अल्मोड़ा जिले की खजुरानी ग्राम पंचायत में हुई किशोरी की मौत की असली वजह भूख रही हो या फिर उसकी बीमारी लेकिन दोनों ही स्थितियों में यह घटना विकास का राग अलापने वाले राजनैतिक दलों के लिऐ एक तमाचे की तरह है।
अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट विधानसभा क्षेत्र में आने वाले ग्राम पंचायत खजुरानी में एक किशोरी की भूख से हुई मृत्यु की खबर स्तब्ध कर देने वाली है और अगर सही मायने में देखा जाय तो यह सम्पूर्ण घटनाक्रम उस सरकारी मशीनरी की असफलता का प्रतीक है जो जनसामान्य को जीवन की मूलभूत सुविधाऐं उपलब्ध कराने के नाम पर सिर्फ भरोसे के अलावा कुछ नही दे पाया है। उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद अब तक चार सरकारें अस्तित्व में आ चुकी है तथा इन पिछले सोलह-सत्रह वर्षों में भाजपा व कांग्रेस ने यहां बारी-बारी से राज किया है जबकि क्षेत्रीय स्मिता का प्रतीक होने का दंभ भरने वाली एकमात्र स्थानीय राजनैतिक शक्ति उत्तराखंड क्रान्ति दल वर्तमान से पहले हर सरकार में अहम् किरदार निभाने की स्थिति में रही है लेकिन इस सबके बावजूद इस पहाड़ी राज्य में स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल व्यवस्था व विद्युत आपूर्ति जैसी न्यूनतम् सुविधाओं का हाल-बेहाल है और यह तथ्य काबिलेगौर है कि राज्य निर्माण से पहले रोजगार के आभाव में पहाड़ से पलायन करने वाले युवा अब अपने नौनिहालों की बेहतर शिक्षा व्यवस्था व अपने परिजनों को ज्यादा बेहतर सुविधाऐं उपलब्ध कराने के लिऐ इस पहाड़ी राज्य से पलायन कर रहे है। इस कड़ी में इस पहाड़ी राज्य में भूख से होने वाली मौत एक नई खबर है और हालात यह इशारा कर रहे है कि अगर जनसमस्याओं को लेकर सरकारी तंत्र की उदासीनता यूं ही बनी रही तो अब आगे होने वाला पलायन रोजी-रोटी के लिऐ नही बल्कि पेटभर रोटी के लिऐ होगा तथा किसी जमाने में ईमानदार व मेहनतकश माना जाने वाला पहाड़ का आदमी अपनी सरकारों के निकम्मेपन के चलते रोटी की भीख मांगता दिखाई देगा। एक वक्त था जब पहाड़ के खेत सोना उगलतें थे और इन खेतों में होने वाला मोटा अनाज न सिर्फ स्थानीय जनता का पेट भरता था बल्कि मौसम-बेमौसम अपने पुरखों की थाती की ओर रूख करने वाले नौजवान पहाड़ की याद के रूप में इस मोटे अनाज व स्थानीय फलों की छोटी-छोटी पौटलियाँ सुदूर मैदानी इलाकों में रहने वाले अपने सहोदरों व नजदीकी रिश्तेदारों के लिये भी ले जाते लेकिन वक्त बदला और सरकार ने योजनाओं के नाम पर पहाड़ की स्थानीय जनता को लागत से भी कम दाम पर गेहूँ-चावल उपलब्ध करवाना शुरू किया। नतीजतन पहाड़ के सीढ़ीनुमा खेतो पर जंगली जानवरों का राज है और उन्हें मारने या उनका आमना-सामना करने पर सरकारी प्रतिबंध है तथा स्कूल की पढ़ाई के बाद खेतों में पसीना बहाने वाला नौजवान बेहतर भविष्य के सपनांे के साथ शहर की ओर पलायन कर गया है या फिर शाम की दारू-पानी के जुगाड़ में वह सुबह से ही नेताजी की जिन्दाबाद में व्यस्त है। युवा अवस्था की दहलीज पार कर चुकी जनसंख्या या फिर सेना जैसे कतिपय रोजगारों से अवकाश प्राप्त कर पहाड़ों पर जा बसे बुजुर्गों का हाल और भी बुरा है। सरकार की नजर में यह लोग शराब का बेहतर इस्तेमाल कर राजकाज चलाने के लिऐ राजस्व देने वाले बेहतर उपभोक्ता है और कम लागत में मोटा फायदा कमाने की चाह रखने वाले मिलावटखोरों व माफिया