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Friday, May 03, 2024

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तथाकथित विकास व जनसुविधाओं के नाम पर

स्थानीय निकायों के सीमा विस्तार सम्बन्धित सरकार के फैसले के बाद उत्तराखंड के दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में और ज्यादा तेजी से होगा पलायन।
सरकार द्वारा हाल ही में लिये गये तमाम फैसलो की तरह प्रदेश के कुछ नगर निगमों समेत नगर पालिकाओं व नगर पंचायतों के सीमा विस्तार का मामला भी जनाक्रोश व जनान्दोलन का कारण बनता नजर आ रहा है और अपने इस फैसले के संदर्भ में सरकार यह स्पष्ट करने में असमर्थ है कि इस सारी नूराकुश्ती का जनसामान्य को क्या फायदा होने वाला है। यूँ तो शहर अथवा कस्बे के मानक आधार पर गठित होने वाले स्थानीय निकायों अर्थात् नगर निगम, नगर पालिका व नगर पंचायतों के पास कई तरह की जिम्मेदारियाँ व योजनाऐं है और पूर्ण रूप से स्वयत्तशासी मानी जाने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था की इन सबसे छोटी इकाईयों के पास अपना बजट तैयार करने के लिऐ स्थानीय स्तर पर कर वसूलने का अधिकार भी है लेकिन प्रायः देखा जाता है कि लोकतंत्र की यह छोटी पंचायतें भ्रष्टाचार के बड़े खेलांे में शामिल है और इनमें चुनकर आने वाले जनप्रतिनिधि सर्वाधिकार सम्पन्न होने के बावजूद अधिकांशतः अपने अधिकारों का प्रयोग नही करते। शायद यहीं वजह है कि नवगठित राज्य उत्तराखंड में तथाकथित रूप से जनहितकारी सरकारों के अस्तित्व में आने के इन सत्रह वर्षों बाद भी हमारे पास ऐसी कोई नगर पंचायत, नगर पालिका या नगर निगम नही है कि जिसे हम आदर्श स्थानीय निकाय का दर्जा दे सकें लेकिन हैरत की बात यह है कि राज्य में बनने वाली लगभग हर सरकार ने अपने कार्यकाल के दौरान नये नगर निगम, नगर पालिकाऐं व नगर पंचायत घोषित करने के कार्यक्रमों को प्राथमिकता दी है और मौजूदा सरकार तो इन तमाम सफलताओं या घोषणाओं से आगे निकलकर प्रदेश के तमाम स्थानीय निकायों के कार्यक्षेत्र को बढ़ाना चाहती है। अगर सैद्धान्तिक रूप से बात की जाये तो भारत एक ग्रामीण अर्थव्यवस्था वाला देश है और कृषि व किसानों पर हो रहे कई तरह के रणनैतिक व राजनैतिक हमलों के बावजूद इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि राजनैतिक फैसलों के चलते बाजार में आने वाले कई तरह के उतार-चढ़ाव के बावजूद हमारे देश पर आर्थिक मंदी के न्यूनतम् प्रभाव की मुख्य वजह भी खेती ही है लेकिन आश्चर्यजनक है कि इस देश के नेता कभी औद्योगिकरण के नाम पर तो कभी लगातार बढ़ रही जनसंख्या के नाम पर देश के नक्शे से ग्राम सभा के साथ ही साथ ग्रामीण संस्कृति व हमारी पुरानी विरासतों का नामोंनिंशा मिटा देना चाहते है और इसके लिऐ किसानों की कृषि योग्य भूमि को जोर-जबरदस्ती कब्जाने हेतु भूमि अधिग्रहण कानून समेत तमाम तरह की कानूनी कार्यवाहियों का सहारा लिया जाता है या फिर सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों के कुछ हिस्सो में जोर-जबरदस्ती और चालाकी का इस्तेमाल कर पहले-पहले अवैध बस्तियाँ बसने दी जाती है। इस प्रकार बेतरतीब तरीके से गाँवो की ओर बढ़ रहे शहर व कस्बों को जनसुविधाओं से जोड़ने के नाम पर स्थानीय निकायों की सीमा विस्तार प्रक्रिया को जायज ठहराने की कोशिश की जाती है लेकिन अपने इस तरह के तमाम बड़े फैसले लेने से पहले हमारे जनप्रतिनिधि या सत्ता के शीर्ष पदो पर काबिज राजनैतिक चेहरे यह भूल जाते है कि वह जिन जनसुविधाओं व व्यवस्थाओं की बात