शराब विरोधी महिला आन्दोलनकारियों को समझाने के लिऐ त्रिवेन्द्र सरकार का नया पैंतरा उत्तराखंड की त्रिवेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व वाली भाजपा की पूर्ण बहुमत सरकार के खिलाफ लगभग पूरे प्रदेश में चल रहा शराब विरोधी आंदोलन बदस्तूर जारी है और शराब की दुकानों को पुरानी जगहों पर ही स्थानांतरित करने के लिऐ सरकार द्वारा उठाये गये बड़े कदम के रूप में राष्ट्रीय राजमार्गो को राज्य मार्गो व जिला मार्गो में तब्दीली कर देने के बड़े फैसले के बाद भी सरकारी नियन्त्रण वाली आधी से अधिक दुकानों पर बंदी की तलवार लटक रही है। शराब बिक्री के माध्यम से पिछले वर्षो की अपेक्षा तुलनात्मक रूप में ज्यादा राजस्व इक्ट्ठा करने की इच्छा रखने वाली नवगठित सरकार राजनैतिक कारणों से शराब की बिक्री का खुला समर्थन करने की स्थिति में तो नही है लेकिन पूर्णतः राजनैतिक होकर राज्य में शराबबंदी जैसे ऐलान करना भी उसके बस से बाहर दिख रहा है। इसलिऐं सत्ता पक्ष द्वारा शराब बिक्री को लेकर नया दांव खेलते हुऐ शराब बिक्री की समय सीमा कम करने की घोषणा की गयी है और मुख्यमंत्री का कहना है कि सरकार इस समय सीमा को इसी तरह धीरे-धीरे कम करते हुये प्रदेश को पूर्ण शराबबंदी की ओर ले जायेगी तथा इस अंतराल में सरकार द्वारा अपनी आय बढ़ाने के लिऐ अन्य संसाधन ढ़ूंढ़ने के विकल्पों पर भी विचार किया जायेगा। मुख्यमंत्री की यह घोषणा लोकलुभावन होने के बावजूद शराब की दुकानों के खिलाफ आन्दोलन कर रहे महिला संगठनों को प्रभावित करने वाली या फिर राज्य में शराब की खपत में कमी लाने वाली प्रतीत नही होती और न ही यह उम्मीद की जा सकती है कि एक मुख्यमंत्री के रूप में त्रिवेन्द्र रावत जो कुछ कह रहे है वह वाकई में उनकी सरकार की भी मंशा है। यह ठीक है कि शराब की दुकानों के खुलने व बंद होने की समयसीमा में कमी करते हुये स्थानीय स्तर पर जनता को कुछ राहत जरूर दी जा सकती है लेकिन इसका एक उल्टा असर यह भी संभव है कि इस समय सीमा के भीतर शराब प्राप्त करने के लिऐ शराबियों के बीच होने वाले मारामारी न सिर्फ इस दौरान होने वाले यातायात को प्रभावित करेगी बल्कि टाइम-बे-टाइम शराब उपलब्ध कराने के लिऐ पुलिसिया मिलीभगत से धड़ल्ले के साथ चलने वाले शराब के अवैध कारोबार को भी बढ़ावा मिलेगा। यह तथ्य किसी से भी छुपा नही है कि राज्य में वैध शराब की खुली बिक्री के बावजूद अन्य राज्यों से आने वाली अवैध शराब का बड़ा कारोबार है और तीर्थ नगरी हरिद्वार या ऋषिकेश जैसे तमाम शराब के लिऐ प्रतिबन्धित क्षेत्रों में आपसी मिलीभगत के साथ धड़ल्ले से शराब बेची जाती है। हालातों के मद्देनजर यह कहना कि शराब की दुकानो के खुलने अथवा बंद होने की समय सीमा को कम कर शराब बिक्री को प्रभावित किया जा सकता है, कतई गलत होगा और अगर सरकार बिना किसी पूर्व तैयारी के उत्तराखंड में शराब बिक्री पर रोक लगाती है तो सरकार का यह कदम राजस्व वसूली की दिशा में होने वाले एक बड़े नुकसान के अलावा राज्य के विभिन्न हिस्सों में शराब के अवैध कारोबार को बढ़ावा देने वाला भी साबित हो सकता है लेकिन सरकार की मजबूरी है कि वह राज्य के विभिन्न हिस्सों में शराब विरोधी आन्दोलन कर रही आन्दोलनकारी महिलाओं की संतुष्टि के लिऐ कुछ ऐसे कदम उठाये जिससे कि स्थानीय स्तर पर जनता के बीच यह संदेश जाय कि सरकार वाकई में आन्दोलन से प्रभावित होकर इस दिशा में कुछ प्रयास कर रही है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि शराब कई समस्याओं की जड़ है और पिछले दो-तीन दशकों में इसके सेवन को मिली सार्वजनिक स्वीकृति ने सामाजिक रूप के कई विकृतियों को जन्म दिया है लेकिन क्या पूर्ण शराबंदी इस समस्या का स्थायी व