रिलीज पर संशय के बावजूद सफलता तय | Jokhim Samachar Network

Thursday, March 28, 2024

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रिलीज पर संशय के बावजूद सफलता तय

बाजारवादी संस्कृति के इस दौर में विज्ञापन का जरिया बना विवाद
राजपूताना आन-बान और शान को विषय वस्तु बनाकर लायी गयी हिन्दी भाषा की फिल्म रानी पद्मावती जनता के सामने आने से पूर्व ही जन चर्चाओं में है और इसका इस तरह चर्चाओं में रहना खुद-ब-खुद इसकी लोकप्रियता की कहानी कह रहा है। यह अलग बात है कि इस चलचित्र को देखे बिना ही इसके कुछ हिस्सों पर संदेह व्यक्त करने के साथ ही साथ इसके रिलीज होने का विरोध कर रहा राजपूत बिरादरी का एक हिस्सा यह जान गया है कि फिल्म के निर्माता ने इतिहास व ऐतिहासिक विरासत से छेड़छाड़ का दुस्साहस किया है लेकिन हकीकत में देखा जाय तो देश व दुनिया के एक हिस्से में पद््मावती को लेकर उत्कंठा है और विरोध की इन खबरों ने इस उत्कंठा को ज्यादा बढ़ा दिया है। वैसे भी विरोध प्रचार-प्रसार का सबसे आसान और आजमाया हुआ नुस्खा है तथा बाजार के माहौल को देखकर इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि चतुर बनिये की तरह व्यवहार करने वाले बाजार के कुशल खिलाड़ी इस नुस्खे का प्रयोग अधिकांशतः करते आए हैं। विरोध, चाईनीज उत्पादों का हो या फिर वेलेनटाइन डे जैसे अवसरों का, अन्ततोगत्वा इस विरोध का हश्र क्या होता है इसे इन दिनों पटाखों के धुएं में रची-बसी दिल्ली से ज्यादा बेहतर कोई नहीं समझ सकता लेकिन इस सबके बावजूद यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि अगर विरोध के इन सुरों में थोड़ी राजनीति भी मिल जाए तो माहौल में एक अलग रंग आ जाता है। वर्तमान में ठीक यही संजय लीला भंसाली की महत्वाकांक्षी फिल्म रानी पद्मावती के साथ हो रहा है और अपनी शूटिंग के शुरूआती दौर से ही विवादों में रहने वाली यह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाली फिल्म अपने रिलीज होने से पहले ही विरोध व प्रदर्शन से रूबरू है। मजे की बात यह है कि इसे अभी तक देखा सेंसर बोर्ड ने भी नहीं है और न ही इसके कतिपय सीन अथवा दृष्टांत पर कोई वैधानिक आपत्ति लगाए जाने की खबर मीडिया में आयी है लेकिन फिर भी कुछ लोग और संगठन इस मौके का फायदा उठाने में जुट गए हैं या फिर इसके निर्माता व निर्माण से जुड़े कुछ लोग इस तरह की चर्चाओं को जिंदा रखना चाहते हैं और यह पहला अवसर नहीं है बल्कि अगर रूपहले पर्दे का इतिहास उठाकर देखें तो हम पाते हैं कि इस तरह की तमाम चर्चाएं फिल्म की लोकप्रियता व व्यवसायिक दृष्टि से सफलता की कहानी खुद-ब-खुद कहती है। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि सोलहवीं शताब्दी में जब मुगल भारत पर हमलावर हुए तो उस समय धार्मिक असहिष्णुता ने मनुष्य की विकास यात्रा में एक अवरोध पैदा किया और इस अवरोध के बीच कई मुस्लिम संतों व कवियों ने प्रचलित प्रेम गाथाओं व तत्कालीन राजा-महाराजाओं को आधार बनाकर अपनी रचनाएं बनायी। अमर महाकाव्य पद्मावत उसी दौर के सुप्रसिद्ध सूफी संत एवं कवि मलिक मोहम्मद जायसी की एक रचना है और अपनी इस रचना के माध्यम से जायसी ने राजा रतनसेन व रानी पद्मावती की अमरप्रेम कहानी के बीच अलाउद्दीन खिलजी के अतिक्रमण को शब्दों के इस्तेमाल से बखूबी संवारा है। अगर कहानी की गहराईयों में जायें तो इसमें हिन्दू जीवन एवं संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम है, शिव-पार्वती, समुद्र और हनुमान जैसे देवी-देवताओं का तार्किक वर्णन है। कुल मिलाकर देखा जाय तो इस पूरी प्रेमकथा में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे राजपूताना आन-बान और शान पर एक हमला या फिर धार्मिक कठमुल्लेपन की एक निशानी माना