प्रकृति को बचाने के लिऐ | Jokhim Samachar Network

Saturday, April 27, 2024

Select your Top Menu from wp menus

प्रकृति को बचाने के लिऐ

पर्यावरण सरंक्षण जैसे महत्वपूर्ण विषय को लेकर एक दिवसीय चिन्तन या फिर पखवाड़े मात्र के आयोजन से नही निकल सकता इस गम्भीर समस्या का समाधान।
बिगड़ते पर्यावरण और बदलते मौसम को लेकर चिन्तित पर्यावरणविदो् ने उचित अवसर जानकर एक बार फिर हुंकार भरी है तथा तपती गर्मी केें उमस भरे इस मौसम में आग से झुलसते जंगलो के बीच कुछ पर्यावरण प्रेमी वृक्षारोपण के आवहन के साथ नये पेड़ लगाकर खुद को आनन्दित व गर्वान्वित महसूस करते दिख रहे है लेकिन यह चिन्ता किसी को नही है कि गरमी के इस मौसम में किया जाने वाला वृक्षारोपण किस हद तक सफल होगा या फिर सिर्फ बातो अथवा नारो के ज़रिये पर्यावरण को प्रदूषित होने से कैसे बचाया जा सकेगा। कहने को तो इस वर्ष पर्यावरण दिवस के अवसर पर देश एवं दुनिया को गैर जरूरी प्लास्टिक उत्पादों व इससे जनित होने वाले कचरें से मुक्त करना प्राथमिकता का विषय है और इसके लिये चिन्तित वैज्ञानिकों व बुद्धिजीवियों ने अनेक विकल्प भी प्रस्तुत किये है लेकिन सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों व बचाव के उपायों में दूर-दूर तक कही भी यह नही दिखाई दे रहा कि किसी सरकारी नियामक आयोग अथवा संगठन ने इस प्रकार के उत्पादों को जन्म देने वाले कारखानों के लाईसेन्स निरस्त करने की पहल की हो या फिर आम आदमी के जीवन को आसान करने के लिऐ इन प्लास्टिक उत्पादों के स्थान पर कोई सस्ता व सर्वसुलभ विकल्प प्रस्तुत किया हो। हाॅ इतना जरूर है कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आवहन पर लगे स्वच्छ भारत अभियान के नारे के बाद कुछ स्थानो को कूड़े -कचरे के ढ़ेर से मुक्त करने में सफलता जरूर मिली है और उत्साही युवाओं की एक पीढ़ी ने इस दिशा में कुछ काम करते हुऐ नये प्रयास शुरू किये है लेकिन कूड़े के निस्तारण को लेकर ज़िम्मेदार तमाम सरकारी व्यवस्थाओं व स्थानीय निकायों की अकर्मण्यता के चलते हालातो में कोई विशेष बदलाव आता नही दिख रहा और नारो तक सीमित होते दिखाई देते इस तरह के अभियानो अथवा योजनाओं की यह असफलता देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो हम अपने चारो ओर बदलते माहौल व पर्यावरण में आ रहे बदलाव को लेकर संजीदा ही नही है। आंकड़ो के हवाले से हमे खबर दी जा रही है कि धरती पर इस्तेमाल किये जाने योग्य पानी लगातार कम हो रहा है और लगातार सूखते जल श्रोत व तेज़ी से घटता जा रहा भूगर्भीय जल का स्तर यह इशारे कर रहा है कि अगला विश्वयुद्ध इस्तेमाल किये जाने योग्य पानी को लेकर लड़े जाने की सम्भावनाऐं कतई गलत नही है लेकिन क्या इस सबके लिऐ सिर्फ मौसम में तेज़ी से आता दिख रहा बदलाव व पर्यावरणीय असन्तुलन मात्र ही ज़िम्मेदार है या फिर आधुनिकता के नाम पर तेज़ी से आया हमारी जीवन शैली में बदलाव व तकनीकी ज्ञान बघारने के चक्कर में समाज के बीच जबरदस्ती फैलाया जा रहा डर इसका प्रमुख कारण है। मौसम में आने वाले परिवर्तन प्रकृति के आवश्यक नियमों से बॅधे हुऐ है और इस तथ्य