देहरादून। उत्तराखण्ड के एक मात्र क्षेत्रीय दल उत्तराखण्ड क्रांति दल राज्य गठन के बाद एक बार भी सत्ता में पूरी तरह से नही आ पाया। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार कांग्रेस और भाजपा ने यूकेडी को मात्र ताली का बेगन बना कर रखा दिया है। जिसके चलते यूकेडी ंजनता की नजर में कभी तीसरा विकल्प नही बन पाया। जबकि अन्य राज्यों में क्षेत्रीय दलों की ताकत के आगे राष्ट्रीय दल भी नस्मस्तक हो रहे है। लेकिन उत्तराखण्ड में इसके विपरित होता नजर आ रहा है।यहां पार्टी के आला नेता अपने निजि स्वार्थो के चलते उत्तराखण्ड के एक मात्र क्षेत्रीय दल को दुसरे दलों को समर्थन देकर क्षेत्र की सारी समस्याओं का राजनीतिकरण कर रहे है। जिससे जनता का भरोसा यूकेडी से उठने लगा है। अगर अन्य राज्यों के इतिहास को देखा जाए तो तेलंगाना में कलवाकुंतला चन्द्रशेखर राव (केसीआर) की जीत दो पार्टियों, भाजपा और कांग्रेस के बीच सिमटती जा रही भारतीय राजनीति में ध्रुवतारे की तरह चमक रही है। तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीएसआर) की जीत के बाद दूसरे राज्यों की ऐसी ही क्षेत्रीय पार्टियों में अकुलाहट होगी कि इस जीत के पीछे केसीआर की क्या रणनीति रही होगी। उत्तराखण्ड की एकलौती क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखण्ड क्रान्ति दल (यूकेडी) के नेता भी केसीआर की इस जीत को लेकर चिंतन में जरूर होंगे।
दरअसल 1500 किलोमीटर की दूरी के बावजूद यूकेडी और टीआरएस में दो बड़ी समानताएं हैं। पहला तो यह कि दोनों ही पार्टियों का जन्म अलग राज्य की मांग को लेकर हुए आन्दोलन की बुनियाद पर हुआ था और दूसरा इनका क्षेत्रीय स्वरूप। यूपी से अलग उत्तराखण्ड राज्य की मांग को लेकर 1979 में यूकेडी की नींव रखी गई थी और 22 साल बाद 2001 में टीएसआर बनी। लेकिन टीएसआर का परचम तेलंगाना में लहरा रहा है लेकिन यूकेडी की लुटिया उत्तराखण्ड में डूब गई। दोनों में यह अंतर क्यों है? आइए इसके कारणों को समझने लायक 5 पांच बिन्दु है।
सबसे बड़ी गलती- अलग राज्य की मांग को लेकर हो रहे आंदोलन के समय ही यूकेडी की एक भूल ने उसकी राजनीतिक पहचान मिटा दी. साल था 1994. यूकेडी के साथ आंदोलन में शामिल होने के लिए छोटे-छोटे संगठनों ने मांग रखी कि वे यूकेडी के बैनर तले आंदोलन नहीं करेंगे। यूकेडी ने इसे मान लिया और उत्तराखण्ड संयुक्त संघर्ष समिति बनाई गई. हालांकि इसे यूकेडी की लीडरशिप ही लीड कर रही थी लेकिन, पार्टी की अब तक बनी पहचान इससे मिट गई। यही वजह रही कि अलग राज्य बनने के बाद इसका क्रेडिट यूकेडी नहीं ले पाई क्योंकि 1994 से लेकर 2000 तक वह आंदोलन में तो थी लेकिन बैनर उसका नहीं था। लिहाजा 2002 में चुनाव हुए तो पार्टी को 70 में से महज 4 सीटें मिलीं। तब पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक काशी सिंह ऐसी ने कहा कि तब हमने उत्तराखण्ड आंदोलन को ज्यादा महत्व दिया न कि पार्टी के राजनीतिक हितों को। इसके उलट केसीआर ने तेलंगाना आंदोलन के साथ ही पार्टी को भी अहमियत दी टीआरएस ने पहले ही चुनाव में धमाकेदार एंट्री की।
