जन-गण मंगलदायक भारत भाग्यविधाता | Jokhim Samachar Network

Thursday, March 28, 2024

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जन-गण मंगलदायक भारत भाग्यविधाता

धार्मिक व जातिगत आधार पर होने वाले दंगे खड़े करते हैं लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर सवाल
भारतीय गणतंत्र की स्थापना के 68 वर्ष पूरे होने के अवसर पर सर्वत्र आयोजनों की धूम है और देश का हर नागरिक स्वयं को आनंदित महसूस कर रहा है क्योंकि उसे लगता है कि अब उसकी स्वतंत्रता व लोकतांत्रिक व्यवस्था को कोई खतरा नहीं है या फिर यह भी हो सकता है कि वैश्विक परिवेश में भारत को मिल रहे बताये जा रहे सम्मान व महत्व ने आम भारतीयों को अपने राष्ट्र के प्रति सम्मान व प्रेम के खुले प्रदर्शन के लिए मजबूर किया हो और सम्पूर्ण राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में हावी दिख रहे उग्र राष्ट्रवाद ने यह माहौल बनाया हो कि आप अपनी भावनाओं का उनमुक्त प्रदर्शन करने को बेताब दिखें। यह भी हो सकता है कि एक विचारधारा विशेष से जुड़े कुछ राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं अथवा खुद को सामाजिक व्यवस्थाओं का ठेकेदार मानने वाले कतिपय संगठनों को यह लगता हो कि हाथ में तिरंगा लेकर जोर-जोर से भारत माता की जयघोष का नारा लगाने या फिर वंदेमातरम् का गान करने मात्र से ही राष्ट्र के प्रति समर्पण व आदर की भावना को प्रदर्शित किया जा सकता है और देश के एक सामान्य नागरिक को अपनी राष्ट्रभक्ति का प्रदर्शन करने के लिए हर वक्त तैयार रहना चाहिए लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी राष्ट्र के प्रति निष्ठा व समर्पण सिर्फ राष्ट्रगान के उच्चारण अथवा इसके समर्थन में लगाये जाने वाले जयघोष तक ही सीमित रहना चाहिए और व्यापक जनहित से जुड़े सवालों या फिर आम आदमी के हितों की बात करने वाली जनवादी किंतु सरकार विरोधी ताकतों को राष्ट्रहित में देशद्रोही घोषित कर दिया जाना चाहिए। इस तथ्य से हम सब वाकिफ हैं कि पाकिस्तान और चीन के साथ सीमा विवाद तथा देश की आजादी के कुछ ही वर्षों के भीतर मिला कश्मीर समस्या का तोहफा भारत की चित्परिचित समस्यायें हैं लेकिन हमारी लोकतांत्रिक सरकारें इन समस्याओं का समयबद्ध अथवा तत्कालिक समाधान ढूंढने के स्थान पर इन समस्याओं को लटकाकर रखने व चुनावों के मौकों पर इसका राजनैतिक लाभ उठाने का प्रयास करती रही है जिसके परिणाम सीमा पर रोजाना के हिसाब से होने वाली गोलाबारी के चलते हमारी सेना के जवानों के मारे जाने अथवा हताहत होने के अलावा सीमावर्ती इलाकों में रहने वाली देश की सामान्य जनता द्वारा उठायी जाने वाली तकलीफों के रूप में हमारे सामने है और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि मौजूदा सरकारी व्यवस्था ने देश की सीमाओं पर होने वाले इन हमलों या फिर आतंकी वारदातों के परिपेक्ष्य में की जाने वाली जवाबी कार्यवाही को सर्जिकल स्ट्राइक का नाम देकर इन अवसरों का राजनैतिक इस्तेमाल किया है जबकि चीन के साथ चल रहे सीमा विवाद को लेकर या फिर चीन की सेना द्वारा भारतीय सीमा पर चैकी स्थापित करने की खबरों पर भारत सरकार कोई स्पष्टीकरण नहीं देना चाहती। हमने देखा कि खुद को राष्ट्रीयता का ठेकेदार बताकर देशप्रेमी या देशद्रोही होने का प्रमाणपत्र बांटने वाली कुछ सामाजिक ताकतों ने अपने राजनैतिक फायदे के लिए हमारी भावनाओं का जुमलों की तरह इस्तेमाल किया तथा सत्ता पर अपनी कब्जेदारी बनाये रखने के लिए आम आदमी की समस्याओं व अन्य कठिनाईयों को दरकिनार कर कुछ ऐसे विषयों को आगे बढ़ाया गया जिनका लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं से कुछ लेना-देना नहीं था लेकिन विपक्ष के आभाव में यह मुद्दे न सिर्फ तेजी से परवान चढ़े बल्कि आम आदमी भी भावनाओं के अतिरेक में बहता दिखा और राजनीति के मोर्चे पर, लगातार बढ़ रही महंगाई अथवा नोटबंदी व जीएसटी लागू होने से बाजार में छायी मंदी जैसी समस्याओं पर चर्चाओं के स्थान पर फिल्मी कहानियों के सामान्य जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव या फिर धार्मिक व जातीय वैमनस्यता की बातें चल निकली। नतीजतन सरकारी तंत्र की प्राथमिकताएं बदलने लगी और यह मान लिया गया कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के तहत बहुमत वाली सरकारों के गठन के लिए जनतंत्र को भीड़तंत्र में बदलाना जाना तथा राष्ट्र के