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Monday, May 06, 2024

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व्यापक जनहित से जुड़े मुद्दों पर

सत्ता के शीर्ष पर हावी नौकरशाही ने शुरू किये अपने खेल, त्रिवेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व वाली पूर्ण बहुमत सरकार भी हो सकती है फेल।
उत्तराखंड की नवगठित सरकार सदन में दो तिहाई बहुमत प्राप्त होने के बाद बावजूद भी खुलकर कार्य नही कर पा रही है और सरकार के मुखिया त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने सत्ता संभालते ही नौकरशाही के समक्ष घुटने टेक दिये मालुम होते है। वजह चाहे जो भी हो लेकिन यह सच है कि निजाम बदल जाने के बावजूद सरकार के काम करने के तरीके में कोई बदलाव नही आया है और कार्यशैली में शुचिता व भ्रष्टाचार मुक्त शासन की बात करने वाली भाजपा के इस पिछले एक महिने के कामकाज को देखकर कहीं से भी ऐसा प्रतीत नही होता कि सरकार व्यापक जनहित को ध्यान में रखते हुऐ सरकारी कामकाज के तौर-तरीकों में बदलाव लाने की कोशिश कर रही है। राज्य गठन के बाद से वर्तमान तक शासन के शीर्ष पदो पर हावी नौकरशाही ने जैसे चाहा है, इस राज्य में जनता के बीच से चुनी गयी तथाकथित सरकारों ने इस राजसत्ता को उसी हिसाब या विज़न से चलाया है और इस तथ्य से भी इनकार नही किया जा सकता कि राज्य गठन के बाद अस्तित्व में आयी अस्थायी राजधानी देहरादून को अपनी ऐशगाह बना कुछ वरीष्ठ नौकरशाहों ने राज्य की अस्मिता के साथ जबरदस्त खिलवाड़ किया है। मजे की बात यह है कि इन नौकरशाहों के चेहरे भले ही बदलते रहे हो लेकिन इनके काम करने का तरीका व स्थानीय जनता को लेकर इनकी सोच कभी नहीं बदली है और सत्ता के शीर्ष पर काबिज होने के बाद इन नौकरशाहों के विरोधी रहे जनप्रतिनिधियों ने भी जनभावनाओं का सम्मान करने के स्थान पर इन दागी नौकरशाहों पर भरोसा करना ज्यादा उचित समझा है। हालातों के मद्देनजर यह उम्मीद तो कम ही थी कि राज्य में बनने वाली नयी सरकार सत्ता संभालने के बाद शासन में शीर्ष पदों पर बैठे सभी नौकरशाहों की गुण व दोष के आधार पर विवेचना करते हुऐ राजकाज को आगे बढ़ायेगी लेकिन राज्य में पहली बार अस्तित्व में आयी दो तिहाई बहुमत वाली स्थिर सरकार और सत्ता पक्ष के चुनावी नारे व मुद्दे देखते हुये एक उम्मीद थी कि अब शायद व्यापक जनहित की बात होगी परन्तु हालात कुछ और ही इशारा कर रहे है क्योंकि न सिर्फ मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत की कथनी और करनी में फर्क दिखाई दे रहा है बल्कि दागी नौकरशाहों व सरकारी कामकाज में नौकरशाही द्वारा अड़ाये जाने वाले अंड़गे को लेकर भी उनका रवैय्या स्पष्ट नही है। कितना आश्चर्यजनक है कि उत्तराखंड मूल के एमएस बिष्ट व एमएम रयाल नामक दो अधिकारियों के मुख्यमंत्री कार्यालय में अपर सचिव के रूप में तैनाती के आदेश सिर्फ इस आधार पर निरस्त कर दिये जाते है कि वह जूनियर अधिकारी है और उनका ग्रेड-पे व प्रमोशन रूका हुआ है लेकिन इसी क्रम में श्रमायुक्त, अपर