वोट बैंक की राजनीति के चलते सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने की नई कोशिशों को दिया जा रहा है अंजाम सहारनपुर की जातीय हिंसा के बाद एकाएक ही चर्चाओं में आये भीम सेना व महाराणा प्रताप सेना जैसे तमाम नाम यह इशारा कर रहे है कि पिछले दिनों जो कुछ भी हुआ वह भावावेश या फिर अचानक सामने आये घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया मात्र नहीं था बल्कि इस सबके पीछे एक सुनियोजित साजिश व अपराध को अंजाम दिये जाने से पूर्व की गयी तैयारियाँ स्पष्ट झलक रही थी। दरअसल में पिछले कुछ चुनावों के दौरान भाजपा को मिली अप्रत्याशित जीत के बाद से ही गैर भाजपाई राजनैतिक दलों व क्षेत्रीय आधार पर जातिगत् समीकरणों को ध्यान में रखते हुऐ चुनाव लड़ने वाले स्थानीय नेताओं के बीच हड़बड़ाहट का माहौल है और यह माना जा रहा है कि देश की आजादी के बाद पहली बार तमाम हिन्दूवादी ताकतों व जाति-वर्ण व्यवस्था के कारण छितराये हुऐ हिन्दू वोट-बैंक को एकजुट करने में सफल रही भाजपा अगर संघ व मोदी के नेतृत्व में ऐसे ही आगे बढ़ती रही तो राजनीति में विपक्ष का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। हालातों के मद्देनजर सत्ता पर कब्जेदारी के लिऐ लगातार मुस्लिम तुष्टीकरण व पाकिस्तान परस्ती की भाषा बोलने वाले नेताओं व तथाकथित रूप से धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक दलों के लिऐ यह जरूरी हो जाता है कि एकजुट होते दिख रहे हिन्दू समाज के बीच राजनैतिक वैमनस्य का माहौल पैदा करें। नतीजतन कमजोर होते दिख रहे जातिगत् बंधनों को एक बार फिर व्यक्तिगत् विरोध व सामाजिक असमानता का नाम देकर समाज के निचले तबके को भड़काने व राजनैतिक रूप से संगठित करने की कोशिशें तेज हो गयी है और इन कोशिशों को अंजाम तक पहुंचाने के लिऐ अपराधिक घटनाक्रमों लूटपाट व दंगो का सहारा लिया जा रहा है। अगर राजनैतिक नजरिये से गौर करें तो वर्तमान से ठीक तीन वर्ष पूर्व सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे नरेन्द्र मोदी व भाजपा की इन पिछले तीन वर्षो के कार्यकाल के दौरान ऐसी कोई उपलब्धि नही है कि सरकार को राजनैतिक मोर्चे पर घेरा जाना कठिन हो लेकिन जाति, भाषा, क्षेत्रीयता व मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले तमाम क्षेत्रीय दलों की भी अपने कार्यकाल के दौरान ऐसी कोई बड़ी उपलब्धि नही है जिसे सामने रखकर वह मोदी सरकार का मुकाबला कर सके और किसी जमाने में देश के लगभग सभी धर्मो, जातियों व विचारधाराओं का समान रूप से प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस वर्तमान में नेतृत्व विहीन व दिशाहीन होकर इस स्थिति में जा पहुंची है कि हाल-फिलहाल उससे यह उम्मीद करना ही बेकार है कि वह केन्द्र की भाजपा सरकार अथवा विभिन्न राज्यों में मजबूत होती दिख रही भाजपा को किसी भी प्रकार की चुनौती भी दे सकती है। हालातों के मद्देनजर अपना अस्तित्व बचाने के लिऐ जूझ रहे ेइन तमाम क्षेत्रीय राजनैतिक दलों में से कुछ ने अपनी अतिमहत्वाकांक्षाओं व राजनैतिक मजबूरियों के चलते अपने सिकुड़ते वोट-बैंक को बचाये रखने के लिऐ यह नयी चाल चली है और इस बार हिन्दुओं के एकजुट हो रहे वोट-बैंक में सेंध लगाने के लिऐ उन्होंने दलित मतदाताओं को अपना हथियार बनाया है। अब अगर देश में दलितों की स्थिति जानने के लिऐ इतिहास पर गौर करें तो यह स्पष्ट दिखाई देता है कि चार वर्णो में विभक्त हिन्दू धर्म के अनुसार दलित इसमें सबसे निचले पायदान पर है लेकिन देश