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Friday, April 26, 2024

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फिर निशाने पर ईवीएम

गुजरात चुनावों में भागीदारी कर रहे विपक्ष ने एक बार फिर उठाए ईवीएम पर सवाल
पिछले अन्य कई चुनावों की तर्ज पर विपक्ष द्वारा एक बार फिर ईवीएम मशीनों को लेकर संदिग्धता जाहिर की गयी है और सीधे मतदान केन्द्रों से आ रही खबरों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ईवीएम मशीनें सीधे ब्लूटूथ के जरिए मोबाइल से जोड़ी जा सकती हैं या फिर इन्हें एक विशेष तकनीकी से एक पक्ष में झुकाव के लिए बाध्य किया जा सकता है लेकिन चुनाव आयोग इस तरह की किसी भी सम्भावना से इंकार करते हुए इन मशीनों को सुरक्षित व निष्पक्ष बता रहा है और सरकार चुनावी मोर्चाें से आ रही इस तरह की खबरों की ओर तवज्जो ही नहीं दे रही। हालांकि सत्ताधारी पक्ष भाजपा द्वारा भी पहले इस तरह की आशंकाएं जाहिर की जा चुकी हैं और अमेरिका समेत तमाम अन्य देशों में निष्पक्ष चुनावों को ध्यान में रखते हुए ईवीएम पर लगाया गया प्रतिबंध यह साबित करता है कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ी जरूर है लेकिन चुनाव आयोग इन तर्कों को सत्य नहीं मानता और न ही उसकी ईवीएम मशीनों के मतदान हेतु उपयोग पर रोक लगाने की कोई संभावना ही दिखती है। लिहाजा यह तय है कि आगे आने वाले हर चुनाव में अपनी हार के लिए विपक्ष इन्ही ईवीएम मशीनों को जिम्मेदार ठहरायेगा और सत्तापक्ष व विपक्ष की नूरांकुश्ती यूं ही चलती रहेगी या फिर यह भी हो सकता है कि लगातार बढ़ते दिख रहे भाजपा के हिन्दुत्ववादी परचम को देखते हुए वामपंथी समेत तमाम विपक्षी दल चुनाव बहिष्कार सा कोई राग अलापें और असलियत का खुलासा होने तक हथियारों के दम पर मतदाताओं को मतदान केन्द्रों तक जाने से रोकने का प्रयास भी किया जाय लेकिन इस सारी जद्दोजहद का कोई फायदा नहीं होने वाला क्योंकि पिछले कई दशकों से जनता के बीच काम कर रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश के मतदाताओं के एक बड़े हिस्से को अपने पक्ष में करने के लिए बहुत ही सघन प्रयास किया है और इन प्रयासों के तहत संघ के कार्यकर्ताओं ने जनसामान्य के एक विशिष्ट हिस्से अर्थात् हिन्दू मतदाता की आवाज को गंभीरता से सुना व समझा है। यह माना कि आज भी अधिसंख्य हिन्दू मतदाता धर्मनिरपेक्ष हैं और उसे धार्मिक मुद्दों या नारों के आधार पर लामबंद नहीं किया जा सकता लेकिन अगर सामान्य जनजीवन पर गौर करें तो हम पाते हैं कि तमाम हिन्दूवादियों व अन्य राजनैतिक दलों की इस धर्मनिरपेक्षता ने कई समस्याओं को जन्म दिया है जिसके कारण नई पीढ़ी का युवा मतदाता अपने रोजमर्रा के जीवन में बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी व अन्य तमाम तरह की सरकारी योजनाओं के बंद होने अथवा छूट के समाप्त होने से डरने या घबराने की जगह इन तमाम समस्याओं से टकराकर इनका समाधान तो चाहता है लेकिन जैसे ही चर्चा का विषय बदलकर इस्लामिक तुष्टीकरण या अल्पसंख्यकों के नाम पर मुस्लिम वर्ग को विशेष सहूलियतें देने की ओर रूख करता है तो यह युवा वर्ग अर्थात् देश के कुल मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा खुद-ब-खुद एक कार्यकर्ता वाले अंदाज में भाजपा के साथ जाकर खड़ा हो जाता है। नतीजतन चुनावों से पूर्व सत्तापक्ष या भाजपा के खिलाफ दिखने वाले तमाम तरह के आक्रोशों के बावजूद मतदान के नतीजे भाजपा के पक्ष में झुके दिखाई देते हैं और ऐसा लगता है कि मानो किसी ने जोर-जबरदस्ती या फिर तकनीकी तरीके का इस्तेमाल कर ईवीएम पर कब्जा कर लिया हो। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि आपाधापी के वर्तमान दौर में व्यवसायिक हो चुकी राजनीति में भागीदारी करने वाले नेता सिर्फ बातों, भाषणों या नारों के बलबूते बहुत ज्यादा लंबे समय तक अपने समर्थकों को बांधे नहीं रह सकते। इसलिए यह कह पाना अब मुश्किल होता चला जा रहा है कि किसी नेता की चुनावी सभा में उमड़ने वाली भीड़ उसके चुनाव जीतने की गारंटी है या फिर किसी भी सरकार या राजनैतिक दल के खिलाफ रोजाना के अंदाज में सड़कों पर होने वाले धरने या प्रदर्शन उस दल की चुनावी हार की सुनिश्चित करते हैं। लगभग हम सभी जानते हैं कि भ्रष्ट हो चुकी इस राजनीति के दौर में मतदाताओं के एक बड़े हिस्से को अपने नेता या जनप्रतिनिधि से कई तरह की जायज या नाजायज उम्मीदें रहती हैं और नेता भी चुनावी मौके को ध्यान में रखते हुए पूरी तन्मयता के साथ इन ख्वाहिशों को पूरा करने में जुटे दिखाई देते हैं जिसके चलते वर्तमान दौर की लोकतांत्रिक व्यवस्था व राजनीति सिर्फ व सिर्फ साधन सम्पन्न लोगों का खेल बनकर रह गयी हैं और इस खेल में आम आदमी की या फिर मुद्दों अथवा जनसमस्याओं की बात करने व सुनने की फुर्सत किसी को नहीं है। लिहाजा यह कहना गलत है कि तमाम छोटे-छोटे मुद्दों पर राजनैतिक दलों या नेताओं द्वारा प्रायोजित किए जाने वाले तमाम आंदोलन अवश्यम्भावी रूप से चुनावों पर प्रभाव डालते हैं। हां यह जरूर है कि कभी-कभी कुछ संवेदनशील मुद्दे या विषय आम आदमी को हिलाकर रख देते हैं और इस तरह के जनान्दोलनों के बाद स्थानीय अथवा राष्ट्रीय स्तर पर दो-चार-दस नए नेताओं का वोटों की राजनीति में एक अलग क्रांतिकारी अंदाज के साथ प्रदर्पण होता है लेकिन अधिकांश मामलों में यह देखा गया है कि इस प्रकार एकाएक ही आगे आए नेता बहुत ज्यादा लंबे समय तक युवाओं का आदर्श नहीं रहते क्योंकि एक बार राजनीति का हिस्सा बन जाने के बाद यह तमाम नए नेता पुरानों के साथ शामिल होकर अपना चुनाव जीतने या फिर सरकार बनाने व बचाने के चक्कर में जुट जाते हैं। खैर, राजनीति के इस खेल पर ज्यादा लंबी चर्चा कहने की अपेक्षा हम इस तथ्य को आसानी से यह कहकर समझ लेते हैं कि व्यापक जनहित या फिर समस्याओं के विरोध में किए गए आंदोलन आम आदमी को ज्यादा लंबे समय तक प्रभावित नहीं करते क्योंकि वह इन मुद्दों या विषयों से खुद को सीधे जुड़ा हुआ नहीं पाता है जबकि इसके ठीक विपरीत धर्म एक निजता का विषय है, इसलिए इसके संदर्भ में किसी भी तरह की चर्चा करना एक सामान्य व्यक्ति को अपनी निजी सीमा पर हमले की तरह लगती है और वह विषय से सीधे तौर पर जुड़कर अपना पक्ष रखने की कोशिश करने लगता है। नतीजतन अन्य विषय, मुद्दे या फिर चर्चाएं गौण हो जाती हैं और चुनावी धु्रवीकरण का प्रमुख आधार धर्म बन जाता है। वर्तमान में हो ठीक यही रहा है और भाजपा के रणनीतिकारों ने इसे बहुत गंभीरता से समझा है, शायद यही वजह है कि वह मुद्दे को राममंदिर से और ज्यादा निजी बनाने के लिए गोवंश पर हमला, लव जेहाद या अन्य इसी तरह की समस्याएं उठा रहे हैं। हालांकि इस बार गुजरात विधानसभा के चुनावों के दौरान कांग्रेस भी इस ओर मुड़ी है और चुनावी मौकों पर अपने इर्द-गिर्द मुल्ला मौलवियों की भीड़ रखना पसंद करने वाले कांग्रेसियों के बड़े नेता राहुल गांधी अब टीका-चंदन लगाकर मंदिरों में मत्था रगड़ते देखे जा रहे हैं लेकिन इस सबका उन्हें कोई विशेष फायदा होता नहीं दिख रहा क्योंकि कांग्रेस का यह बदला हुआ अंदाज न तो अल्पसंख्यकों की समझ में आ रहा है और न ही बहुसंख्यकों की। लिहाजा यह कहना मुश्किल है कि कांग्रेस इस बार भी गुजरात में कोई चमत्कार कर पाएगी और अगर नतीजे विपक्ष की ओर झुकते नहीं दिखते हैं तो हार का ठीकरा ईवीएम के सर फोड़ना सबसे ज्यादा आसान है क्योंकि कांग्रेस या फिर किसी भी विपक्षी दल के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि महंगाई, नोटबंदी या फिर जीएसटी लागू होने के कारण जनसामान्य के बीच केन्द्र सरकार की कार्यशैली को लेकर कोई विरोध है तो देश की सड़कों पर कोई स्वतःस्फूर्त आंदोलन क्यों नहीं है।

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