साम्प्रदायिक व जातिगत सद्भाव को दांव पर लगाते हुए सत्ता के शीर्ष पदों को हासिल करना ही राजनीति है। राजनीति की इन बदली हुई प्राथमिकताओं के बीच राजनीतिज्ञों का जनसरोकारों से दूरी बनाना तथा चुनावी वादों व नारों से विमुख होते हुए अपनी मनमर्जी पर उतारू दिखना अब सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा है और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के ठेकेदारों व जनता के बीच से चुनकर आये नेताओं को देखकर अब ऐसा महसूस होने लगा है कि मानो यह सब नये दौर के राजा-महाराजा हों जिन्हें भारत के भाग्य-विधाता के रूप में जनमानस को दिगभ्रमित करने का जिम्मा सौंपा गया है। यह ठीक है कि इन पिछले सत्तर वर्षों में देश की राजनीति ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं तथा देश की जनता को अपने पड़ोसी मुल्कों के साथ दोस्ती व युद्ध करने के भी कई खट्टे-मीठे अनुभव हैं लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ इन्हीं अनुभवों के आधार पर देश चलाया जा सकता है या फिर हमारे नेताओं ने इन अनुभवों से थोड़ा आगे बढ़ते हुए नये दोस्त तलाशने की कोशिशें भी करनी चाहिए। हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री अपने ताबड़तोड़ विदेश दौरों के माध्यम से इस दिशा में प्रयासरत् नजर आते हैं और इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके इन प्रयासों से भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक नई पहचान हासिल हुई है लेकिन हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि इन सत्तर सालों के अंतराल में यह शायद पहली बार है जब हमारा पड़ोसी मुल्क नेपाल हमसे दूर हुआ है और नेपाल में तेजी से बढ़ती दिख रही माओ सेना की गतिविधियां साफ तौर पर यह इशारा कर रही है कि भारत को उसके पड़ोसी मुल्कों के सहयोग से चारों ओर से घेरने की साजिशें तेज हो गयी हैं। आश्चर्य का विषय है कि देश की जनता यह नहीं जानती कि देश की सरकार पर काबिज राजनैतिक विचारधारा की अपनी अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं की रक्षा व सुदूरवर्ती राष्ट्रों के साथ प्रगाढ़ होते बताये जा रहे सम्बंधों को लेकर क्या रणनीति है तथा लगातार विदेश दौरे में रहने वाले प्रधानमंत्री ने इन चार वर्षों के दौरान अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को लेकर क्या उपलब्धियां हासिल की है। यह माना कि देश की रक्षा व सुरक्षा से जुड़े विषयों में बहुत कुछ गोपनीय व संवेदनशील हो सकता है और देश का प्रधानमंत्री या अन्य कोई सरकारी एजेंसी एक राष्ट्राध्यक्ष के विदेश दौरे के बाद सब कुछ खोलकर मीडिया के सामने नहीं रख सकती लेकिन यह भी एक बड़ा सवाल है कि जब सीमा पर होने वाली गोलाबारी व तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक को एक राजनैतिक मुद्दे की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है तो फिर आम आदमी को यह बताने में क्या हर्ज है कि इन चार वर्षों के दौरान विदेशी मुल्कों की अनेकों यात्राएं कर चुके हमारे प्रधानमंत्री ने इन यात्राओं से आम आदमी के हक में क्या हासिल किया है। हालांकि देश की जनता को यह पूरा हक है कि वह अपने चुने गए जनप्रतिनिधियों व उनके द्वारा चलायी जाने वाली सरकार से जवाब-सवाल कर सके और सवाल-जवाब के इस पहलू से संतुष्ट न होने की स्थिति पर सरकार को शक के दायरे में खड़ा किया जा सके लेकिन इधर पिछले कुछ दिनों से लोकतंत्र में एक नया रिवाज चल पड़ा है जिसके तहत सत्ता के शीर्ष पर काबिज राजनेता अपने समर्थकों की मदद से इस तरह के सवालातों को उठाने वाली जनवादी ताकतों को न सिर्फ देशद्रोही साबित कर रहे हैं बल्कि आरटीआई जैसे कानूनों की धार को कुंद कर जनता की सवालिया नजरों से बचने के प्रयास जारी हैं। इन हालातों में अगर हम यह कहें कि अपनी स्थापना के इस 69 वें वर्ष में शुरूवात में भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था या हमारे गणतंत्र ने कुछ नयी रवायतें कायम की हैं तो यह स्वयं को धोखा देने वाली बात होगी और पिछले कुछ वर्षों में सामने आये जातिगत व धार्मिक हिंसा के किस्से हमें मुंह चिढ़ाते हुए यह सवालात पूछने पर मजबूर होंगे कि क्या वाकई यही एक परिपक्व होते लोकतंत्र की निशानी है कि इसका एक सामान्य नागरिक कहीं भी और कभी भी स्वयं को सुरक्षित महसूस न कर सके।

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