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Friday, April 26, 2024

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स्थानीयता के आभाव में

 

मंचीय संस्कृति एवं लोककलाओं के गैर परम्परागत् अन्दाज से खतरे की जद में है एक समृद्ध व्यवस्था

उत्तराखंड लोककला व संस्कृति की दृष्टि से समृद्ध क्षेत्र है तथा यहां के पौराणिक तीर्थस्थल व प्राकृतिक संरचनाओं से बिहंगम दृश्य देश-विदेश के तीर्थयात्रियों व पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं लेकिन इस सबके बावजूद अपने गठन के इन सत्रह वर्षों में पर्यटन को स्थानीय युवाओं के रोजगार से जोड़ने को लेकर कोई विशेष पहल नहीं हुई है और न ही यहां के स्थानीय लोक कलाकार अपनी रोजी-रोटी व रोजगार से जुड़े सवालों को लेकर निश्चिंत दिखते हैं। हालांकि लोक कलाकारों के रूप में गिनाने के लिए हमारे पास कई बड़े नाम हैं और स्थानीय स्तर पर होने वाले आयोजनों के अलावा विभिन्न राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मंचों पर भी हमारे लोककलाकारों को सम्मान से नवाजा जाता है लेकिन इस सबके बावजूद लोककला व संस्कृति को रोजगार से जोड़ने के प्रयासों में सरकारी तंत्र पूरी तरह असफल दिखाई देता है और सरकारी खर्च अथवा सहयोग से होने वाले तमाम आयोजनों को देखकर ऐसा लगता है कि मानो सरकार ने स्थानीय लोक कलाकारों को आयोजन स्थल पर भीड़ इकट्ठा करने का एक जरिया मात्र समझ लिया है। यह ठीक है कि इस तरह के स्थानीय मंचों पर सरकारी सहयोग से होने वाली विभिन्न सांस्कृतिक प्रस्तुतियां लोककलाकारों के लिए खुद को जीवित रखने व आर्थिक संसाधन जुटाने का एक जरिया है और एक बड़े बजट के साथ लोककलाओं व लोक संस्कृति के संरक्षण का दावा करने वाला प्रदेश का संस्कृति एवं धर्मस्व मंत्रालय अपनी गतिविधियों के माध्यम से लगातार चर्चाओं में बना भी रहता है लेकिन अगर स्थानीय कलाकारों की दयनीय हालत व उन्हें मिलने वाले न्यूनतम् भुगतान में भी होने वाली लेट-लतीफी को मद्देनजर रखकर देखा जाये तो यह अहसास होता है कि सरकार किसी भी स्तर पर लोककला या लोककलाकारों का संरक्षण नहीं चाहती जबकि राजनैतिक इच्छाशक्ति के आभाव में राज्य गठन के बाद तेजी से बढ़े पलायन के चलते सिर्फ मंचीय प्रदर्शन तक सीमित हो चुके गांव-देहात के तमाम धार्मिक आयोजन व मेले राज्य की संस्कृति व लोक परम्पराओं को नुकसान के अलावा और कुछ नहीं दे पा रहे। अगर सरकारी घोषणाओं व योजनाओं पर भरोसा करें तो ऐसा लगता है कि सरकारी तंत्र स्थानीय लोकभाषाओं को राजकीय भाषा का दर्जा दिए जाने के साथ ही साथ स्थानीय लोककलाओं, लोकसंस्कृति, लोकमान्यताओं व परम्पराओं को संरक्षण देने के लिए संकल्पबद्ध है और विभिन्न सार्वजनिक मंचों पर स्थानीय भाषाओं में अपने उद्गार रखने का प्रयास करने वाले या फिर लोकनृत्यों की धुन पर थिरकने वाले हमारे नेता जनभावनाओं की गहरी समझ रखते हैं लेकिन अगर यथार्थ में देखा जाय तो यह सब कुछ एक आभासी संस्कृति का एक हिस्सा है और मजे की बात यह है कि सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन को जिम्मेदार कुछ नौकरशाह व तमाम अधिकारी भी इन तमाम विषयों पर कोई ठोस रणनीति बनाने के स्थान पर अपने आकाओं को खुश करने के लिए इन तमाम मंचों पर थिरकते या उछलकूद मचाते देखे जा सकते हैं और कुछ वरिष्ठ कर्मकारों के बीच तो इस क्षेत्र में अपनी प्रतिभा साबित करने की बकायदा होड़ सी लगी हुई है। नतीजतन लोकसेवक व कर्मकारों के लिए स्थापित की गयी आचार संहिता का खुला उल्लंघन हो रहा है और लोककला व संस्कृति, परम्पराओं के निर्वहन व प्रदर्शन का जरिया बनने की जगह चाटुकारिता का माध्यम बनती नजर आ रही है। गंभीरतापूर्वक गौर किया जाय तो यह तमाम परिस्थितियां हमारे प्रदेश व पौराणिक ज्ञान का खजाना समेटे पहाड़ों के लिए ठीक नहीं है और हम कहीं न कहीं अपनी परम्पराओं व लोक व्यवस्थाओं का उपहास उड़ाते नजर आने लगे हैं लेकिन राजनीति के खेल में सब जायज है वाले अंदाज में हमारी सरकारें न सिर्फ इसे नजरंदाज कर रही हैं बल्कि ओछी मानसिकता व आधी-अधूरी तैयारियों के साथ किए जाने वाले आयोजनों की बाढ़ सी आ गयी प्रतीत होती है और मजे की बात यह है कि इन आयोजनों से सिवाय सस्ते मनोरंजन के अलावा कुछ भी हासिल