फिलहाल योगी साम्राज्य को कोई खतरा नहीं लेकिन देनी पड़ सकती है अग्निपरीक्षा।
त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड के पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा की सरकार बनने के तत्काल बाद उत्तरप्रदेश के गोरखपुर व फूलपुर लोकसभा क्षेत्रों तथा बिहार के अटरिया लोकसभा क्षेत्र के साथ ही साथ जहानाबाद विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में विपक्ष को मिली सफलता से कांग्रेस समेत तमाम भाजपा दल उत्साहित है तथा इन चुनाव नतीजों को आधार बनाते हुए कुछ राजनैतिक परिवेक्षक वर्ष 2019 में प्रस्तावित लोकसभा चुनावों को लेकर कयास लगाने लगे हैं। हालांकि उपचुनाव के यह नतीजे आश्चर्यचकित करने वाले हैं तथा गोरखपुर में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के इस्तीफे के बाद खाली हुई इस सीट पर उपचुनाव में सत्तापक्ष को मिली हार को इस क्षेत्र के निर्विवाद नेता व वर्तमान में उ.प्र. सरकार के मुख्यमंत्री महंत आदित्यनाथ की घटती लोकप्रियता से जोड़कर देखा जा रहा है लेकिन इन तमाम सीटों पर हार के बावजूद भाजपा की केन्द्र सरकार या फिर बिहार की राजग सरकार को कोई खतरा नहीं है और न ही केन्द्रीय सत्ता पर काबिज मोदी व अमित शाह की जोड़ी इस हार को गंभीरता से लेती दिख रही है। हां इतना जरूर है कि गोरखपुर में भाजपा को मिली इस हार के बाद योगी के विरोध में उठने वाले सुरों की तल्खी बढ़ गयी है और अब सत्ता के सहयोगी संगठनों के अलावा भाजपा के भीतर से भी योगी को मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने की मांग जोर पकड़ने लगी है लेकिन सवाल यह है कि क्या वाकई योगी आदित्यनाथ इस हार के लिए पूरी तरह जिम्मेदार हैं और भाजपा का शीर्ष नेतृत्व मुख्यमंत्री को उनके इस कमजोर प्रदर्शन के लिए सजा दे सकता है। अगर उत्तरप्रदेश के राजनैतिक हालातों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि अपनी कुर्सी संभालने के बाद योगी आदित्यनाथ ने पूरे आक्रामक अंदाज के साथ कई छोटे-बड़े फैसले लिये और उनके द्वारा कानून व्यवस्था कायम कर अपराधियों पर लगाम लगाने की कोशिशों के तहत की गयी पुलिसिया मुठभेड़ को नैतिक स्वरूप देने की कोशिश को जनमत के एक बड़े हिस्से द्वारा सराहा भी गया। हालांकि अपने इस एक वर्ष के कार्यकाल के दौरान योगी कुछ बड़े फैसले लेने या फिर आम आदमी के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए रोजगार के नये संसाधनों की तलाश में पूरी तरह असफल रहे लेकिन इस सबके बावजूद वह न सिर्फ खबरों के केन्द्र ही बने रहे बल्कि त्रिपुरा और नागालैंड के चुनावों में भाजपा को मिली आशातीत सफलता से योगी का नाम जोड़ते हुए उन्हें प्रधानमंत्री पद का अगला दावेदार तक घोषित करने की जल्दबाजी की गयी। यह माना कि कट्टर हिन्दूवादी माने जाने वाले योगी आदित्यनाथ को वर्तमान में सत्ता से हटाना इतना आसान नहीं है क्योंकि उनके समर्थकों व भक्तों की न सिर्फ एक लंबी फेहिस्त है बल्कि उनके द्वारा गठित ‘हिन्दू वाहिनी’ की उ.प्र. के राजनैतिक मंचों पर महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करायी जाती रही है लेकिन सवाल यह है कि अगर योगी आदित्यनाथ उ.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के नक्शेकदम पर चलते हुए अयोध्या के राम मंदिर निर्माण के संदर्भ में कोई बड़ा कदम उठाने में कामयाब रहते हैं तो क्या वह रातोंरात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से भी ज्यादा लोकप्रिय हस्ती नहीं बन जायेंगे और इन परिस्थितियों में योगी की प्रधानमंत्री की कुर्सी को लेकर प्रबल होती दिख रही दावेदारी को कम किया जाना आसान नहीं होगा। हम देख व महसूस कर रहे हैं कि आर्थिक मोर्चे पर पूरी तरह असफल मोदी सरकार आगामी लोकसभा चुनावों के वक्त धार्मिक कार्ड को खेलने की पूरी तैयारी में हैं और त्रिपुरा में भाजपा की जीत के बाद हुए दंगों व मूर्तियों पर हमले व उन्हें खंडित करने के एक लम्बे दौर के बाद यह भी लगभग तय हो चुका है कि भाजपा के समर्थक येन-केन-प्रकारेण अपनी चुनावी जीत को पक्का करने के लिए दंगों से परहेज करने के मूड में नहीं हैं लेकिन राजनीति के बदले हुए माहौल में मोदी व अमित शाह की जोड़ी विपक्ष के निशाने पर है जबकि देश के सबसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री होने के अलावा एक कट्टरवादी हिन्दू नेता के रूप में योगी आदित्यनाथ में वह सभी योग्यताएं हैं जो जरूरत पड़ने पर उन्हें मोदी के विकल्प के रूप में स्थापित कर सकती हैं और शायद यही वजह है कि भाजपा की राजनीति पर हावी एक बड़ा तबका यह नहीं