूद भारत व चीन के मध्य सीधे तौर पर युद्ध की कोई संभावना नही दिखती क्योंकि मजबूत सुरक्षा दस्ते व हथियारों से लैस भारत की सेनाऐं अब पहले की तरह संसाधनविहीन नही रह गयी है और अगर जनसंख्या के लिहाज से भी देखे तो चीन के मुकाबले ज्यादा तेजी से जवान हो रहे भारत के पास अपनी युवा शक्ति के बलबूते दुश्मन को चारों ओर से घेरने व युद्ध को लम्बा खींचने की ताकत है। वैसे भी व्यापारी की तरह काम कर रही चीन की सरकार को भारत में फैला एक बड़ा उपभोक्ता बाजार स्पष्ट दिखाई दे रहा है और उसकी जुगत भारत के साथ युद्ध करने की नही बल्कि इस बड़े उपभोक्ता बाजार को कब्जाने की है। हांलाकि चीन में लगे कई तरह के प्रतिबंध वहाँ के हालातों की खबर बाहर आने से रोकते है और यहाँ का मीडिया भी इतना सशक्त नही है कि सरकारी सूत्रों के हवाले से मिलने वाली खबरों के अलावा भी कुछ देश-विदेश की सरकारों को उपलब्ध कराया जा सके लेकिन चीन के हालात और यूरोपीय देशों में सिमटते जा रहे उसके व्यवसाय को देखते हुऐ यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि चीन की सरकार इस वक्त भारत के साथ युद्ध खड़ा करने का खतरा नही ले सकती क्योंकि भारत में होने वाली चीनी माल के खपत पर अगर यहाँ की सरकार द्वारा अधिकाधिक रोक लगा दी गयी तो चीन में बेकारी व भुखमरी फैलते देर नही लगेगी और इन हालातों में चीन सरकार को भी अपनी जनता की ओर से बगावत का खतरा हो सकता हैं। इसके ठीक विपरीत भारत में सत्ता पर काबिज लोग यह अच्छी तरह जानते है कि सर्जिकल स्ट्राइक की कहानी या फिर कश्मीर समेत देेश के अन्य हिस्सों में पाकिस्तान सरकार द्वारा प्रायोजित आंतकवाद की बात अब पुरानी हो चुकी है ओर देश की जनता इस तथ्य से भली-भांति अवगत् है कि अगर भारत की सरकार चाहे तो अमेरिका की तर्ज पर पाकिस्तान पर हमला कर रातोंरात इन हालातो में तब्दीली की जा सकती है जबकि चीन के मामले में ऐसा नही है क्योंकि चीन की सेना तकनीकी रूप से पाकिस्तान से ज्यादा दक्ष होने के साथ ही साथ विपरीत परिस्थितियों में युद्ध करने की माहिर भी है। शायद यहीं वजह है कि सरकारी स्तर पर वस्तु-व्यापर विनिमय के संदर्भ में चीन के साथ अनेक समझौतों की बाध्यता के बावजूद सत्तापक्ष की शह पर विचारधारा के नाम पर चीनी वस्तुओं के बहिष्कार को लेकर एक समानान्तर जंग छेड़ने का प्रयास किया जा रहा है और जन सूचना के सर्वसुलभ माध्यमों से इस तरह की अपील करने वाले लोग ढँके छुपे शब्दों में यह माहौल बनाने कि कोशिश कर रहे है कि आर्थिक रूप से सम्पन्न होता जा रहा चीन किसी भी वक्त भारत पर हमला कर इस देश की सत्ता पर काबिज हो सकता है । कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि मौजूदा दौर में भारत और पाकिस्तान के राजनैतिक हालातों में कोई बहुत बड़ा फर्क नही है और न ही इन मुल्कों की सत्ता पर काबिज सरकारे अपनी रियांया की तमाम छोटी-बड़ी समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने में ही रूचि ले रही है। अगर कोई फर्क है तो वह सिर्फ इतना कि पाकिस्तान के निवर्तमान प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के इस्तीफे के बाद सेना व आईएसआई का गठबंधन भारत का डर दिखाकर विपक्ष समेत सत्ता पक्ष को धता बताते हुऐ सत्ता पर कब्जेदारी चाहता है तो यहाँ भारत में सत्ता पर काबिज मोदी सरकार विचारधारा के नाम पर समस्त विपक्ष व विरोधी पक्ष को नेस्ताबूद करते हुऐ देश की आवाम को चीन के हमले का भय दिखाकर एक बार फिर सत्ता में सुरक्षित वापसी की राह तलाश रही हैं।