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Friday, April 26, 2024

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राजनैतिक जरूरतों के हिसाब से

सरदार भगत सिंह व साथियों के शहीदी दिवस पर विशेष
शहीद भगत सिंह, राजगुरू एवं सुखदेव की शहादत की बरसी पर वामपंथी व दक्षिणपंथी संगठनों के बीच आजादी के इन मतवालों को अंगीकार करने की होड़ दिखती है तथा एक दूसरे के कतई विपरीत यह दोनों ही विचारधाराएं भगत सिंह व उनके साथियों की राजनैतिक विरासत पर अपनी दावेदारी करती दिखाई देती हैं। हालांकि यह कहना कठिन है कि आजादी के मतवाले क्रांतिकारी भगत सिंह व उनके साथियों की कौन-कौन सी नीतियों व सिद्धांतों का अनुपालन यह दोनों राजनैतिक विचारधाराएं करती हैं और देश की आजादी के आंदोलन में इन राजनैतिक विचारधाराओं का क्या योगदान है लेकिन देश व समाज के एक बड़े हिस्से के बीच स्पष्ट दिखती भगत सिंह व उनके साथियों की स्वीकार्यता इन दोनों राजनैतिक दलों या विचारधाराओं को ही नहीं बल्कि विभिन्न सामाजिक व राजनैतिक मुद्दों पर आंदोलन के सुरों को बुलंद करने वाले संगठनों को भी अपनी ओर आकर्षित करती है। वैसे अगर देखा जाये तो देश की आजादी का इतिहास देशवासियों की थाती होने के चलते इस पर हर भारतवासी का हक है और हर राष्ट्र प्रेमी व्यक्तित्व को अपने राष्ट्र नायकों व देश की आजादी के लिए मर-मिटने वाले वीर जवानों पर गर्व होना भी चाहिए लेकिन हमने देखा है कि इन तमाम पुण्यात्माओं की जन्मतिथि या शहीदी की बरसी के अवसर पर इनके प्रति प्रेम प्रदर्शित करने वाले तमाम राजनैतिक दल व चेहरे इनके आदर्शों या सिद्धांतों की चर्चा करने की जगह इनकी तस्वीर को आगे कर वोट बटोरने की फिराक में दिखाई देते हैं और मौका निकल जाने पर या फिर जरूरत पूरी होने के बाद इन महान आत्माओं की तस्वीरों या आदर्शों की जरूरत किसी को नहीं रहती। यह ठीक है कि चुनावी जीत को पक्की करने के लिए स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों व आजादी के आंदोलन में भागीदारी करने वाले तमाम नेताओं की तस्वीरों का सबसे बड़ा फायदा कांग्रेस ने उठाया और देश की आजादी के आंदोलन को एक अरसा बीत जाने के बाद भी कांग्रेस हर चुनावी मोर्चे पर अपने अतीत व गौरवमयी इतिहास का जिक्र करना नहीं भूलती लेकिन इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि आजादी के आंदोलन में भागीदारी करने वाले तमाम छोटे-बड़े नामों को अंगीकार करने व इनका राजनैतिक इस्तेमाल कर फायदा उठाने की जुगत ढूंढने वाली कांग्रेस ने एक हद तक गरम दल के नेताओं से दूरी बनाये रखी और देश की आजादी में गरम दल अर्थात् सशस्त्र क्रांति के योगदान को पूरी तरह नकारने का प्रयास किया गया। इस सबके बावजूद यह कहना न्यायोचित नहीं होगा कि कांग्रेस के नेताओं ने सत्ता के नशे में चूर होकर गरम दल अर्थात् क्रांतिकारी तरीके से अंग्रेजों का विरोध करने वाले नेताओं को अनदेखा करने का प्रयास किया और देश की आजादी के बाद लिखे गए इतिहास में क्रांति के इन महान सूत्रों को कोई जगह नहीं दी गयी लेकिन असल गड़बड़ भी यहीं से शुरू हुई और कांग्रेस की देखादेखी सत्ता की राजनीति करने वाले विभिन्न राजनैतिक दलों ने न सिर्फ अपनी जरूरत व समझ के हिसाब से अपने-अपने आदर्श चुनने शुरू कर दिए बल्कि अपनी नीतियों व राजनैतिक जरूरतों के हिसाब