देहरादून। जम्मू-कश्मीर के पुलवामा आतंकी हमले में शहीद हुए 42 सैनिकों में दो वीर सपूत उत्तराखंड के भी थे। उत्तरकाशी के शहीद मोहन लाल और खटीमा के वीर विरेंद्र सिंह देश की रक्षा करते हुए शहादत को प्राप्त हो गए। शायद यही कारण है कि उत्तराखंड को देवभूमि के साथ-साथ वीरों की भूमि के नाम से भी जाना जाता है। अबतक उत्तराखंड के हजारों रणबांकुर दुश्मन से लड़ते हुए देश के लिए शहीद हुए हैं।
सैकड़ों लोगों की भीड़ नम आंखों से वीर सपूतों के घर के बाहर उन्हें आखिरी सलाम करने के लिए इकट्ठा हो रखी है। राज्य का जब-जब सैनिक शहीद होता है तो न केवल परिवार में दुख की लहर होती है बल्कि पूरा राज्य गम में डूब जाता है। हमेशा से ही आतंकी हमलों में शहीद होने वाले देशभर के सैनिकों में उत्तराखंड के जवानों का एक बड़ा हिस्सा शामिल रहा है। देश के ऊपर जब-जब दुश्मनों ने नजरें तिरछी की है तब-तब उत्तराखंड के सैनिकों ने दुश्मनों को करारा जवाब दिया है।
उत्तराखंड के वासी जितना यहां की नदियों और वादियों के साथ-साथ यहां की आबोहवा पर इतराते हैं, उतना ही गर्व यहां की सैन्य परम्पराओं पर करते हैं। उत्तराखंड के किसी भी घर में कोई बच्चा जन्म लेता है तो वो देश प्रेम का जज्बा लेकर इस दुनिया में आता है। अगर आज हम आजाद है तो बहुत बड़ा योगदान उत्तराखंड के सैनिकों का भी रहा है। लेकिन जब-जब उत्तराखंड के जवान शहीद होते हैं तबतब यहां के लोगों का खून खौलने लगता है।
आजादी के बाद 1962, 1965 और 1971 की ऐतिहासिक जंग में उत्तराखंड के हजारों सैनिक शहीद हुए थे। केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड से लगभग 2283 जवान शहीद हुए हैं। इन सैनिकों में कुमाऊं और गढ़वाल रेजिमेंट सहित दूसरी सभी बटालियनों में रहते हुए शहादत दी। गढ़वाल और कुमाऊं में रहने वाले सैकड़ों परिवारों के बेटे आज भी देश की हिफाजत के लिए सरहदों पर सीना ताने खड़े रहते हैं।