को भी नकारा नही जा सकता कि अपने साथ होने वाली अनावश्यक छेड़छाड़ अथवा वन सम्पदाओं के अनावश्यक दोहन ने ऐसे हालात पैदा किये है कि हमारी सभ्यता व वैज्ञानिक रूप से खुद को उन्नत मानने वाला हमारा समाज खुद को डरा-डरा सा महसूस कर रहा है लेकिन अफसोसजनक है कि पर्यावरणविदो्ं का यह डर अथवा विज्ञान की उन्नत शिक्षा हमारे मानव समाज को भयमुक्त जीवन जीने की राह दे पाने में तो असफल है ही साथ ही साथ उसके पास उन तमाम समस्याओं का कोई समाधान भी नही दिखता जो उसने खुद ही पैदा की है। वर्तमान में थोड़ी बहुत बारिश, तूफान या फिर इस तरह के अन्य मौसमी बदलावों का पूर्वानुमान लगाने में तो हम सफल दिखते है और यह कहने में भी कोई हर्ज़ नही है कि इन पूर्वानुमानो के आधार पर हम समाज को प्राकृतिक आपदाओं के चलते होने वाली भारी जन-धन की हानि से बचाने में भी सफल रहे है लेकिन इस मुकाबले में हमने बहुत कुछ खोया भी है और इसका खामियाज़ा हमें या हमारी आगे आने वाली पीढ़ीयों को किसी भी रूप में भुगतना पड़ सकता है। यह माना कि वृक्ष लगाना तथा वनो की सघनता को बढ़ाना पर्यावरण सरंक्षण की दिशा में सबसे आसान व ज़रूरी उपाय है और सरकारी तंत्र अपने सख्त कानूनो की मदद से वनो की सघनता बढ़ाने व वनो के सरंक्षण के लिऐ विभिन्न प्रयास करता दिखाई भी देता है लेकिन सवाल यह है कि अगर वनो में रहने वाले जंगली जानवर मानवीय सुरक्षा के लिऐ खतरा बनने लगे और आधुनिक रहन-सहन व तथाकथित विकास की राह में वनो का बढ़ा क्षेत्रफल ही बाधा लगने लगे तो इस तरह की समस्याओं का समाधान खोजने के लिऐ हमें कौन सा मार्ग अख्तियार करना चाहिऐं। क्या पर्यावरण दिवस जैसे आयोजनों को जो़र शोर से मनाना और बेहतर विकास व मानवीय ज़रूरतो के नाम पर प्रकृति की अनमोल नेमतो को लील जाने की चेष्टा करना ही इसका एकमात्र उपाय है? वर्तमान में हो तो यहीं रहा है और हमारा सरकारी तन्त्र व पर्यावरण सरंक्षण का राग अलापने वाली तमाम सरकारी अथवा गैर सरकारी सस्थाऐं इस गम्भीर समस्या का समाधान ढ़ूॅढ़ने के स्थान पर इस हो हल्ले में अपनी कमाई का ज़रिया ढ़ूढने में लगी है जिसके चलते पर्यावरण सरंक्षण का धन्धा तेज़ी से फल-फूल रहा है लेकिन धन्धेबाजी़ के इस खेल में मानवीय सभ्यता को जो नुकसान हो रहा है उसकी फिक्र किसी को भी नही है और न ही सरकारी तन्त्र इस दिशा में प्रयासरत् है कि जन सामान्य इस कड़वी हकीकत से रूबरू हो सके कि जिसे वह विकास अथवा आधुनिकता की ओर से बढ़ते कदम समझ रहा है वह असल में मृग मारीचिका है जो अपने मोहपाश में बाॅधकर धीरे-धीरे इस सभ्यता को विनाश की ओर ले जा रही है। यह माना कि पर्यावरण सरंक्षण के दृष्टिकोण से नदियों को मरने से बचाना और इन्हे गन्दे पानी के बहते नाले में तब्दील होने से रोकना भी जरूरी है और सरकार इसके लिऐ नमामि गंगे व अन्य योजनाओं के माध्यम से प्रयास भी कर रही है लेकिन सवाल यह है कि क्या हम परम्परागत् तौर-तरीको को नकारकर अथवा प्राचीन मान्यताओं के विरूद्ध आचरण कर देश के तमाम कोनो में बिखरे हुऐ जल के इन प्राकृतिक श्रोतो का सरंक्षण व संर्वधन कर सकते है। वर्तमान में सारा देश खुले में शौच के खिलाफ एक अभियान चला रहा है और सरकार का प्रयास है कि जल्द से जल्द सारे देश को खुले में शौच से मुक्त किया जाये लेकिन हमारे लगभग सभी शहरो में सीवरेज को लेकर व्यवस्थाऐं लगभग ध्वस्त है और इस्तेमाल किये गये पानी को व्यर्थ बरबाद जाने देने की जगह इसे पुनः इस्तेमाल योग्य बनाये जाने की दिशा में हमारी ओर से कोई प्रयास ही नही किये जा रहे। ठीक इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्रो व छोटे कस्बाई क्षेत्रो में मानव जनित गन्दगी को एक ही स्थान पर एकत्र कर सड़ने के लिऐ छोड़ देने से भूगर्भीय जल के प्रदूषण का खतरा बढ़ा है और हम इस परिपेक्ष्य में तमाम तरह की खोज करने या फिर समस्या का बचाव सहित हल निकालने की दिशा में आगे बढ़ने के स्थान पर लकीर के फकीर बनकर नये शौचालयों के निर्माण पर ही जो़र देने में जुटे हुऐ है। वैश्विक परिवेश में 5 जून का एक विशेष अर्थ हेा सकता है और बदलते हुऐ मौसम व ग्लोबल वांर्मिग से चिन्तित पश्चिमी देशो के विशेषज्ञ अपने कम जनसंख्या घनत्व व जून माह के बेहतर मौसम के चलते इस एक दिन के निर्धारण मात्र से अपने कर्तव्यो की इतिश्री मान सकते है लेकिन हमारा परिवेश इस एक दिवसीय चिन्ता या चिन्तन को कोई विशेष महत्व नही देता और न ही विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर होने वाले तमाम मंचीय आयोजनों के माध्यम से हम किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुॅच सकते है। अपने सामाजिक परिवेश व समय के हिसाब से लगातार बदलने वाले मौसम को दृष्टिगत् रखते हुऐ हमारे पूर्वजो ने धर्म के अनुपालन का नाम देकर ऐसे तमाम नियम व सामाजिक प्रतिबन्ध बनाये है जिसका अनुषरण कर हम बड़ी ही आसानी के साथ अपने आसपास स्वच्छता का माहौल कायम रखते हुऐ पर्यावरणीय क्षेत्र में आ रहे परिवर्तनो व इससे जनित होने वाली समस्याओं का न सिर्फ आसानी से सामना कर सकते है बल्कि मानवीय सभ्यता पर अक्सर ही लगने वाले प्रकृति से अनावश्यक छेड़छाड़ के आरोपों से भी आसानी से बचा जा सकता है लेकिन अफसोसजनक है कि आधुनिकता की इस बेशर्म दौड़ व दिखावे की होड़ ने हमे अपनी परम्पराओं व धार्मिक ज्ञान से इतना दूर कर दिया है कि वेज्ञानिक तर्को की कसौटी पर खरे उतरे वाले हमारे रीति-रिवाज हमें पोगापंथी व रूढ़िवादिता लगने लगे है और हम अपनी सामान्य सी समस्याओं के समाधान के लिऐ भी सरकारी तन्त्र की ओर निहारने के आदी होते जा रहे है। हमारी इस नासमझी का पूरा फायदा सरकारी तन्त्र पर हावी दिखने वाली नौकरशाही ने उठाया है और वैश्विक संदर्भ में चिन्हित विश्व पर्यावरण दिवस जैसे तमाम अवसरों को मंचीय आयोजन की दृष्टि से सही व सुलभ मान सरकारी धन की बन्दरबाॅट के नये अवसर तलाशने का खेल शुरू हो गया है। लिहाजा अब यह हमें तय करना है कि हम कागजो पर चलने वाली पर्यावरण संर्वधन व सरंक्षण की योजनाओ पर विश्वास करते हुऐ जेठ की इस भरी दुपहरी में पेड़ लगाते हुऐ आनन्द से अभिभूत हो या फिर पर्यावरण सरंक्षण की दिशा में न्यायोचित कदम उठाते हुऐ अपनी धार्मिक मान्यताओं व परम्पराओं का अनुपालन करने की शपथ ले ।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *