चीन निर्मित राखी व पटाखें के बहिष्कार का नारा देने वाली विचारधारा सीमावर्ती प्रदेश की परिस्थितियों से पूरी तरह अंजान न जाने क्यों भारत सरकार और उत्तराखंड का सरकारी तंत्र समस्याओं से अंजान बने रहने को ही अपनी जीत समझ रहा है और ठीक पैग्विन वाले अंदाज में अपना मुंह छुपा लेने से आंखे बंद हो जाने की स्थिति को दुश्मन से सुरक्षित ठौर-ठिकाने की तलाश मान, सच को अनदेखा करने की कोशिशें जारी है। सरकारी तंत्र यह अच्छी तरह जानता है कि पहाड़ों पर एक जमाने पहले से काम कर रही वामपंथी विचारधारा जनान्दोलनों की असफलता के चलते हताश और निराश है तथा उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद यहाँ मची संसाधनों की लूट व मतलबपरस्ती तक सीमित हो गयी राजनीति ने संसाधनों के आभाव से जूझ रही स्थानीय जनता को आक्रोश से भर रखा है लेकिन इस सबके बावजूद पहाड़ व पहाड़ में रहकर गुजर-बसर कर रही जनता को नकारने का क्रम जारी है क्योंकि सत्ता की राजनीति करने वाले राजनैतिक दलों ने यह मान लिया है कि विकल्प के आभाव में विकास के कार्यक्रमों को अंजाम दिये बिना भी सत्ता पर कब्जेदारी बनाये रखना संभव है। हांलाकि सत्ता पर कब्जेदारी के इस खेल के चलते राज्य गठन के बाद उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में और तेजी से बढ़े पलायन से वीरान होते जा रहे गाँवों व पहाड़ के कस्बाई इलाकों में माओवादी सक्रियता बढ़ने की बात की जा रही है और नेपाल व तिब्बत की सीमा को छूते इस पर्वतीय प्रदेश के कुछ सीमावर्ती क्षेत्रों में चीनी सैनिकों को देखे जाने की खबर के माओवादी कनैक्शन ढ़ूँढ़ने की कोशिशें भी शुरू हो गयी है लेकिन मजे की बात यह है कि उत्तराखंड सरकार के सक्षम अधिकारियों समेत शासन तंत्र का कोई भी हिस्सा चीन की माओसेना के सैनिकों के उत्तराखंड के सीमावर्ती क्षेत्रों में घुस आने की खबरों की पुष्टि करने को तैयार नही है और न ही उन सूत्रों का पता चल पा रहा है जिन्होंने सीमा पर हमले वाले अंदाज में चीनी सेना द्वारा की गयी इस घुसपैठ को पहले-पहल नोटिस किया। भारत-चीन युद्ध के वक्त क्षेत्र-रक्षण की इस कमजोरी को देश की सत्ता पर काबिज नेताओं ने महसूस किया था और इस दौर में न सिर्फ तमाम सीमावर्ती क्षेत्रों तक यातायात के संसाधन उपलब्ध कराने व सड़क निर्माण के क्षेत्र में काम हुआ बल्कि स्थानीय जनता को बन्दूक चलाने व लड़ाई लड़ने का प्रशिक्षण देकर ऐसे स्वंयसेवक तैयार किये गये जो अपनी खेती-किसानी करने के साथ ही साथ बहुत ही कम खर्च पर सजग प्रहरी की तरह सीमाओं की सुरक्षा व इस तरह के अतिक्रमण की स्थिति में उच्च स्तर पर सूचनाओं के आदान-प्रदान का काम करने के लिऐ प्रशिक्षित थे। न्यूनतम् भत्ते व सामान्य सुविधाओं पर काम करने वाले इन तमाम देशप्रेमी उत्तराखण्डियों पर किया जाने वाला यह खर्च शनैः-शनैः कुछ उच्च पदस्थ लोगों का फिजूल लगने लगा और सरकार ने नब्बे के दशक के बाद इस व्यवस्था को खत्म कर भारत के चीनी सीमा से नजदीक पड़ने वाले एक बड़े इलाके को लावारिस सी हालत में छोड़ दिया। यहाँ पर यह कहा जाना भी गलत नही होगा कि यह लगभग वहीं दौर था जब दिल्ली और लखनऊ की सत्ता पर काबिज नेता व अधिकारी पिथौरागढ़ व चमोली जिले के साथ ही साथ कुछ अन्य सुदूरवर्ती पर्वतीय क्षेत्रों को भी कालापानी की संज्ञा देने लगे थे और राज्य अथवा केन्द्र सरकार द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से सजा प्राप्त अथवा नेताओं व बड़े अधिकारियों की मनमर्जी के हिसाब से काम न करने वाले अधिकारियों व कर्मचारियों को पहाड़ पर पोस्टरिंगिन करने का सिलसिला शुरू हुआ। कहने का तात्पर्य यह है कि उत्तराखंड के अधिकतम् भू-भाग को अघोषित सैन्य अनुशासन से मुक्त कर भ्रष्ट व सजायाफ्ता अधिकारियों के हाथों सौंपे जाने के बाद इन तमाम क्षेत्रों में खनन, शराब के वैध-अवैध कारोबार और इन तमाम अवैध धंधों को चलाने के लिऐ गुण्डागर्दी ने पैर पसारना शुरू किया जिसके