आन्दोलन की राह पर। | Jokhim Samachar Network

Wednesday, May 01, 2024

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आन्दोलन की राह पर।

अपनी मांगो को लेकर सड़को पर उतरने को मजबूर किसान।
भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार समेत देश के कई राज्यों की सरकारें अगले कुछ वर्षो में किसानो की आय दुगनी करने की बात कर रही है जबकि देश भर में आन्दोलनरत् किसानो के नेता व उनके संगठन किसानो के कर्जे़ माफ करने, बिजली की बकाया राशि अथवा अन्य सरकारी देनदारियों के भुगतान में छूट दिऐ जाने तथा कृषि उत्पादों की लाभकारी कीमत दिऐ जाने की मांग कर रहे है और सरकार पर दबाव बनाने के लिऐ किसानो के इस आन्दोलन को उग्र करने की कोशिश की जा रही है। हाॅलाकि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में किसानो का आन्दोलन कोई नई बात नही है और इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि किसानो की संगठित ताकत ने एक बार नही बल्कि कई-कई बार सरकारी तंत्र को अपने समक्ष घुटने टेकने को मजबूर किया है लेकिन इस सबके बावजूद इन सत्तर सालों में किसानो की आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नही आया है और न ही इन तमाम आंदोलनों के ज़रिये किसानो का ऐसा कोई परिपक्व नेतृत्व उभरकर सामने आ पाया है जो देश की संसद अथवा विधानसभाओ को किसानो की समस्याओं पर विचार करने के लिऐ मजबूर करे। यह ठीक है कि सदन में मौजूद विपक्ष सरकार की घेराबन्दी करने के लिऐ समय-समय पर किसानो की समस्याऐं उठाता है और महेन्द्र सिंह टिकैत जैसे दंबग व प्रभावशाली नेतृत्व के आगे सरकारें भी घुटने टेकती दिखती है लेकिन अधिकांश मामलो में यह देखा गया है कि अपनी बात कहने के लिऐ गाॅधीवादी तरीके अपनाने वाला किसान अक्सर ही सत्ता पर काबिज नेताओं व सरकारों से ठगा जाता है या फिर सरकारी तंत्र उसके आन्दोलनों अथवा मांगो पर तबज्जों ही नही देता। यह माना कि किसानो की उपज के दाम बढ़ा देने अथवा उनके लागत मूल्य का कम से कम डेढ़ गुणा भुगतान करने की स्थिति में महॅगाई चरम पर पहुॅच सकती है और किसानो के बैंक कर्ज़ माफ करने अथवा सरकारी देयको की बकाया राशि माफ करने में भी कई तरह की दिक्कतें है लेकिन यह भी सच है कि कोई सरकारी व्यवस्था अथवा किसी भी दल की सरकार किसानो की बाजिव समस्याओं पर सहानुभूति पूर्वक विचार नही करना चाहती और वर्तमान में तो हालात इतने खराब हो चूके है कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी सरकार की शह पर किसानों के आन्दोलन व उनकी आत्महत्याओं की घटनाओं को अनदेखा कर रहा है जिसके चलते देश की आबादी का यह बड़ा हिस्सा आज व्यथित है। ऐसा माना जाता रहा है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहाॅ की कुल आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी गाॅवो से जुड़कर मेहनत-मजदूरी अथवा कृषि जैसे कार्यो के ज़रिये अपनी रोजी़-रोटी पैदा करता है लेकिन सरकार के पास इन किसानो की मेहनत