नहीं है जबकि इस मनोरंजन का जरिया बना लोककलाकार खुद को हर स्तर पर ठगा हुआ महसूस कर रहा है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि स्वयं को राज्यहित के प्रति समर्पित मानने वाली हर सरकार अपने अस्तित्व में आने के तत्काल बाद से ही पर्यटन को रोजगार से जोड़ने और उत्तराखंड की बहुआयामी लोकसंस्कृति व लोककलाओं को नया आयाम देने का दावा करती रही है तथा बीते कुछ वर्षों में राज्य के भीतर व देश के अन्य तमाम हिस्सों में भी उत्तराखंड की लोकसंस्कृति को बढ़ावा देने के नाम पर होने वाले आयोजनों की बाढ़ सी आती प्रतीत होती है लेकिन यह तमाम आयोजन अपने मूल उद्गम स्थल से कट गए प्रतीत होते हैं और राज्य के तमाम पर्वतीय व दुर्गम ग्रामीण क्षेत्रों में पलायन के बाद बिखरा पड़ा सन्नाटा इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि आम आदमी अपनी परम्पराओं व संस्कृति से विमुख होता जा रहा है। एक समय था जब स्थानीय मेले और इन मेलों के अवसर पर होने वाले सांस्कृतिक आयोजन अपने रोजगार सम्बन्धी कारणों से पहाड़ से पलायन कर गए जनमानस को उसके गांव व पौराणिक देवी-देवताओं के मंदिरों की ओर आकर्षित करते थे तथा साल-छह माह में एक-दो बार स्थानीय तीज-त्यौहारों व इस तरह के आयोजनों में भागीदारी के लिए पूरे उत्साह व व्यवस्थाओं के साथ पहाड़ का लगभग हर बाशिन्दा अपने पैतृक गांवों की ओर रूख करता था लेकिन अब हालात बदल गए हैं और यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि स्थानीय लोकपर्वों व इस तरह के अन्य आयोजनों में राजनैतिक दखलंदाजी के चलते पनपी सरकारीकरण की परम्परा ने स्थानीय उत्साह को लगभग समाप्त कर दिया है। अफसोसजनक है कि राजनैतिक या अन्य कारणों से किए गए इस सरकारीकरण को भी हमारे नेता व नौकरशाह ठीक तरह से निभा नहीं पाए हैं या फिर यह भी हो सकता है कि चुनाव दर चुनाव बदलती दिखने वाली नेताओं की आस्था व प्राथमिकताओं के चलते सरकारों एवं सरकारी तंत्र का लक्ष्य निर्धारित न होने के कारण इस तरह की अव्यवस्थाएं सामने आयी हैं और सरकारी मायाजाल में उलझा आम आदमी यह समझने में नाकामयाब रहा है कि आखिर सरकारें चाहती क्या हैं। नतीजतन समृद्ध व लोकलुभावन माने जाने वाली हमारी संस्कृति तमाम तरह के अनजाने खतरों व हमलों से जूझ रही है और स्थानीय लोक वाद्य व लोककलाकार राजनीतिज्ञों व सत्ता के शीर्ष पर स्थापित नेताओं के संसाधन मात्र बनकर रह गए हैं। हमने देखा कि अभी कुछ ही समय पूर्व राज्य की नवगठित सरकार के एक जिम्मेदार किंतु बड़बोले नेता ने अपने राजनैतिक आकाओं को खुश करने के लिए राज्य के परम्परागत् वाद्य यंत्र ढोल पर प्रयोग करते हुए नमोः नाद के आयोजन का ऐलान किया और इसके बाद तो पूरे राज्य में सांस्कृतिक आयोजनों की बाढ़ सी आ गयी लेकिन इस सारी जद्दोजहद से स्थानीय स्तर पर लोककला या लोककलाकार को किसी भी तरह का फायदा होता नहीं दिख रहा है और न ही हम यह कह पाने की स्थिति में हैं कि गांव की संस्कृति एवं परम्पराओं को मंचीय स्वरूप प्रदान कर हम स्थानीय स्तर पर कोई भूपेन्द्र हजारिका जैसा नामी-गिरामी कलाकार तराश पाने में सफल हुए हैं। यह ठीक है कि हमारे पास भी जागर गायन के क्षेत्र में नरेन्द्र सिंह नेगी, श्रीमती बसन्ती बिष्ट और प्रीतम भरतवाण जैसे कई बड़े नाम हैं जिन्हें विभिन्न राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सुना व देखा जाता है लेकिन इनकी लोकप्रियता व मंचीय प्रदर्शन में सरकारी तंत्र का कोई विशेष योगदान नहीं है और न ही यह तमाम कलाकार हमारी ग्रामीण संस्कृति को तहस-नहस कर सिर्फ मंचों तक सीमित रखने के पक्षधर ही प्रतीत होते हैं। हालातों के मद्देनजर हम यह अच्छी तरह समझ सकते हैं कि अपनी योग्यता व जनहितकारी कार्यक्रमों के जरिये आम आदमी को अपनी ओर आकृष्ट करने में पूरी तरह नाकाम हमारी वर्तमान व तमाम पूर्व सरकारों ने अपने आयोजनों व सरकारी समारोहों में भीड़ एकत्र करने के लिए स्थानीय लोक कलाकारों का ठीक बन्धुआ मजदूरों की तर्ज पर उपयोग किया है और अब अधिकारी व नौकरशाह इस दिशा में दो कदम आगे बढ़ते हुए स्वयं को लोककला व स्थानीय संस्कृति का मर्मज्ञ साबित करने के प्रयासों में जुटे दिख रहे हैं।

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