विरोध कसमसा रही जनता ने एक बड़े आन्दोलन के जरिये अपना हक मांगते हुऐ अपना राज्य व अपनी सरकार की मांग उठायी जिसे कालान्तर में पूरा भी किया गया लेकिन राज्य निर्माण के साथ भ्रष्ट नौकरशाही व तेजी से आगे बढ़ने की ख्वाहिश में कुछ भी करने को तैयार राजनेता इस प्रदेश को अभिशाप के रूप में प्रदेश के गठन के वक्त से ही निशुल्क मिले। नतीजतन राज्य निर्माण के बाद पहाड़ों पर होने वाला पलायन कम होने की जगह कई गुना बढ़ गया और इस पलायन की रफ्तार में ज्यादा तेजी लाने का काम सरकारी शह पर होने वाले विस्थापन पूरा कर दिया। हम देख रहे है कि उर्जा प्रदेश के नाम पर प्रदेश की नदियों पर बनाये जा रहे बांधों का स्थानीय जनता का कोई फायदा नही मिल रहा है जबकि टिहरी बांध जैसे बड़े निर्माण कार्यो के पूरा हो जाने के एक अर्से बाद भी डूब क्षेत्र से बाहर रहने वाले स्थानीय निवासियों के मकान दरकनें व जमीन धंसने का क्रम अभी जारी है और मजे की बात यह है कि इस तरह के मामलों में सरकारी तौर पर कोई मुआवजा देने का प्रावधान भी नही है। लिहाजा गढ़वाल क्षेत्र में मकानों के दरकनें, भू-श्रखंलन व अन्य प्राकृतिक आपदाओं के चलते प्रतिवर्ष कई हजार परिवार पहाड़ों को छोड़ने पर मजबूर है जबकि कुमाँऊ क्षेत्र में पंचेश्वर बांध के निर्माण की गतिविधियाँ तथा भूमि अधिग्रहण व विस्थापन को लेकर ग्राम सभा स्तर पर चयन प्रक्रिया शुरू किये जाने की चर्चाओं के बाद एक अलग ही तरह का हड़कम्प हैं। यह तय है कि सरकार समुचित अवस्थापनाओं का निर्माण किये बिना पंचेश्वर बांध बनाये जाने की दिशा में अपने कदम आगे बढ़ा चुकी है और अब कागजी खानापूर्ति के लिऐ स्थानीय जनता व जनसंगठनों से सुझाव मांगने का खेल खेला जा रहा है जबकि यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि टिहरी बांध का निर्माण कार्य लगभग पूरा हो जाने के बाद अब पंचेश्वर बांध के निर्माण की प्रक्रिया को भी शुरू करना न सिर्फ उत्तराखंड के पर्वतीय स्वरूप, लोककलाओं व संस्कृति से खिलवाड़ होगा बल्कि एक सीमावर्ती प्रदेश में इतने बड़े-बड़े दो बांधों का निर्माण कर हम अपने दुश्मन को अपने घर बैठे-बैठे ही देश की राजधानी दिल्ली समेत एक बड़े भू-भाग में जल प्रलय लाने का आसान हथियार भी दे देंगे। हमारे नीतिनिर्धारकों व सत्ता की राजनीति करने वाले नेताओं को चाहिऐं था कि वह उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में यातायात के समुचित संसाधन व बेहतर सड़क, रेल व हवाई मार्ग उपलब्ध कराते हुऐ इस प्रकार के उद्योगों को बढ़ावा देते कि यहाँ का स्थानीय नौजवान अपने गाँव-देहात में रहकर ही आसानी से अपना जीवकोपार्जन कर सके और पलायन के चलते आबादीविहीन हो रहे गांवों को फिर देशभक्त व कम खर्चे में देश की सुरक्षा को तत्पर रहने वाले स्थानीय स्वंयसेवकों की फौज मिल सके लेकिन अफसोस सरकार न सिर्फ विस्थापन के जरिये गांव-देहात को उजाड़ने की योजना पर काम कर रही है बल्कि सरकारी स्तर पर दी जाने वाली स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल एंव विद्युत आपूर्ति जैसी न्यूनतम् सुविधाओं में भी भारी कटौती करते हुये यहाँ का जीवन नर्क बना दिया गया हैं। स्थानीय महिलाओं के भारी विरोध के बावजूद युवाओं व स्थानीय जनता को आसानी से शराब उपलब्ध कराने के लिऐ एक साथ कई मोर्चो पर जद्दोजहद कर रही प्रदेश की सरकार व खुद को राज्य का डबल इंजन का दर्जा देने वाली केन्द्र सरकार का स्थानीय जनता के हित या आक्रोश से कोई लेना-देना ही नही है बल्कि सरकार की कार्यशैली व नीतियों को देखकर ऐसा लगता है कि उसे इस प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र को माओवादी हिंसा से ग्रस्त और त्रस्त घोषित करने में ज्यादा दिलचस्पी है। इन हालातों में कल क्या होगा कहा नहीं जा सकता और न ही इस बात की गारन्टी दी जा सकती है कि एक लंबी जद्दोजहद के बाद अस्तित्व में आया यह राज्य अपनी पहचान व स्वरूप को कायम रखने में सफल भी होगा।