से पैदा की गयी उपजों को सुरक्षित रूप से सहेजने या फिर सीधे उपभोक्ता तक पहुॅचाकर किसानो को इनकी वाजिब कीमत दिलाने के लिऐ कोई भी विकसित तंत्र नही है बल्कि यह सारी व्यवस्था दलालों व जमाखोरों के हाथ में है और वह इस द्यन्द्ये में मोटा माल कमा रहे है। कृषि उपजों के इस व्यवसाय में मोटा मुनाफा देखते हुऐ तमाम अन्र्तराष्ट्रीय व बड़ी कम्पनियाॅ इस व्यवसाय में कूदने का मन बना रही है और सरकार किसानो को हाईब्रिड बीज व काॅनटेक्ट खेती के सब्ज़बाग दिखाकर इस नापाक सौदेबाजी को हवा देने का काम कर रही है लेकिन किसानो की चिन्ता किसी को भी नही है जिसके कारण देश में न सिर्फ कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल तेजी़ से सिकुड़ रहा है बल्कि कृषि कार्यों में लगे मजदूरों व ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं द्वारा लगातार शहरों व कस्बाई क्षेत्रो की ओर किये जाने वाले पलायन के कारण बेरोज़गारी , बेकारी व भुखमरी की समस्याऐं भी बढ़ती हुई नज़र आ रही है।यह माना कि सरकार किसानो की आय बढ़ाने के लिऐ पशुपालन, कुटीर उद्योग या फिर घरेलू महिलाओं को स्वरोजगार से जोड़ने के लिऐ विभिन्न योजनाओ का संचालन कर कृषि को बहुआयामी दर्जा देने का प्रयास कर रही है और मौजूदा हालात व कृषि कार्यो में विकल्प की सीमित सम्भावनाओ को देखते हुऐ यह तरीका भी गलत नही कहा जा सकता लेकिन सरकारी तंत्र की लाल फीताशाही के चलते इस तरह की तमाम योजनाओं का कोई भी लाभ इस देश की ग्रामीण जनता व किसानो को मिलता प्रतीत नही होता और आॅकड़े यह इशारा करते दिखते है कि किसानो के बीच अंसतोष व आत्महंता प्रवृृत्ति तेजी़ से बढ़ रही है। हाॅलाकि यह एक बड़ा विषय है कि अगर सरकार कृषि उपजों व अन्य पैदावारों का दाम बढ़ा किसानो को राहत देने की कोशिश करती है तो बाजा़र में बढ़ने वाली महॅगाई पर कैसे काबू पाया जा सकता है और बिना किसी निश्चित योजना अथवा तंत्र के यह सुनिश्चित किया जाना भी मुश्किल है कि किसानो को दी जाने वाली कोई राहत अथवा छूट जरूरतमन्दो तक पहुॅचने के स्थान पर दलालों अथवा मध्यस्थेा द्वारा बीच में ही नही लूट ली जायेगी लेकिन इस तरह की तमाम सम्भावनाओं व आशंकाओ के आधार पर अन्नदाताओ के इस समूह को यू ही हालातो से लड़ने के लिऐ नही छोड़ा जा सकता और न ही यह माना जा सकता है कि अपनी नाराज़ी को जा़हिर करने के लिऐ सड़को पर उतरे किसानो के विभिन्न समूह सिर्फ विपक्ष द्वारा प्रायोजित योजनाओ का हिस्सा मात्र है। यह तथ्य किसी से छिपा नही है कि नोटबन्दी व जीएसटी लागू होने के बाद आम आदमी की समस्याऐं बढ़ी है और शहरी व कस्बाई क्षेत्रो में कम होते नज़र आ रहे रोज़गार के अवसरों ने खेती व किसानी के क्षेत्र में नई सम्भावनाओ को जन्म दिया है लेकिन उन्नत तकनीक के प्रयोग के नाम पर लगातार बढ़ रही खेती की लागत तथा कृषि क्षेत्र में लगातार बढ़ रहे विदेशी कम्पनियों के दखल के चलते तेज़ी से नष्ट होती जा रही बीजो के सरंक्षण की परम्परागत् तकनीक ने किसानो की