से इन तमाम स्वतंत्रता सेनानियों के वक्तव्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया जाने लगा और कलाकारों व छवि निर्माताओं की मदद से इन सेनानियों की धार्मिक छवि व व्यक्तित्व की अन्य खासियतों को उकेरा जाने लगा। वर्तमान में सरदार भगत सिंह की पीली पगड़ी वाली फोटो इसी चरित्र निर्माण की एक परम्परा का उदाहरण है वरना इतिहास में ऐसा जिक्र कहीं भी नहीं है कि युवा भगत सिंह ने अपने धर्म को प्रतिबिम्बित करने के लिए पग धारण की हो। हां इतना जरूर है कि उनके निकटतम सहयोगियों व क्रांतिकारी संगठन में चन्द्रशेखर आजाद समेत कई कट्टर व जनेऊ धारण करने वाले ब्राह्मण मौजूद थे और अनेक अवसरों पर क्रांतिकारी वार्तालाप के अलावा धर्म-चर्चा या फिर अन्य तमाम विषयों पर बहस को पूरा सम्मान व स्थान दिया जाता था लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि इन तमाम क्रांतिकारियों ने किसी धार्मिक भावना से ओत-प्रोत होकर आजादी के इस रण में भागीदारी करने का मन बनाया था या फिर इन क्रांतिकारियों का उद्देश्य किसी धर्म विशेष के आधार पर साम्राज्यवाद को बढ़ावा देना था। इतिहास यह भी बताता है कि अहिंसा के स्थान पर क्रांति के मार्ग को चुनकर देश की आजादी की जंग में भागीदारी करने वाले विभिन्न युवा क्रांतिकारियों ने उस दौर के आसपास वैश्विक स्तर पर होने वाली तमाम रक्तहीन व रक्तरंजित क्रांतियों का गहन अध्ययन किया था और माक्र्स व लेनिन जैसे विद्वान क्रांतिकारियों को पढ़ने व समझने के बाद भगतसिंह व उनके सहयोगी इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि शासन व्यवस्था पर आम आदमी का अधिकार दर्ज कराने के लिए कमजोर व मेहनतकश वर्ग को एकजुट कर सत्ता संघर्ष के लिए तैयार किया जाना आवश्यक है लेकिन वर्तमान हालातों में हम देख रहे हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर विश्वास करने के नाम पर चुनावों में भागीदारी कर शराब व लूट की दौलत के जरिये आम आदमी के हितों व अधिकारों पर कुठाराघात करने वाली राजनैतिक ताकतें व उनके नेता, पुलिसिया दमन के जरिये किसान, मजदूर व आम आदमी की आवाज दबा देना चाहते हैं तथा अपनी मनमर्जी का साम्राज्य कायम करने के लिए अंग्रेजी दौर के नियम-कानूनों को बदस्तूर अंगीकार किया गया है। इन हालातों में अगर कोई नेता या राजनैतिक दल यह कहता है कि देश की आजादी के बाद गंाधी, सुभाष व भगतसिंह समेत तमाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों व वीर योद्धाओं के सपनों का भारत तैयार करने की दिशा में काम किया जा रहा है या फिर किसी राजनैतिक दल के कार्यकर्ता आजादी के इन मतवालों की अपने हिसाब से बनायी गयी तस्वीरों को लेकर किसी भी तरह का राजनैतिक प्रलाप व नारेबाजी करते हैं तो हमें समझ जाना चाहिए कि यह तमाम लोग भगत सिंह से लेकर गांधी तक किसी भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के दिल की भावनाओं को समझने में नाकामयाब हैं। भगत सिंह विचारों में जोश भरने वाला एक नाम है और ताउम्र अहिंसा व त्याग की नीतियों का पालन करने वाले महात्मा गांधी का कोई भी बुत या तस्वीर खुद-ब-खुद उनकी जिंदगी के उद्देश्यों को बयान कर देता है। अगर इन दोनों अग्रजों व इन्हें आदर्श व नायक मानने वाले अन्य तमाम आजादी के मतवालों को अपना पथ प्रदर्शक बता सत्ता की राजनीति से जुड़ी