राजनैतिक नूराकुश्ती का दौर | Jokhim Samachar Network

Friday, April 26, 2024

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राजनैतिक नूराकुश्ती का दौर

आगामी लोकसभा चुनावों की तैयारी में जुटते दिखाई दे रहे राजनैतिक दलों को है लोकलुभावन मुद्दों की तलाश।
सांकेतिक धरना-प्रदर्शन व आन्दोलन के जरिये आम जनता के बीच पैठ बनाने निकली सत्ता पक्ष व विपक्ष से जुड़ी राजनैतिक पार्टियां अपने-अपने तरीके से व्यापक जनमत को अपने पक्ष में करना चाहती है और इसके लिए उन तमाम हथकंडों पर दांव आजमाया जा रहा है जो जनता को उद्देलित या इन राजनैतिक दलों की ओर आकर्षित करते हैं। सदन के कामकाज को लेकर सत्ता पक्ष की चिंता जायज है और अगर काम न होने की स्थिति में सत्ता पक्ष के सांसद व प्रधानमंत्री अपना वेतन न लेने का फैसला लेते हैं तो इसे एक निर्णायक कदम माना जा सकता है लेकिन इस तरह के कदम उठाने के साथ ही साथ सरकार को अपने चार साल के कार्यकाल के दौरान लिए गए फैसलों अथवा सदन द्वारा ध्वनिमत से पारित प्रस्तावों के समाज व आम जनजीवन पर पड़े असर की भी समीक्षा करनी चाहिए और सत्ता पक्ष के नेताओं को धरने अथवा प्रदर्शन की राजनीति करने के स्थान पर जन सामान्य को यह बताना चाहिए कि वह कौन से कारण हैं जिनके चलते सत्ता पक्ष सदन के भीतर विपक्ष द्वारा उठाये गये सवालों या मुद्दों पर चर्चा ही नहीं करना चाहता। यह माना कि मुख्य विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस भी आमजन की समस्याओं व अन्य ज्वलंत मुद्दों के स्थान पर वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए दलितों के आंदोलन व एक समूह द्वारा उच्चतम् न्यायालय के फैसले पर उठाये गए सवालों को मुद्दा बनाने का प्रयास कर रही है और दलितों के प्रति प्रदर्शित किया जा रहा यह प्रेम कांग्रेस के नेताओं को उनके शासनकाल में दर्शाये गए मुस्लिम तुष्टिकरण की तरह ही भारी पड़ सकता है लेकिन यह ज्यादा अफसोसजनक है कि केन्द्र की सत्ता पर चार साल की कब्जेदारी के बाद एक राष्ट्रीय राजनैतिक दल अपनी उपलब्धियों को आधार बनाने की जगह कांग्रेस के विरोध या नाकामी को ही मुद्दा बनाते हुए चुनाव के मैदान में उतरना चाहता है और मीडिया की मिलीभगत से कांगे्रस के सांकेतिक धरना अथवा भूख हड़ताल से पूर्व कुछ कार्यकर्ताओं द्वारा खाये गये छोले-भटूरे को चर्चाओं का विषय बनाकर तुच्छ राजनैतिक खेल खेला जा रहा है। हाल ही में भाजपा ने अपनी स्थापना के अड़तीस वर्ष पूरे होने का जश्न मनाया और विभिन्न स्तर पर आयोजित कार्यक्रमों के माध्यम से जनता व कार्यकर्ताओं को यह संदेश देने की कोशिश की गयी कि दो सांसदों की चुनावी जीत से शुरू हुआ एक राजनैतिक दल इन चार दशकों की मशक्कत के बाद कैसे पूर्ण बहुमत की सरकार बना विभिन्न राज्यों की सत्ता पर कब्जेदारी तक पहुंचा लेकिन सत्ता के शीर्ष को हासिल करने की इस जद्दोजहद में भाजपा के वर्तमान नेतृत्व ने अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी व मुरली मनोहर जोशी जैसे भाजपाई आधार स्तम्भों को भुला दिया और बेकारी व अकेलेपन के इन क्षणों में खुद को अलग-थलग महसूस कर रहे आडवाणी ऋषिकेश के गंगा तट पर आध्यात्मिक शांति तलाशते पाये गये। इन हालातों में अगर भाजपा से जुड़े लोग यह कहें कि उनका संगठन अपने कार्यकर्ताओं का सम्मान करना जानता है या फिर गम्भीर राजनैतिक संघर्षों व रस्साकशी के बलबूते सत्ता को हासिल करने में सफल रही भाजपा वर्तमान में भी आम आदमी की लड़ाई लड़ रही है तो यह अतिशयोक्ति होगी और विपक्ष के लिए जनता को यह समझा पाना भी आसान होगा कि एक गैर राजनैतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बाजरिया जनसंघ भारतीय जनता पार्टी के रूप में तब्दील हुई यह राजनैतिक ताकत चंद चेहरों की सत्ता पर कब्जेदारी की लड़ाई को बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रही है और सत्ता के इस संघर्ष में आम आदमी का हित बहुत पीछे छूट चुका है लेकिन भाजपा का शीर्ष नेतृत्व बहुत ही चालाकी के साथ इन तमाम तथ्यों को छुपाते हुए विपक्ष पर हमलावर है और कांग्रेस के राष्ट्रव्यापी स्वरूप को छिन्न-भिन्न करने व उसके कार्यकर्ताओं को हतोत्साहित करने के लिए उसने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया है। देश की आजादी के वक्त एकमात्र सशक्त व राष्ट्रव्यापी राजनैतिक दल के रूप में कांग्रेस