कितना दिलचस्प और भावोत्तेजक होगा गुजरात विधानसभा का वर्तमान चुनाव
गुजरात चुनावों को लेकर अटकलों का दौर शुरू हो गया है और यह कहा जा सकता है कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह पहला चुनाव है जहां न सिर्फ भाजपा घिरी हुई दिखाई दे रही है बल्कि इस चुनाव का सीधा असर मोदी व अमित शाह की जोड़ी पर पड़ता दिखाई दे रहा है। हालांकि यह पहली बार नहीं है जब देश के प्रधानमंत्री व सत्तारूढ़ पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पूरी शिद्दत के साथ चुनाव मैदान में जा डटे हों और हर छोटी-बड़ी घोषणा या सरकारी फैसले में चुनावी समीकरणों का ध्यान रखा जा रहा हो लेकिन इस बार मामला प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गृह क्षेत्र का है और यह कहने में हर्ज नहीं है कि उन्होंने न सिर्फ गुजरात से अपनी राजनैतिक पारी शुरू की है बल्कि एक लंबे समय तक वहां की सत्ता पर काबिज रहकर पूरे देश को एक संदेश देने का भी काम किया है। ऐसी स्थिति में उनके प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचने के बाद अगर भाजपा गुजरात में विधानसभा चुनाव हारती है तो यह न सिर्फ मोदी व अमित शाह की जोड़ी के सुशासन के नारे पर प्रश्नचिन्ह की तरह होगा बल्कि भाजपा के भीतर भी मोदी विरोध के सुरों को हवा मिलने लगेगी। ऐसा नहीं है कि केन्द्र में मोदी सरकार के काबिज होने के बाद भाजपा को किसी भी राज्य में चुनावी हार का सामना नहीं करना पड़ा है लेकिन अगर स्थितियों की गंभीरता पर गौर करें तो हम पाते हैं कि लोकसभा पर भाजपा के काबिज होने के बाद यह पहला मौका है जब भाजपा और कांग्रेस एक दूसरे के खिलाफ कड़े चुनावी मुकाबले में दिख रहे हैं। यह ठीक है कि इससे पहले कांग्रेस बिहार में चुनाव जीतने वाले गठबंधन का हिस्सा रही है और पंजाब में भी कांग्रेस का पूर्ण बहुमत वाली सरकार है लेकिन यहां यह तथ्य काबिलेगौर है कि बिहार में भाजपा का मुख्य मुकाबला जनता दल के विभिन्न घटकों से था तो पंजाब में बीजेपी की भूमिका सिर्फ और सिर्फ सहयोगी राजनैतिक दल की थी क्योंकि यहां अकाली दल एवं कांग्रेस ही मुख्य मुकाबले में दिख रहे थे। यह माना कि इससे पूर्व उत्तराखंड एवं हिमाचल जैसे तमाम राज्यों में भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से हो चुका है और तमाम राज्यों में जीत के साथ भाजपा ने खुद को साबित भी किया है लेकिन अगर तथ्यों की गंभीरता पर गौर करें तो हम पाते हैं उत्तराखंड समेत कई अन्य कांग्रेस शासित राज्यों में भाजपा ने बड़ी ही चालाकी के साथ संभावित रूप से जीत के नजदीक दिख रहे कई कांग्रेसी चेहरों को अपने साथ शामिल कर सत्तापक्ष पर एक मनोवैज्ञानिक जीत हासिल करने में सफलता हासिल कर ली थी जबकि हिमाचल में हुए हालिया चुनावों के दौरान एक बार भाजपा और एक बार कांग्रेस जैसे मिथकों का जोर-शोर प्रचार होने का कारण भाजपा चुनाव से पूर्व ही मजबूत दिखाई दे रही थी किंतु गुजरात में हालात सबसे अलग हैं क्योंकि यहां कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। ध्यान देने योग्य विषय है कि दो दशकों से भी अधिक समय से गुजरात की सत्ता पर काबिज भाजपा के नेताओं की अपनी भी कई महत्वाकांक्षाएं है लेकिन नरेन्द्र मोदी व अमित शाह के तेजी से बड़े हुए राजनैतिक कद के आगे इन्हें परवान चढ़ने में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है और सारे देश ही नहीं बल्कि वैश्विक पटल पर विकास के गुजरात माॅडल का डंका पीटने वाले नरेन्द्र मोदी इन पिछले चार सालों में वहां एक भी ऐसा नेता नहीं तलाश पाए हैं जो कल के दिन उनका उत्तराधिकारी साबित हो। हालातों के मद्देनजर जनता के मन में कई सवाल हैं और मोदी को गुजरात अस्मिता का प्रतीक मानने के बावजूद व्यवसायिक मानसिकता वाला गुजराती समाज मोदी के हालिया लटकों-झटकों से खुश नहीं है। लिहाजा कांग्रेस को खुद को मजबूत मानना स्वाभाविक है और इस स्वाभाविक प्रक्रिया में राहुल के बदले हुए रूप ने जान डाल दी है। हम यह तो नहीं कह सकते कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में अपनी ताजपोशी के बाद वह अपने संगठन व नीतियों में क्या बदलाव लाएंगे और आगामी लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए उनकी रणनीति क्या होगी लेकिन इधर गुजरात विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के रणनीति में बेहतर बदलाव दिख रहा है और टिकट बंटवारे के लिए होने वाले सियासी दांवपेच