चाहता कि योगी आदित्यनाथ को ज्यादा तेज चलने या फिर अपने दम पर लोकप्रियता के शिखर छूने का कोई मौका दिया जाय। अगर भाजपा की अंदरूनी राजनीति पर गौर करें तो हम पाते हैं कि वर्तमान से महज पांच साल पहले नरेन्द्र मोदी भाजपा शासित एक छोटे से राज्य गुजरात के मुख्यमंत्री थे और अटल बिहार बाजपेयी के राजनीति के मैदान से हट जाने के बाद भाजपा के राजनैतिक शीर्ष पर न सिर्फ लालकृष्ण आडवाणी की तूती बोलती थी बल्कि उनके बाद मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, वेकैंया नायडू समेत दूसरे और तीसरे दर्जें के नेताओं की एक लम्बी फेहिस्त थी। तत्कालीन राजनैतिक परिपेक्ष्य में यह माना जाता था कि अगर किन्हीं कारणों से आडवाणी सत्ता के शीर्ष पदों को हासिल करने में नाकामयाब रहे तो इन दूसरी या तीसरी श्रेणी के नेताओं को क्रमशः रूप से आगे आने का मौका मिलेगा और संघ के दिशा-निर्देशों के आधार पर चलने वाली भाजपा की राजनीति में किसी भी कीमत पर जूतमपैजार या फिर एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ नजर नहीं आयेगी लेकिन पिछले लोकसभा चुनावों से पूर्व हालात बड़ी तेजी से बदले और मीडिया के एक हिस्से ने पूरे नियोजित अंदाज में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार व कट्टर हिन्दूवादी चेहरे के रूप में प्रस्तुत किया। इसे वक्त की जरूरत मानें या फिर एक नियोजित साजिश लेकिन यह सच है कि 2014 के लोकसभा चुनावों का माहौल गरम होने से पहले जिस नरेन्द्र मोदी का राष्ट्रीय राजनीति में कोई जिक्र ही नहीं था वह 2014 के लोकसभा चुनावों में न सिर्फ भाजपा का चेहरा बन बैठे बल्कि इन चुनावों में प्रचंड बहुमत से जीत हासिल करके भाजपा ने मोदी के नेतृत्व में केन्द्र में सरकार भी बनायी और इसके बाद मोदी के आगे की राह निष्कंटक करने का खेल शुरू हुआ जिसके चलते आडवाणी व मुरली मनोहर जोशी जैसे तमाम वरीष्ठ नेता न सिर्फ सक्रिय राजनीति से धकिया दिए गए बल्कि सुषमा स्वराज व राजनाथ सिंह समेत अन्य तमाम नेताओं को अपनी हदों में रहते हुए काम करने या फिर सत्ता की राजनीति से दूर हटने की सलाह दे दी गयी। यह अकारण नहीं लगता कि चुनाव दर चुनाव अनेक राज्यों में जीत का परचम लहराने वाली भाजपा एकाएक ही राजस्थान व मध्यप्रदेश का उपचुनाव हार जाती है और फिर उसके बाद उ.प्र. व बिहार में भी उपचुनाव के दौरान भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ता है। अगर राजनीति के झंझावतों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि भाजपा की हार वाले उपचुनावों में मोदी व अमित शाह की जोड़ी न सिर्फ निष्क्रिय बनी रही बल्कि इस हार को अंगीकार कर भाजपा के इन दोनों ही शीर्ष नेताओं ने एक तीर से कई शिकार करने में सफलता भी हासिल की। उपचुनाव में हुई इस हार के जरिये भाजपा का शीर्ष नेतृत्व न सिर्फ ईवीएम मशीनों पर उठ रहे सवालिया निशानों का रूख मोड़ने में कामयाब रहा बल्कि अपनी इस हार के जरिये मोदी व अमित शाह की जोड़ी ने मौका-बमौका खुद को आंखें दिखाने वाले मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चैहान व राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को भी ठिकाने लगाने का इंतजाम किया और अब प्रधानमंत्री के पद की दावेदारी की ओर बढ़ते योगी आदित्यनाथ इस खतरनाक जोड़ी के निशाने पर हैं। अगर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों पर एक नजर डालें तो हम पाते हैं कि अपवादस्वरूप दो-चार नाम छोड़कर लगभग सभी राज्यों के मुख्यमंत्री अमित शाह व मोदी की जोड़ी के आगे नतमस्तक हैं और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि अपनी पूरी रौ में काम कर रही भाजपा की केन्द्र सरकार व इसका शीर्ष नेतृत्व जब चाहे इन तमाम मुख्यमंत्रियों की कुर्सी हिला सकता है लेकिन उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश व राजस्थान जैसे राज्यों में मजबूरीवश बिठाये गये कुछ नामचीन चेहरे भाजपा के वर्तमान केन्द्रीय नेतृत्व को अपने लिए खतरा मालूम दे रहे हैं और आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा को पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थिति में यह भी माना जा रहा है कि अगर भाजपा के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार अस्तित्व में आती है तो राजग के सहयोगी दलों के लिए मोदी के स्थान पर नीतीश पहली पसंद हो सकते हैं। लिहाजा मोदी व अमित शाह की जोड़ी ने अभी से अपनी तैयारी शुरू कर दी मालूम होती है और ऐसा लगता है कि उपचुनावों में भाजपा की हार के पीछे राजनीति नहीं बल्कि एक व्यापक रणनीति काम कर रही है।