जब सत्ता के शीर्ष पर काबिज हुई तो उसे समाज के लगभग सभी वर्गों व धर्मों का समर्थन प्राप्त था और देश के बंटवारे के बाद उत्पन्न स्थितियों से डरे हुए यहां बचे मुस्लिम मतदाताओं व पाकिस्तान से भागकर भारत आये हिन्दू शरणार्थियों को लेकर कांग्रेस के नेताओं में थोड़ी बहुत सहानुभूति भी थी लेकिन धीरे-धीरे कर यह सहानुभूति मतलबपरस्ती में तब्दील होती चली गयी और कांग्रेस के नेताओं ने मुस्लिम मतदाताओं को अपना वोट-बैंक बनाये रखने के लिए उनका तुष्टिकरण शुरू कर दिया। ठीक यही स्थिति दलित मतदाताओं के साथ भी हुई लेकिन अपनी बड़ी संख्या के बावजूद संगठित न होने के कारण दलित इसका बहुत ज्यादा फायदा न उठा सके और लोकतांत्रिक सरकारों के गठन के शुरूआती दौर में दलितों के अनेक जातियों में बंटे होने व तमाम दलित नेताओं के कांग्रेस में होने का खामियाजा दलितों को भुगतना पड़ा। इसके बाद आये गठबंधन की राजनीति के दौर ने राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व पर हमला किया और सामाजिक रूप से बने गये समीकरणों ने मुस्लिम व दलित मतदाताओं को एक दूसरे के करीब आने का मौका दिया जिसके कारण राजनैतिक समीकरण तेजी से बदले और कांग्रेस का वोट तेजी से बिखरता जान पड़ा। लगभग इसी दौर में देश के सवर्ण मतदाताओं ने महसूस किया कि कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीतियों के कारण उनकी सामाजिक सुरक्षा को खतरा पैदा हो रहा है और सरकार द्वारा अमल में लाये जा रहे कानूनों व संविधान संशोधनों के चलते कम हुए सामाजिक भेदभाव ने विभिन्न जातियों व समूहों में विभाजित हिन्दू मतदाता को एक साथ आने का मौका दिया जिसके कारण राजनैतिक रूप से लगाये जाने वाले तिलक-तराजू और तलवार जैसे नारों के बावजूद सकल हिन्दुत्व व हिन्दू राष्ट्र का नारा लगाने वाली भाजपा की जनस्वीकार्यता बढ़ी और संघ के कार्यकर्ताओं के अगाध प्रयासों व अपने संस्थापक नेताओं की मेहनत के बूते भाजपा एक मुकाम को छूने में सफल रही लेकिन सत्ता को हासिल करने की इस मुहिम में भाजपा का अपना कोई राजनैतिक एजेण्डा नहीं रहा। इसलिए भाजपा जब-जब भी सत्ता के नजदीक पहुंची तो उसने उन्हीं नीतियों व राजनैतिक तौर-तरीकों को अंगीकार किया जो कांग्रेस द्वारा स्वीकार्य थे। शायद यही वजह है कि भाजपा के शासनकाल में उदारवादी आर्थिक नीतियों व अन्य मामलों में ठीक उसी तरह काम व फैसले हुए जैसे कांग्रेस के शासन में होते थे और एक मजबूत विपक्ष के रूप में कांग्रेस की आलोचना करने वाली भाजपा ने सत्ता के शीर्ष को हासिल करने के बाद न सिर्फ कांग्रेस की बी टीम की तरह काम किया बल्कि भाजपा का नेतृत्व उन फैसलों व कानूनों को लागू करने के लिए ज्यादा आतुर दिखा जिन्हें अंगीकार किए जाने में कांग्रेस की सरकारें थोड़ा सहमी हुई थी। नतीजतन वर्तमान में केन्द्र सरकार के कामकाज को चार वर्ष पूरा हो जाने के बाद एक बार फिर व्यापक जनमत के इरादे से जनता के बीच जाने का मन बना रही भाजपा को यह महसूस हो रहा है कि आगामी चुनावों के वक्त जनता को समझाने के लिए उसके पास कोई बड़ा मुद्दा या उपलब्धि नहीं है और अपनी इस खामी को छिपाने के लिए सरकारी तंत्र व भाजपा के नेता पूरी तरह सजग दिखाई दे रहे हैं। नतीजतन व्यापक जन समस्याओं व अपने वर्तमान कार्यकाल में जनता द्वारा महसूस की गयी परेशानियों से उसका ध्यान हटाने के लिए जन चर्चाओं के विषय बदलने का प्रयास जारी है और सरकारी तंत्र व मीडिया का सहारा लेकर यह माहौल बनाने का प्रयास किया जा रहा है कि बदलाव के दौर से गुजर रहे भारत को मुसलमानों व अन्य जाति के नेताओं से बड़ा खतरा है। अफसोसजनक है कि मुख्य विपक्षी दल होने का दावा करने वाली कांग्रेस भी मुस्लिम व दलित मतदाताओं के वोट-बैंक के दायरे से बाहर नहीं निकल पा रही और मौजूदा सरकार की नाकामियों व जनसामान्य को हो रही परेशानियों को मुद्दा बनाने की जगह निरर्थक बहसों व बेवजह के धरने-प्रदर्शनों के जरिये चुनावी माहौल बनाने का प्रयास किया जा रहा है। हालातों के मद्देनजर यह कहा जाना मुश्किल है कि आगामी चुनावों के बाद देश के हालातों व सरकार की नीतियों में व्यापक फेरबदल नजर आयेंगे और चुनावी मंचों से जनसामान्य के हितों को लेकर सजग होने का दावा करने वाले राजनैतिक दल अपनी कार्यशैली व सोच में व्यापक बदलाव लाने के लिए मजबूर दिखाई देंगे।

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