क्षत्रपों की पार्टी, नेताओं की अवसरवादिता- देश भर में जितनी भी क्षेत्रीय पार्टियों का जन्म और विकास हुआ उसमें एक व्यक्ति या फिर एक परिवार की ही भूमिका देखी जा सकती है। अब तो यही परिपाटी राष्ट्रीय पार्टियों में भी देखी जा सकती है लेफ्ट को छोड़कर. यूकेडी में इसका घोर अभाव रहा। उसका अति लोकतांत्रिक होना जहर बन गया और पार्टी मरती चली गई। बड़े राजनीतिक फैसले अलग-अलग तरीके से लिए जाते रहे और उसे कोई प्रबल नेतृत्व दिशा नहीं दे पाया. इससे जनता के बीच पार्टी की साख गिरती चली गई और इसके नेताओं के ऊपर अवसरवादिता का ठप्पा लग गया जो समय के साथ और गहरा होता गया। पार्टी का काडर छिन्न-भिन्न हो गया. केसीआर की टीआरएस में उन्हीं के संबंधियों का सिक्का चलता है। केसीआर के भतीजे हरीश राव पार्टी का संगठन सम्भालते हैं तो उनकी बेटी कविता राव और बेटे केटीआर सरकार के अन्य मामले। ऐसा ही देश की दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों में भी है।
जातीय-क्षेत्रीय भावना पर फोकस नहीं- देश की किसी भी क्षेत्रीय पार्टी के विकास के लिए इन दो भावनाओं का उफान जरूरी है। उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक सदियों तक इस आधार पर घमासान हुआ है। यूकेडी ने इसे कभी अपने एजेण्डे में नहीं लिया। यूपी में विधायक रहे यूकेडी के नेता ये समझने में चूक गए कि जातीय समीकरण कितना बड़ी संजीवनी होती है। उत्तराखण्ड ठाकुर बाहुल्य राज्य है लेकिन, एससी और एसटी की संख्या दूसरे नम्बर पर आती है. यूकेडी के नेता इस पर फोकस नहीं कर पाए जो कि वह कर सकते थे। क्योंकि इन वर्गों पर न तो भाजपा और न ही कांग्रेस का ध्यान रहा। नेतृत्वविहीन इस समुदाय को यूकेडी का सहारा मिल सकता था और यूकेडी को इनका। इसके उलट तेलंगाना में केसीआर ने जातीय तो नहीं लेकिन, क्षेत्रीय भावना के आधार पर ही आंध्रप्रदेश से अलग राज्य हासिल कर लिया। केसीआर की टीआरएस आज इतनी बड़ी होकर उभरी है तो इसके पीछे क्षेत्रीय भावना उभारने का बहुत बड़ा हाथ है।
संसाधनों का अभाव- पार्टी खड़ी करने के लिए काडर से ज्यादा पैसे की जरूरत पड़ती है। यूकेडी हमेशा तंगी से जूझती रही। आन्दोलन के दम पर इसके नेताओं का उभार तो हुआ, वे चुनाव भी जीते लेकिन पार्टी चलाने के लिए जनता से सहयोग मिलने का कोई मैकेनिज्म ये तैयार नहीं कर पाए. दूसरी पार्टियों ने इसे बखूबी आजमाया है। धीरे-धीरे चुनाव महंगे होते चले गए और यूकेडी के नेता इससे बाहर. लड़ने के नाम पर उत्तराखण्ड की 70 में से 50-55 सीटों पर यूकेडी के नेता हमेशा लड़े लेकिन, पैसे के अभाव में चुनाव फीके और प्रभावहीन होते रहे. पैसे की कमी से काडर भी छिटक गया। एजेण्डे की कमी- यूकेडी बनी था यूपी से अलग राज्य उत्तराखण्ड हासिल करने के लिए और वह हो गया. मकसद खत्म पार्टी खत्म. अब यूकेडी की क्या जरूरत? राज्य बनने के बाद पार्टी के दिग्गज नेता भी यह समझ नहीं पाए कि उनका मूल मुद्दा खत्म हो गया है लिहाजा दूसरे प्रभावी मुद्दे जनता के सामने रखने होंगे. अलग राज्य हासिल करने के बाद उसकी परवरिश के मुद्दे यूकेडी जनता के सामने नहीं रख पाई. इसके उलट केसीआर ने अलग तेलंगाना राज्य हासिल होने के बाद नए मुद्दों को जन्म दिया। जनता के सामने राज्य के विकास और आंध्रप्रदेश में रहते हुए उनकी हुई उपेक्षा का मुद्दा खड़ा किया। इसके साथ ही सरकार बनाने के बाद कल्याणकारी योजनाओं ने उन्हें हीरो बना दिया। यूकेडी के कुछ विधायक जीते भी तो वे अपने क्षेत्र में छाप नहीं छोड़ सके। इसके बावजूद पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक तीन बार विधायक रहे काशी सिंह ऐरी को उम्मीद है कि नई लीडरशिप देर सबेर अपनी जगह बनाएगी।