मेें सामान्यतः पाये जाने वाले अन्य धर्मावलम्बियों जैसे मुसलिम, ईसाई तथा कुछ समय पहले तक हिन्दू धर्म का ही हिस्सा माने जाने वाले बौद्ध, सिख या जैन धर्म में दलित वर्ण का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। इन हालातों में संवैधानिक व्यवस्थाओं के तहत दलितों को दी जा रही आरक्षण व्यवस्था में यह स्पष्ट प्रावधान होना चाहिऐ कि हिन्दू धर्म को छोड़कर मुस्लिम या कोई भी अन्य धर्म अपनाने वाले दलित को स्वतः ही आरक्षण के दायरें से बाहर मान लिया जायेगा लेकिन वोट बैंक को सर्वोपरि मानकर चलने वाली भारतीय राजनीति इस तरह के तमाम गंभीर मुद्दों पर हमेशा खामोश रहती है और कुछ कुटिल विचारधारा वाले नेताओं व क्षेत्रीय या जातीय समीकरणों के आधार पर राजनीति करने वाले राजनैतिक दलों को स्थानीय स्तर पर माहौल खराब कर जातिगत् सौहार्द बिगाड़ने का मौका मिल जाता है । इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि देश की आजादी से पहले हमारे समाज पर अंग्रेजों के अलावा मुगलों व पठानों का साम्राज्य रहा है और इससे पूर्व सारा भारतवर्ष छोटे-छोटे राजाओं व राजघरानों के भी आधीन रहा है जिन्होंने समय-समय पर मुगलों, अंग्रेजांे व अन्य आक्रमणकारियों के साथ युद्ध कर अपना राजपाठ बचाने के लिऐ लंबा संघर्ष किया है। शासकों की सोच व राजकाज के तौर-तरीको में आये इस बदलाव ने हमारे देश के राजनैतिक व सामाजिक समीकरणों को तेजी से बदला है और बीच-बीच में ऐसी तमाम जातियाँ व विचारधाराऐं समाज में जन्म लेती रही है जिनका पुरातन काल अर्थात् तथाकथित मनुवादी वर्णव्यवस्था में कोई जिक्र ही नही था लेकिन देश की आजादी के वक्त सत्ता संभालने वाले तमाम राजनीतिज्ञों व राजनैतिक विचारधाराओं ने तत्कालीन भारत की तमाम दलित व पिछड़ी जातियों का जीवन स्तर उपर उठाने के लिऐ संवेधानिक व्यवस्थाओं के तहत व आपसी सहमति से दलितों व पिछड़ों को कुछ विशेष सुविधाऐं देने का प्रावधान किया था और इस तथ्य से भी इनकार नही किया जा सकता कि सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में किये गये इस तरह के तमाम प्रावधानों के कारण सामाजिक रूप से पिछड़ी व दलित जातियों का भले ही सर्वार्गींण विकास न हुआ हो किन्तु इन तमाम जातियों का नेतृत्व करने वाले नेताओं व सत्ता के सोपानो में घुसपैठ रखने वाले तमाम मध्यस्थों ने इस दौर में अपना खूब विकास किया है। वर्तमान में हालात इतने खराब नही है कि दलितों व पिछड़ों को सामाजिक रूप से तिरस्कार, अपमान या अस्पर्शता का सामना करना पड़ता हो और किसी भी धार्मिक आयोजन अथवा तीर्थ स्थल में उनका प्रवेश प्रतिबन्धित किया गया हो लेकिन अगर आर्थिक दृष्टि से देखे तो दलित एवं पिछड़े समुदाय के एक बड़े हिस्से की हालत वाकई चिन्ताजनक है और अफसोसजनक पहलू यह है कि तथाकथित रूप से इन समुदायों का नेतृत्व करने का दावा करने वाले इस समाज के प्रतिनिधि इनकी इस अवस्था को लेकर चिन्तनशील नही है बल्कि शासन व सत्ता पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिऐ नेताओं का यह तबका इन्हें संगठित करने के नाम पर इनके बीच विद्रोह व घृणा के बीच बो रहा है। इस तरह के प्रयासों की देश के समस्त राजनैतिक दलों व बुद्धिजीवियों द्वारा निन्दा की जानी चाहिऐं और समाज को विभाजित करने के लिऐ हिंसक कार्यवाहियों को अंजाम देने वाले कुत्सित मानसिकता वाले नेताओं अथवा तथाकथित सेनाओं के तमाम पदाधिकारियों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्यवाही कर इन्हें प्रतिबन्धित भी किया जाना चाहिऐ।