जमीनी हकीकतों से रूबरू होने की जगह अपनी हार छुपाने की कोशिश कर रहे है काॅग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल।
उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड के चुनाव नतीजों के बाद तमाम राजनैतिक दल सदमें में है और भाजपा की भारी जीत के लिये ईवीएम मशीनों को जिम्मेदार माना जा रहा है लेकिन चुनाव आयोग ने राजनैतिक दलो के इस आरोंप को सिरे से ही नकार दिया है और ईवीएम मशीनो पर उठ रही सवालियां उंगलिया जनसामान्य के बीच चर्चा का विषय है। अगर जनचर्चाओं पर विश्वास करे तो उ0प्र0 व उत्तराखण्ड के साथ ही पंजाब के चुनाव नतीजें भी चैकाने वाले है और नतींजो में दिख रही यह हेरफेर आम आदमी पार्टी समेत तमाम क्षेत्रीय राजनैतिक दलो के लिये खतरें की घन्टी बतायी जा रही है लेकिन सवाल यह है कि क्या वाकई में चुनावों के दौरान इस्तेमाल की जाने वाली ईवीएम मशींनो में इतने बड़े पैमाने पर हेरफेर सम्भव है कि चुनाव नतीजे ही बदले नजर आये। काॅग्रेस इस मुद्दे पर मुखर विरोध करने की स्थिति में नहीं है क्योंकि ईवीएम मशीनो के शक के दायरे में आते ही उसको पंजाब में मिली जीत पर भी एक स्वाभाविक प्रश्नचिन्ह लग जाता है तथा पाॅच राज्यों के विधानसभा चुनावों में बामुश्किल पंजाब में सरकार बनाने में कामयाब हुई काॅग्रेस के नेता यह कदापि नही चाहेंगे कि संकट की इस घड़ी में उसको मिली एकमात्र सफलता को शक की नजरों से देखा जाय। उपरोक्त के अलावा यह तथ्य भी सर्वविदित है कि देश के तमाम छोटे-बड़े चुनावों में बैलेट पैपर के इस्तेमाल को रोककर इलैक्ट्रानिक प्रणाली के इस्तेमाल का फैसला भी काॅग्रेस के शासनकाल में ही लिया गया था और विभिन्न चुनावों में ईवीएम के इस्तेमाल पर उठे सवालो को काॅग्रेस की सरकारों ने अब तक पुरजोर विरोध के साथ खारिज ही किया है। ऐसे में एक राष्ट्रीय राजनैतिक दल खुद को मिली चन्द राजनैतिक असफलताओं के लिऐ किसी मशीन या सिस्टम को दोषी ठहराता है तो इस सिस्टम के इस्तेमाल पर उसे मिली तमाम जींते भी स्वतः ही शक के दायरे में आती है और मजे की बात यह है कि आॅकड़े भी इन मशीनों के इस्तेमाल पर काॅग्रेस को ज्यादा नुकसान हुआ साबित नही कर रहे है। अगर आॅकड़ो की भाषा में गौर करे तो इन पाॅच राज्यों के चुनाव के दौरान सिर्फ उत्तराखण्ड में ही काॅग्रेस सत्ता पर काबिज थी जबकि चुनाव नतीजों के बाद वह न सिर्फ गोवा व मणिपुर में सबसे बड़ा राजनैतिक दल है बल्कि पंजाब में भी उसकी सरकार है। यह ठीक है कि अपने बड़े नेताओ की निष्क्रियता के चलते गोवा व मणिपुर में सरकार बनाने के मामले में असफल साबित हुई और उत्तराखण्ड में हरीश रावत की जीत की प्रबल सम्भावनाओं के बावजूद उसे सिर्फ ग्यारह सीटो पर ही सफलता हासिल हुई लेकिन अगर आॅकड़ो की भाषा में बात करे तो उत्तराखण्ड में काॅग्रेस को मिले कुल वोट प्रतिशत् में सिर्फ आधा फीसदी की ही गिरावट दर्ज की गयी है जबकि बसपा और यूकेडी समेत अन्य तमाम क्षेत्रीय दलो या निर्दलीय विधायको को पिछले चुनावों के मुकाबले पाॅच से सात फीसदी तक मत कम मिला है और यही मत निर्णायक साबित होकर भाजपा की प्रचण्ड चुनावी जीत का कारण बना है। काॅग्रेस के लोग आॅकड़ो की इस भाषा को अच्छी तरह समझ रहे है और उन्हे ईवीएम या चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर कतई अविश्वास नही है लेकिन मुद्दो के आभाव में वह सरकार को घेरने का कोई मौका नही छोड़ना चाहते। शायद यही वजह है कि वह ईवीएम मशीनों के इस्तेमाल के विरोध में उठ रहे बसपा, सपा या आम आदमी पार्टी समेत तमाम क्षेत्रीय दलो के सुरो को हवा देने की तो कोशिश कर रही है लेकिन ईवीएम मशीनों के स्थान पर बैलेट पैपर के इस्तेमाल को लेकर उसके सुरो से बुलन्दी गायब दिख रही है और वह दिल्ली स्थानीय निकायों के चुनावों समेत अन्य तमाम छोटे-बड़े चुनावों में ईवीएम मशीनो के बहिष्कार का नारा देकर चुनावों से दूरी बनाये रहने में हिंचक रही है। यह एक सर्वविदित सत्य है कि लोकतान्त्रिक