कर रहे है उनका पूर्व से ही घोषित शहरों व कस्बों में क्या हाल है तथा इन क्षेत्रों में गठित नगर निगम, नगर पंचायत या फिर नगर पालिका अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन किस हद तक करने में सक्षम है। यह माना कि ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक जनहित के नाम पर चलने वाली कई योजनाओं में बड़ा गड़बड़झाला है और ग्राम सभाओं व पंचायतों पर काबिज तथाकथित पंचायत प्रतिनिधि व ग्राम प्रधान यह कदापि नही चाहते कि उनके अधिकार क्षेत्र पर अतिक्रमण कर कोई भी सरकार उन्हें सत्ता की मुख्यधारा से बेदखल करें लेकिन सरकार अगर चाहती तो व्यवस्थित तरीके से शहरों के इस छोटे हिस्से अथवा कस्बो में तब्दील हो चुके ग्रामीण क्षेत्रों के विकास पर ध्यान देकर इन क्षेत्रों की जनता को अपने पक्ष में कर सकती थी और अगर सरकार ऐसा कोई कदम उठाती तो जन सामान्य के बीच से उसे अवश्य ही सराहा जाता किन्तु सरकार द्वारा पूर्व में गठित नगर पालिकाओं, नगर निगमों अथवा नगर पंचायतों की बदहाल व्यवस्था को देखते हुऐ स्थानीय जनता अपने ग्रामीण प्रतिनिधियों से नाराजी के बावजूद भी सरकार के इस फैसले के विरोध में उनके पीछे खड़ी दिख रही है और अगर सूत्रों से मिल रही खबरों को सही माने तो नयी सरकार के अस्तित्व में आने के तत्काल बाद से लगभग पूरे प्रदेश में चल रहे शराब विरोधी माहौल के उपरांत यह एक ऐसा दूसरा बड़ा मुद्दा हो सकता है जो स्थानीय जनता को सीधे तौर पर प्रभावित कर रहा है। अगर ऐसा है तो यह वाकई बुरी खबर है क्योंकि आर्थिक संसाधनों की कमी से जूझ रहा यह प्रदेश इस वक्त इन हालातों में नही है कि वह किसी बड़े जनान्दोलन का सामना कर सके और स्थानीय निकायों का सीमा विस्तार एक ऐसा मुद्दा है जिसे सरकार अगर चाहती तो आसानी से टाल सकती थी लेकिन अब इस परिपेक्ष्य में सरकार अपने फैसले पर पुर्नविचार करती है या फिर फैसले को वापस लेने पर बाध्य होती है तो यह सरकार की एक बड़ी हार होगी। इन हालातों में सरकार के मुखिया त्रिवेन्द्र सिंह रावत को यह विचार अवश्य करना चाहिऐं कि आखिर वह कौंन लोग है जो इस तरह के फैसले लेने के लिऐ जनता पर दबाव बना रहे है। वैसे अगर राजधानी में चल रही चर्चाओं व इस संदर्भ में प्रस्तुत किये जा रहे तर्को के हवाले से बात की जाय तो यह माना जा सकता है कि स्थानीय निकायों की सीमा का फैसला भू-माफियाओं की दिमाग की उपज है और लगभग ठण्डे पड़ चुके रियल स्टेट के धंधे में एक नयी जान फँूकने के लिऐ सरकार पर यह दबाव बनाया गया है कि वह पहली फुर्सत में स्थानीय निकायों के सीमा विस्तार के फैसले को लागू करें। दिल्ली व मुुंबई जैसे महानगरों में बैठे तमाम पूँजीपतियों व कारोबारियों द्वारा अपने दो नम्बर के पैसे को उत्तराखंड में खपाने के लिऐ बड़े पैमाने पर भूमि की खरीद फरोख्त की खबरें हमें अक्सर सुनाई देती है और अब अन्य क्षेत्रों के मुकाबले ज्यादा सुविधाओं वाले राज्य के मैदानी इलाकों व जिला मुख्यालयों के इर्द-गिर्द बसे तमाम स्थानीय निकायों के सीमा विस्तार के बाद यह तय दिखता है कि कुछ नये क्षेत्रों में जमीनों की खरीद-बिक्री के कार्यक्रम में तेजी आ सकती है जिसका सीधा असर राज्य के तमाम दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों मे पहले से ही हो रहे पलायन के ज्यादा तेज होने के रूप मे सामने आने की संभावना है। इसलिऐं सरकार के स्थानीय निकायों की सीमा विस्तार के फैसले को किसी भी कीमत पर सही नही ठहराया जा सकता।

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