के लिऐ, एक जीवित प्रयोगशाला। आश्चर्य का विषय है कि इस देवभूमि के लगभग हर कोने हर ब्राडेंड कम्पनी का नकली माल धड़ल्ले से उपलब्ध है लेकिन सरकारी मशीनरी को इस ओर देखना भी गंवारा नही तथा सरकारी संरक्षण में बिकने वाली देशी व अंग्रेजी शराब के साथ कितने तरह के प्रयोग यहां लगातार किये जा रहे है इसका तो कोई हिसाब अब शराब माफिया के पास भी नही है। इस तमाम तरह की मिलावट व शराब के साथ किये जा रहे तमाम तरह के प्रयोगों ने इस पहाड़ी प्रदेश की शुद्ध जलवायु व प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहने वाले स्थानीय निवासियों के शरीर को तमाम तरह की बीमारियों का घर बना दिया है लेकिन चिकित्सीय सुविधाओं व चिकित्सकों के आभाव में हम इन तमाम बीमारियों का इलाज आज भी देवी-देवताओं की पूजा के माध्यम से खोज रहे है। इन हालातों में मस्कुलर स्पार्म(तंतु पेशियों का समन्वय न होना) जैसी गंभीर बिमारी से ग्रसित एक पूरे परिवार में से एक किशोरी भूख के कारण दम तोड़ देती है तो इसके लिऐ दोषी किसे मानना चाहिऐ? उस व्यवस्था को जो कि परिवर्तन के नाम पर मिली चुनावी जीत के बाद इस पहाडी प्रदेश में शराब की बिक्री को बदस्तूर बनाये रखने के लिऐ न सिर्फ ऐड़ी-चोटी लगाये हुऐ है बल्कि शराब की दुकानों की संख्या बरोबर बनाये रखने के लिऐ जिसे राष्ट्रीय राजमार्गो को राज्य मार्ग या जिला मार्ग में तब्दील करने में कतई रंज नही है या फिर विकास के नाम पर पहाड़ में आये उस बदलाव को, जो कि राज्य के अस्तित्व में आने के बाद इन सोलह-सत्रह सालों में बहुत तेजी से आया है। पहाड़ी जनजीवन को नजदीकी से जानने वाले लोग इस दर्द को ज्यादा भली-भांति महसूस कर सकते है कि इन सोलह-सत्रह सालों मे हमने क्या खोया और क्या पाया है क्योंकि प्रौढ़ या वृद्धावस्था की इस दहलीज तक आने से पहले उन्होंने इस सुख और दुख को कई बार भोगा है। उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद क्षेत्रीय व स्थानीय समीकरणों के आधार पर होने वाले तमाम छोटे-बड़े चुनावों तथा इन चुनावों के बाद विधायक निधि से लेकर पंचायत निधि तक हर छोटी-बड़ी योजना को खपाने के लिऐ नेताओं के इर्द-गिर्द तैयारी होती तथाकथित ठेकेदारों की फौज ने तमाम रिश्तों-नातों व सम्बन्धों की परिभाषा बदलकर रख दी है और शायद यही वजह है कि गांव-देहात में आने वाली तमाम सरकारी योजनाओं व विभिन्न प्रकार की पेंशनों के लिऐं लाभार्थी का चयन उसकी जरूरत के हिसाब से नही बल्कि उसका राजनैतिक खेमा व पहुंच देकर किया जा रहा है। नतीजतन लाल सिहं जैसे कई स्वर्गीय हो चुके बुजुर्गों के परिवार जरूरतमंद होने के बावजूद दर-दर की ठोकरे खा रहे है और अपात्र लोग दिल्ली व देहरादून में बैठे होने के बाद भी सरकारी अनुदान व पेंशन की मलाई चट कर रहे है। व्यवस्था में आये इस बदलाव के लिऐ दोषी कौन है और पहाड़ों के लंबे व जुझारू इतिहास में जुड़ी इस भूख से हुई अकाल मृत्यु की घटना को लेकर असल जिम्मेदार किसकी है, यह एक विचारणीय व आत्मा को झकझोंर देने वाला प्रश्न हो सकता है लेकिन हम सब इस प्रश्न की गंभीरता व घटना के मूल कारणों को तलाश करने की जगह राजनैतिक आरोंप-प्रत्यारोंप को चर्चा का विषय बना रहे है और सत्ता की राजनीति करने वाले तमाम राजनैतिक दल इस गंभीर घटनाक्रम से सबक लेने के स्थान पर एक नई तरह की थुक्काफजीहत में जुट गये मालुम होते है।