भारत में जनपक्ष एक शक्तिशाली हिस्सा है और हिटलरशाही या मनमर्जी के खिलाफ होने वाले हर छोटे-बड़े आन्दोलन में देश की जनता हमेशा ही लड़ने वाले पक्ष अर्थात सच के साथ खड़ी दिखाई देती है। इन हालातों में काॅग्रेस ईवीएम मशीनों के बहिष्कार को लेकर अगर जनता की अदालत में जाने से बच रही है तो यह साफ है कि उसे इन मशीनों की सफलता पर कोई सन्देह नही है या फिर जमीनी कार्यकर्ताओ की कमी से जूझ रही काॅग्रेस यह मान चुकी है कि कोई भी बड़ा आन्दोलन चलाना अब उसके बूते से बाहर है। अब अगर हालियाॅ घटनाक्रम के मद्देनजर मतदान के बाद सामने आयी परिस्थितियों पर गौर करे तो हम पाते है कि उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड के मुसलिम बहुल्य इलाको में भाजपा के प्रत्याशियों की जीत व उनके पक्ष में दिख रहे ठीक ठाक जनमत ने इस आंशका को जन्म दिया कि ईवीएम मशीनों में कुछ गड़बड़ी रही होगी लेकिन इस तथ्य को किसी भी तरह प्रमाणित नही किया जा सकता और न ही भारत का चुनाव आयोग यह इजाजत देता है कि मतदान के बाद आॅकड़ो को इस नीयत से प्रस्तुत किया जाय कि उन्हे धार्मिक वैमनस्य के नजरियें से देखा जा सके। भारतीय राजनीति के परिपेक्ष्य में देश की मुसलिम आबादी को एक संगठित वोट-बैंक के नजरियें से देखा जाता रहा है और हर छोटे-बड़े चुनाव में राजनेता ही नही बल्कि मतदाता व चुनावी समीकरणों को लेकर गली-मोहल्ले में चर्चा करने वाले राजनैतिक विश्लेषक भी यह मानकर चलते है कि देश का मुसलिम मतदाता कट्टर हिन्दूवादी सोच के विरोध में ही मतदान करता है। अगर सही मायने में देखा जाय तो केन्द्र की सत्ता पर काबिज भाजपा व इसका नीति निर्धारक माने जाने वाला राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ का एक बड़ा हिस्सा अब तक इसी सोच एवं रणनीति के तहत चुनाव लड़ता रहा है लेकिन इस बार उत्तराखण्ड व उत्तर प्रदेश के मुसलिम बाहुल्य वाले इलाको में भाजपा के पक्ष में जो आॅधी चली है उसने तमाम क्षेत्रीय दलो समेत मुसलिम तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले नेताओ को मानसिक रूप से बीमार बना कर रख दिया है। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि इससे पहले भाजपा ने हिन्दुत्व को मुद्दा बनाकर जो राजनीति की थी उसके माध्यम से विभिन्न जातियों, समुदायों व वर्गो में विभाजित बहुसंख्यक मतदाता तेजी से एक झण्डे के नीचे आया था और अब तीन तलाक जैसे मसले पर मुसलिम महिलाओं की भाजपा से दूरियाॅ घटी है लेकिन यह दूरियाॅ एकाएक ही इतनी कम हो जायेंगी कि भाजपा के पक्ष में व्यापक जनमत की झडी लग जायेगी, ऐसी किसी को उम्मीद नही थी। हो सकता है कि पाकिस्तान में सूफी सन्त लाल शहबाज कलन्दर की दरगाह पर हुऐ आंतकी हमले के बाद भारत में रहने वाले अमन पसन्द मुसलमानों को यह समझ में आया हो कि आईएसआईएस या अन्य कोई आंतकी संगठन किसी एक मुल्क या कौम का दुश्मन नही है और देश के इस दुश्मन से लड़ने के लिऐ एक मजबूत व जबाहदेह सरकार की जरूरत है जो कि सिर्फ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा दे सकती है या फिर यह भी हो सकता है कि मोदी राज में हुई गुजरात की तरक्की ने मुसलिम समाज को एक दंगा विहीन समाज के पक्ष में अश्वस्त किया हो और मुसलिम वोटो की बरसात भाजपा के प्रत्याशी के पक्ष में हो गयी हो। खैर वजह चाहे जो भी हो लेकिन यह कटु सत्य है कि कुछ राजनैतिक दलो या चेहरो के ईवीएम की खराबी या तकनीकी खामी का बहाना बनाने मात्र से यह असलियत झुठलायी नही जा सकती कि उ0प्र0 और उत्तराखण्ड के चुनावों में भाजपा को भारी जीत मिली है और गोवा व मणिपुर में भाजपा अल्पमत् में होते हुये भी सरकार बना चुकी है। अब अगर विपक्ष सच में ही व्यवस्था में बदलाव चाहता है तो उसके लिऐ आन्दोलन ही एकमात्र रास्ता है और हालात यह इशारा कर रहे है कि काॅग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल हाल-फिलहाल तो इस मुद्दे को लेकर किसी बड़े आन्दोलन के पक्ष में नही है।