व स्थानीय राजनैतिक या गैर राजनैतिक संगठनों के साथ तालमेल बनाकर चलने के राहुल के जज्बे को देखकर यह कहा जा सकता है कि वह राजनीति की बारीकियां समझने की कोशिश कर रहे हैं। इन हालातों में चुनावों के नतीजे क्या होंगे, यह तो पता नहीं लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि इन चुनावों के दौरान राहुल की बेहतर मजबूती का फायदा कांग्रेस को जरूर मिलेगा। इस सबके अलावा गुजरात के इस विधानसभा चुनाव में हार्दिक पटेल के सघन चर्चाओं में रहने की संभावना है और दिल्ली की सत्ता पर काबिज अरविंद केजरीवाल भी इस चुनाव में अपना दांव आजमाने की कोशिश में हैं। इन दोनों ही युवा चेहरों के अलावा वामपंथी छात्रनेता कन्हैया भी इस गुजरात चुनावों में अपनी अहम् भूमिका में रहेगा, ऐसा हमारा मानना है और अगर ऐसा होता है तो यह तय है कि यह आजाद भारत का एक ऐसा चुनाव होगा जहां तमाम युवा चेहरे अपनी-अपनी विचारधारा का नेतृत्व करते हुए देश की शीर्ष सत्ता पर काबिज एक अनुभवी किंतु अन्य प्रधानमंत्रियों के मुकाबले युवा नेतृत्व को चेतावनी देने वाले अंदाज में चुनावी दंगल के लिए आमंत्रित करेंगे और एक कड़ा मुकाबला सामने दिखेगा। गुजरात विधानसभा का चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें न सिर्फ दो राष्ट्रीय दल आमने-सामने हैं बल्कि पाटीदारों को आरक्षण दिए जाने के मुद्दे पर कांग्रेस ने अपनी सहमति देते हुए हार्दिक पटेल समेत कई अन्य युवा पाटीदार नेताओं को चुनाव मैदान में उतारने का मन बनाया है और आरक्षण के इस मुद्दे पर भाजपा का रूख पहले से ही स्पष्ट है लेकिन यह देखना बहुत दिलचस्प होगा कि एक बड़े व सक्षम समुदाय को आरक्षण के दायरे में लिए जाने के पक्ष या विपक्ष में जनमत की क्या अपेक्षा है और गुजरात एवं सारे देश की जनता इसे किस तरह से लेती है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि छात्रों और युवाओं के बीच अपना जनाधार बढ़ाने के लिए भाजपा ने आरक्षण को हमेशा ही अपना हथियार बनाया है और भाजपा के नेता व नीति-निर्धारक गुपचुप रूप से आरक्षण विरोधी आंदोलनों को हवा देते रहे हैं लेकिन यह पहला मौका है जब यही आरक्षण विरोधी ताकतें एकजुट होकर न सिर्फ खुद को आरक्षण के दायरे में रखे जाने की मांग कर रही हैं बल्कि अपनी इन मांगों के समर्थन में किए जाने वाले उग्र आंदोलनों के जरिये भाजपा शासित राज्यों की सरकार के लिए कई मुश्किलें खड़ी की जा चुकी हैं। यह देखना भी दिलचस्प होगा कि एक राज्य में भाजपा को पछाड़ने की जुगत में लगी कांग्रेस चुनावी मंचों से आरक्षण को लेकर क्या रूख अपनाती है और पाटीदार समुदाय को आरक्षण के दायरे में लाने के संदर्भ में खुले मंच से क्या वादे किए जाते हैं लेकिन इस सबके बावजूद अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि गुजरात में कांग्रेस के हाथ हार्दिक पटेल या फिर पाटीदार समुदाय के रूप में तुरूप का इक्का लग ही गया है और इस युवा नेता के सहारे कांग्रेस बड़ी ही आसानी से अगला चुनाव जीत जाएगी। यह माना कि आंदोलन के दौरान उभरी सहानुभूति एवं भीड़ ने हार्दिक पटेल को एक बड़ा नेता बना दिया है और उसकी जीवटता व उस पर लगे मुकदमों के बावजूद अपने लक्ष्य के प्रति समर्पण की भावना ने हार्दिक को यह हिम्मत दी है कि वह एक राष्ट्रीय राजनैतिक दल के सर्वेसर्वा के सामने बैठकर अपनी मांगों व अधिकारों के संदर्भ में न सिर्फ अपना पक्ष रख रहा है बल्कि अपनी शर्तों पर समझौता कर चुनावी तालमेल की बात भी कर रहा है लेकिन सवाल यह है कि लगभग पच्चीस सालों से गुजरात की सत्ता पर काबिज भाजपा और देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इतनी आसानी से अपनी हार मान लेंगे या फिर आर्थिक रूप से समृद्ध गुजरात में स्पष्ट दिखने वाला साम्प्रदायिक धु्रवीकरण और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गहरी घुसपैठ इतनी आसानी से अपना दम तोड़ देगी। खैर जनता का निर्णय क्या होगा यह तो वक्त ही बताएगा और यह भी वक्त के साथ ही तय होगा कि गुजरात विधानसभा चुनावों का भारतीय राजनीति एवं केन्द्र सरकार द्वारा लिए जाने वाले फैसलों पर क्या असर पड़ेगा लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि भारत के लोकतंत्र में वह कमाल की ताकत है जो देश के प्रधानमंत्री तक को आम आदमी की औकात का अहसास करा देती है और गुजरात विधानसभा चुनावों के परिपेक्ष्य में हार्दिक पटेल को पाटीदार आंदोलन से पूर्व का आम आदमी माना जा सकता है।