कोई भी बात की जाती है तो हमें यह मानकर चलना चाहिए कि वह झूठ के पुलिन्दे के सिवा और कुछ नहीं हो सकती क्योंकि इन तमाम स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों द्वारा स्थापित किए गए जीवन के आदर्श व मानव जीवन के मूल्य समझने का तरीका हमें आम आदमी व हर जरूरतमंद के हितों की लड़ाई लड़ने के लिए उत्साहित करते प्रतीत होते हैं जबकि राजकाज की थोड़ी भी समझ रखने वाला एक सामान्य इंसान इस तथ्य को अच्छी तरह समझता है कि भारत जैसी तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था में शोषित अथवा पीड़ित समाज के हितों की बात करना, एक दिखावा मात्र है। शायद यही वजह है कि इस देश की सत्ता पर काबिज व कब्जेदारी के लिए संघर्षरत् तमाम राजनैतिक विचारधाराओं ने अपनी जरूरत के हिसाब से भगतसिंह से लेकर गांधी तक के दौर के अनेकानेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का समय-समय पर अपमान व सम्मान करने तथा उनकी नीतियों व आदर्शों को अंगीकार करने का दिखावा जरूर किया है लेकिन वास्तव में इनकी नीतियां व सिद्धांत हमेशा से इन आदर्श व्यक्तित्वों के विरूद्ध रहे हैं। वर्तमान हालातों में समाजवाद व अधिनायकवाद की गहरी समझ की ओर बढ़ता जा रहा युवा वर्ग इन पिछले सत्तर सालों में देश के भीतर बढ़े शिक्षा के प्रचार-प्रसार के जरिये वैश्विक राजनीति व इतिहास के प्रति जागरूक दिख रहा है तथा समाज के एक बड़े हिस्से में गैर-बराबरी, काम के अधिकार व व्यवसायिक शोषण जैसे तमाम मुद्दों पर आवाजें फिर बुलंद होती दिख रही हैं जिस कारण भगत सिंह, लेनिन या माक्र्स एक बार फिर प्रासंगिक होते नजर आ रहे हैं। इनकी बढ़ती प्रासंगिकता से घबराये राजनीति के दावपेंच में माहिर नेताओं को यह जानकारी है कि अगर जनता वाकई भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों व गांधी जैसे कर्मवीरों के सिद्धांतों व नीतियों को समझकर उन पर अमल करने लगी तो राज-काज को संभाले रखना व छदम् लोकतंत्र के नाम पर पूंजीवादी व्यवस्था पर आधारित शासन को कायम रखना कठिन हो जाएगा लेकिन इनकी मजबूरी है कि समाज के एक बड़े हिस्से के बीच भगतसिंह व गांधी के सिद्धांतों व नीतियों को मिली जनस्वीकार्यता को देखते हुए इनका खुलकर विरोध भी नहीं किया जा सकता। इसलिये भेड़ की खाल में छिपे यह भेड़िये विभिन्न अवसरों पर गांधी व भगतसिंह को सम्मान देने व उनके आदर्शों को मानने का स्वांग करते हैं और मौका मिलते ही अपनी कुत्सित राजनैतिक सोच को इन राष्ट्रनायकों के साथ जोड़कर इन्हें अपने पक्ष में खड़ा करते नजर आते हैं लेकिन हकीकत में इन्हें गांधी के हत्यारे गोडसे के मंदिर बनाने या फिर लेनिन व माक्र्स की मूर्तियां तोड़ने से कोई विरोध नहीं है और भगतसिंह को थोड़ा भी पढ़ने या समझ सकने वाला सामान्य पुरूष यह जान सकता है कि माक्र्स व लेनिन के सिद्धांतों की अवहेलना कर अथवा इन्हें अनदेखा कर हम भगतसिंह को अंगीकार कर ही नहीं सकते। इसलिए भगतसिंह व अन्य तमाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों व शहीदों की याद में आयोजित कार्यक्रमों के जरिये राजनैतिक ढकोसलेबाजी करने वाले नेताओं व राजनैतिक दलों से जनता ने यह अवश्य पूछना चाहिए कि वह इन महान हस्तियों के किन सिद्धांतों व नीतियों से प्रेरित हैं।

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