आयुक्त, सचिव सूचना आयोग, एमएनए या सीडीओ जैसे पदों पर तैनात अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही नही होती और न ही मृत्युजंय मिश्रा व नृपेन्द्र तिवारी जैसे अधिकारियों के नाम कई विवादों से जुड़े होने के बावजूद भी इन्हें सचिवालय या मुख्यमंत्री कार्यालय में तैनाती दिये जाने को मुद्दा नही बनाया जाता। यह एक जांच योग्य विषय हो सकता है कि उत्तराखंड के सचिवालय स्तर पर वह कौन सी मजबूत लाॅबी काम कर रही है जो राज्य के अस्तित्व में आने के बाद चयनित पहले ही बैच के पीसीएस अधिकारियों की नियमानुसार पोस्टिग या स्थानांतरण में तो अंड़गा लगा रही है किन्तु अन्य राज्य से आये निसंवर्गीय कर्मचारियों को सचिवालय में तैनाती, मनवांछित पोस्टिग या फिर समय से पहले ग्रेड-पे और प्रमोशन देने में जिन्हें कोई आपत्ति नही है। वर्तमान में उत्तराखंड का सत्ता तंत्र खासकर सचिवालय, चंद नौकरशाहों का चारागाह बनकर रह गया है और शासन के शीर्ष पदो पर काबिज कुछ नौकरशाहों ने पूरे सिस्टम पर एकाधिकार सा कर लिया है। यह जब चाहे जिसे चाहे बेशुमार ताकत से नवाजते हुये मृत्युजंय मिश्रा या नृपेन्द्र तिवारी बना देते है और जब चाहे बिष्ट या रयाल जैसे किसी भी अधिकारी की तैनाती पर अंड़गा लगा देते है। इनके चेहरे भले ही बदलते हो लेकिन सत्ता के शीर्ष पदो पर बैठकर शासन तंत्र की डोर खींचने का इनका तरीका हमेशा एक सा रहता है और मजे की बात यह है कि अपने हर दांव की सफलता सुनिश्चित करने के लिऐ इन्हंे गढ़वाली-कुँमाऊनी, ठाकुर-ब्राहमण या फिर पौड़ी-टिहरी का खेल खेलने में भी कोई हर्ज नही दिखता। शासनतंत्र के नियमों को अपनी सुविधा के हिसाब बदलने तथा अपने चहेतो के लिये नियम, कायदें व कानून की धज्जियाँ उड़ाने वाले इन वरीष्ठ नौकरशाहों में आखिर ऐसा क्या खास है जो किसी भी सरकार का कामकाज इनके बिना नही चल पाता और इसे अराजकता नही तो क्या कहा जाये कि सरकार के आदेश बदलने या फिर उसमें मनवांछित तब्दीली लाने के लिये नोटशीट बदलने का खेल खेलने वाले यह नौकरशाह हमेशा ही सत्ता के नजदीक बने रहते है। राज्य की चैथी विधानसभा के अस्तित्व में आने के बाद यह माना गया कि एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार नौकरशाही पर नकेल रखते हुये शासन के नाम पर सचिवालय की शह से खेले जाने वाले लूट के खेल पर अंकुश लगायेगी और सरकार के मुखिया के रूप में त्रिवेन्द्र सिंह स्थानीय आधार पर अधिकारियो व कर्मचारियों को तवज्जों देंगे लेकिन हालत इशारा कर रहे है कि एक प्रचण्ड बहुमत वाली सरकार के मुख्यमंत्री अपने साथ अपनी पंसद के दो अधिकारियो को ही नही रख पा रहे है और शासन के शीर्ष पर हावी कुछ वरीष्ठ नौकरशाह निजी स्वार्थो के चलते इसे आईएएस बनाम पीसीएस अफसरों के वर्चस्व को लड़ाई का नाम दे रहे है जबकि हकीकत यह है कि सत्ता के उच्च सदनों पर काबिज कुछ चेहरें भ्रष्टाचार के खेल में इतने रम गये है कि कोई भी दल या नेता सत्ता पर काबिज हो इन्हें कोई फर्क नही पड़ता।

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