जाय लेकिन इतना सब कुछ जानने और समझने के बावजूद भी कुछ लोग जानबूझकर विवाद की स्थिति खड़ी करना चाहते हैं तथा चलचित्र के जरिए इतिहास को जीवित रखने की एक परम्परा को दबाव व दादागिरी की राजनीति के चलते रोकने का प्रयास किया जा रहा है। एक फिल्म का प्रदर्शन रोकने के लिए किए जा रहे धरने-प्रदर्शन या फिर निर्माता-निर्देशक व अन्य कलाकारों को धमकियां देकर किस सम्मान की रक्षा होगी और इस तरह के विवाद व असहिष्णुता हमारे सामाजिक माहौल को खराब करने के साथ ही साथ किस राजनैतिक दल व विचारधारा को लाभान्वित करेंगे यह तो पता नहीं लेकिन हालात यह इशारा कर रहे हैं कि अगर माहौल में यही तल्खी कायम रही तो नयी पीढ़ी के लोग रसखान व अब्दुल रहीम खानखाना वाले अंदाज में हमारे धर्मग्रंथों, देवी-देवताओं व पुराने किस्से कहानियों को देखना बंद कर देंगे और अमीर खुसरो से प्रेरणा लेकर हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायों को एक साथ लाने की परम्परा पर लेखन, गायन, वादन व प्रेमाख्यान लिखने का कार्य भी बंद हो जाएगा। भारत का इतिहास गवाह है कि यहां के अनेक मुस्लिम सम्प्रदाय न सिर्फ हिन्दू तीज-त्यौहारों के अवसर पर आनंद व उल्लास का अनुभव करते हैं बल्कि ऐसे अनेक उदाहरण देश के लगभग हर कोने में पाए जाते हैं जब रामलीला व अन्य धार्मिक अवसरों पर मुस्लिम सम्प्रदाय से जुड़े लोग अपने आसपास रहने वाली अन्य आबादी के साथ मिल-जुलकर मंचीय अभिनय व अन्य आयोजनों में सृजनात्मक सहयोग करते हैं लेकिन दिन-ब-दिन खराब होते जा रहे हालात और अपनी राजनैतिक असफलताओं को छिपाने के लिए नेताओं द्वारा रचे जाने वाले प्रपंच यह इशारा कर रहे हैं कि कुछ लोग अपनी राजनैतिक कब्जेदारी बनाए रखने के लिए सामाजिकता व माहौल को खराब करना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें कानून हाथ में लेने से भी कोई गुरेज नहीं है। राजनैतिक नफे नुकसान को ध्यान में रखते हुए जारी किए जाने वाले बयान और हर विषय-वस्तु को राजनैतिक नजरिए से देखने की कला से बुद्धिजीवियों व तर्कशास्त्रियों में आक्रोश तो है लेकिन भीड़-तंत्र के खिलाफ बोलने और मोर्चा खोलने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पा रहा। लिहाजा बलवाई व दंगाई कानून व्यवस्था पर हावी हैं और एक समानान्तर व्यवस्था चल पड़ी है जिसमें सरकार द्वारा निर्धारित एजेंसियों अथवा बोर्ड के अनुमति लिए जाने के साथ ही साथ कई अन्य तरह की व्यवस्थाओं से सामंजस्य बनाकर चलने की जरूरत महसूस की जा रही है। यह माना कि जनपक्ष को अपनी बात कहने, रखने या फिर विपक्ष में खड़े होने का पूरा अधिकार है और ऐतिहासिक विरासतों से छेड़छाड़ को लेकर जनता की संवेदनशीलता भी वाजिब है लेकिन कुछ लोग जोर जबरदस्ती अपनी बात मनवाना चाहते हैं या फिर यूं कहें कि सत्ता पर काबिज होने के बाद कुछ लोग इतिहास को अपने नजरिए से देखना पसंद करते हैं और उनकी जिद है कि दुनिया उनके इशारे पर नाचे लेकिन लोकतंत्र में यह सब संभव नहीं है। इसलिए कुछ छोटे-बड़े समझौतों व सेंसर बोर्ड की कुछ आपत्तियों के बाद पद्मावती का रिलीज होना भी तय है और इस पूरे विवाद को आर्थिक फायदे में बदलने का हुनर फिल्म के निर्माताओं व इस किस्म के धंधों में पैसा लगाने वालों को बखूबी आता है। लिहाजा यह कहना या मानना कि कोई भी सरकार या सेंसर बोर्ड इस फिल्म को प्रदर्शित होने से रोक सकती है, एक अहमकाना ख्याल है और रहा सवाल न्यायालय का तो वह इस मुद्दे से पहले ही अपना पल्ला झाड़ चुका है। अब देखना यह है कि अपनी फिल्म रिलीज होने से काफी पहले इसे समाचारों व चर्चा की विषय वस्तु बना चुके संजय लीला भंसाली इस पूरे विवाद का किस हद तक आर्थिक लाभ उठा सकते हैं।

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