हालत बन्धुआ मजदूर वाली बना दी है। ज़मीन से अधिकतम् फसल लेकर अपनी लागत कम करने की होड़ में रासायनिक खादो व अन्य उर्वको का अन्धाधुन्ध प्रयोग करता चला आ रहा किसान अब यह महसूस कर रहा है कि आधुनिक तकनीक के नाम पर उसके साथ जबरदस्त तरीके से ठगी हुई है जिस करण वह जाने अनजाने में एक ऐसे चक्रव्यूह में फॅस चूका है जहाॅ से बिना किसी सरकारी मदद अथवा सहारे के निकल पाना आसान नही है। लिहाजा़ सड़को पर उतरना उसकी मजबूरी है और किसानो की इस मजबूरी को आन्दोलन या विद्रोह का नाम देकर इसे कुचलने अथवा अनदेखा करने के प्रयासों को किसी भी किमत पर सही नही कहा जा सकता। यह माना कि किसानो के कर्ज़ की बड़ी बकाया धनराशि माफ करना या फिर उन्हे निशुल्क बिजली-पानी व रियायती दरोे पर डीज़ल दिया जाना किसी भी सरकारी व्यवस्था के लिऐ कठिन है लेकिन अगर सरकार चाहे तो वह उद्योगो की तर्ज़ पर खेती व इससे जुड़े लोगो के लिऐ कई तरह की राहत देने वाली घोषनाऐं कर सकती है और किसान को उसकी उपज का कर्त संगत मूल्य दिलवाने व बाज़ार को महॅगाई की मार से बचाते हुऐ बिचैलियों व मुनाफाखेरों को इस धन्धे से हटाने के लिऐ सख्त कानूनी कार्यवाहियों का सहारा लिया जा सकता है किन्तु सरकारी तंत्र की गतिविधियाॅ उसकी मंशा पर ही संदेह पैदा करती है। खुदरा व्यापार में वायदा कारोबार और खेती को उजारने के लिऐ काॅटेªक्ट फार्मिग की आड़ में बड़ी कम्पनियों की किसानो की जिन्दगी में बढ़ती दखलदांजी को देखते हुऐ यह कहा जाना मुश्किल है कि सरकार द्वारा किये जा रहे कुछ फ़ौरी प्रयासो अथवा किसानो को राहत देने के नाम पर किये जाने वाले फसली बीमा या फिर अन्य छोटी-मोटी राहतो के बलबूते इस देश की खेती व किसानी को बचाया जाना सम्भव है तथा यह स्ंवय में ही स्पष्ट है कि अगर हम अपनी कृषि योग्य भूमि व अन्नदाता को नही बचा पाये तो तमाम तरह की उपलब्धियों व तकनीकी सफलताओं के बावजूद इस देश की बड़ी आबादी को अन्न उपलब्ध करवा पाना लगभग असम्भव है लेकिन हमारे प्रधानमंत्री व केन्द्र सरकार इस प्रकार के तमाम तथ्यों को नकारते हुऐ किसानो के बकाया सरकारी भुगतान किये जाने व उन्हे राहत देने के स्थान पर पाकिस्तान से चीनी खरीदने या फिर अन्य विदेशी मुल्को से दाले खरीदने के फैसले लेकर समस्याओं का फ़ौरी समाधान खोजने का प्रयास कर रहे है। इन हालातो में अगर किसान आन्दोलन न करे तो क्या करे और इस बार किसानों के इस आन्दोलन के निशाने पर बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा खरीदे या उपजायें गये कृषि उत्पादो का आना यह साबित करता है कि धीरे-धीरे कर किसानो के संगठन अपनी समस्याओं की मेल वजह को समझ रहे है। अब देखना यह है कि इस चुनावी वर्ष में सरकार किसानो की समस्याओं कीे कितनी गम्भीरता से लेती है और उनका यह आन्दोलन अथवा देश के लगभग सभी हिस्सो में बढ़ रही किसानो की आत्महत्या से जुड़ी घटनाऐं देश की राजनीति को किस हद तक प्रभावित करती है।

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