समुचित निदान है? दशकों पूर्व पहाड़ों में प्रचलित सुरा, टिंची या ऐसे ही अन्य नामों से बिकने वाले आयुवेर्दिक आसवो की खपत और वर्तमान में नई पीढ़ी द्वारा नशे के रूप में प्रयुक्त किये जा रहे थिनर, आयोडेक्स, इंक रिमूवर या फिर शहरी व कस्बाई क्षेत्रों में इफरात से मिल रही स्मैक, हैरोइन, चरस, गांजा जैसी नशे की सामाग्रियों को देखते हुऐ तो ऐसा नही लगता कि सरकारी नियन्त्रण में चलने वाली शराब की दुकानों पर पूर्ण या आंशिक बंदी लागू कर शराब के बढ़ते प्रचलन व इसके सेवन को मिली सार्वजनिक स्वीकृति से होने वाले नुकसानों से बचा जा सकता है? तो फिर स्थानीय स्तर पर शराब की दुकानों के विरोध में होने वाले आन्दोलनों का क्या औचित्य है? कहीं ऐसा तो नही है कि स्थानीय स्तर पर होने वाले इन तमाम छोटे-छोटे आन्दोलनों के पीछे शराब माफिया या शराब कारोबारियों का ही हाथ हो और इस तरह सामाजिक रूप से शराब का विरोध दिखा आगामी वर्षो में शराब की कुछ ठीक-ठाक बिक्री वाली दुकानें कम राजस्व जमाकर हथियाने की एक सुनियोजित चाल शराब के कारोबारियों द्वारा ही चली गयी हो या फिर शराब के धंधे में होने वाले मोटे मुनाफे को देखेते हुऐ इस कारोबार में दखल देने को आमादा युवाओं व महिलाओं के एक हिस्से को स्थानीय स्तर पर होने वाले विरोध का डर दिखाकर इस धंधे के मंजे हुये खिलाड़ी पहले ही मैदान से बाहर करना चाहते हो। ऐसा कुछ भी हो सकता है क्योंकि वर्तमान में उत्तराखंड में चल रहा शराब की दुकानों का विरोध वस्तुतः नशे के कारोबार का विरोध नही है बल्कि कुछ महिलाओं के समूह स्थानीय जनता के सहयोग से अपने क्षेत्र में पड़ने वाली शराब की दुकानो को वहां से हटाने या फिर अन्यंत्र स्थानांतरित करने के लिऐ संघर्ष कर रहे है और कुछ राजनैतिक व सामाजिक संगठन अपने-अपने व्यक्तिगत् स्वार्थो को देखते हुऐ इन छुटपुट आन्दोलनों को बाहर से समर्थन दे रहे है। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि शराब इस पहाड़ी राज्य के लिऐ एक अनावश्यक बीमारी होने के साथ ही साथ देवभूमि की संस्कृति के बिल्कुल विपरीत है और उत्तराखंड की युवा पीढ़ी का इसके सेवन को लेकर बढ़ रहा रूझान राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में इस छोटे प्रदेश द्वारा दिये जा रहे योगदान को भी प्रभावित कर रहा है लेकिन शराब की वैध बिक्री को सरकारी आदेशों के जरिये बलपूर्वक बंद कर देना इस समस्या का वाजिब समाधान नही है बल्कि अगर सही मायने में देखा जाय तो सरकार द्वारा उठाया गया ऐसा कोई कदम सरकार के लिऐ राजस्व की दृष्टि से आत्मघाती होने के साथ ही साथ राज्य में माफिया संस्कृति को बढ़ावा देने वाला हो सकता है। अगर राज्य की जनता वाकई में पूर्ण शराबबंदी चाहती है तो शराब की दुकानों को बंद करने के लिऐ आन्दोलन व तोड़फोड़ कर रही मातृशक्ति ने सामूहिकता के साथ आगे आना होगा और इस संदर्भ में राजनैतिक इच्छा शक्ति रखने वाले सामाजिक संगठनों व बुद्धिजीवियों को साथ लेकर स्थानीय जनता को शराब के उपयोग से होने वाले नुकसान की जानकारी देते हुये इसके सेवन व सार्वजनिक उपयोग के खिलाफ माहौल बनाना होगा। अफसोसजनक स्थिति है कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन के बाद से वर्तमान तक कई छुट-पुट प्रयासों के बावजूद जनवादी विचारधारा के संगठन विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर आन्दोलन खड़ा करने के लिऐ खुद को तैयार नही कर पा रहे है और शायद यहीं वजह है कि कुछ मौका परस्त लोग शराब के सेवन को लेकर स्थानीय जनता विशेषकर महिलाओं के बीच उपज रहे आक्रोश का नाजायज फायदा उठाने के लिऐ प्रयासरत् है। लेकिन ‘लूट की खुली छूट‘ के इस दौर में व्यापक जनहित की परवाह ही किसे है?