आंतकी की मौत पर उपद्रवियों द्वारा सुरक्षा बलों पर की गयी पत्थरबाजी सरकार की असफलाताओं की सूचक छद्म राष्ट्रवाद के शोर और मुल्क के लिऐ जान की बाजी लगा देने के राजनैतिक दावे के साथ कश्मीर में आंतक के खिलाफ संघर्ष एवं धारा 370 को खत्म किये जाने की प्रक्रिया पर मंथन जारी है लेकिन कोई भी राजनैतिक चरित्र या फिर तथाकथित देशभक्त देश की सत्ता पर काबिज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व उनके नुमाइन्दों से यह पूछने को तैयार नही है कश्मीर में किसी भी आंतकी की मौत अथवा अन्य मौको पर सरकार के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों में स्कूली छात्र-छात्राओं की संख्या लगातार बढ़ती हुई क्यों दिख रही है। हमने देखा कि कश्मीर में अबु दुजाना के मारे जाने पर उपद्रवियों ने ठीक बुरहान बानी के मरने पर सुरक्षा बलों पर हुये हमलों की तर्ज पर एक बार फिर सुरक्षा बलों पर पत्थर बाजी की और इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में स्कूली छात्राओं की अहम् भागीदारी रही जबकि पुलिसिया सूत्रों द्वारा बताया जा रहा है कि सार्वजनिक रूप से कम ही नजर आने वाला अबु दुजाना न सिर्फ अपनी अय्याशी को लेकर चर्चाओं में था बल्कि उसने एक क्षेत्र विशेष में लड़कियों का रहना हराम किया हुआ था लेकिन इस सबके बावजूद सुरक्षा बलों के साथ हुई मुठभेड़ में इस दुंर्दात आंतकी को मिली मौत के विरोध में स्कूली छात्राओं व नकाब के पीछे छिपी महिलाओं का सड़कों पर उतरना व सुरक्षा बलों पर हमलावर होना सरकार की कार्यशैली पर सवाल खड़े करता है। गौरेतलब है कि जम्मू-कश्मीर में हालिया तौर पर महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री है और मोदी जी के नेतृत्व में केन्द्रीय सत्ता पर काबिज भाजपा यहाँ की गठबंधन सरकार का अहम् हिस्सा है लेकिन इस सबके बावजूद केन्द्र व राज्य सरकार पिछले तीन वर्षों में न तो आंतकी वारदातों में कमी ला पायी है और न ही स्थानीय जनता को मनोवैज्ञानिक रूप से इतना परिपक्व बनाने का प्रयास किया गया है कि वह आंतकियों व आंतकवादी वारदातों का खुलकर विरोध कर सके। हांलाकि नोटबंदी के वक्त केन्द्र की भाजपा सरकार व खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह दावा किया था कि सरकार के इस दांव से आंतकवादियों के हौसले पस्त होंगे और सीमा पार से नकली नोटों की आमद रोककर कश्मीर में अमनोचैंन कायम किया जा सकेगा लेकिन एक छोटे से अन्तराल के बाद इस तरह के तमाम पूर्वानुमान धाराशायी होते नजर आये और सरकारी तंत्र पूरी तरह असहाय दिखा। हो सकता है कि सरकार को इसी रास्ते पर चलकर कश्मीर समस्या को कोई समाधान सूझता हो और कश्मीर के चप्पे-चप्पे पर तैनात सेना के जवानों को बन्दूक का इस्तेमाल न किये जाने के लिये निर्देशित करने के बाद सत्तापक्ष को लगता हो कि वह स्थानीय जनता का दिल जीत लेगें लेकिन हकीकत में इस छुपनछुपी के खेल से कुछ हासिल होने की संभावना नही है। इसलिऐं सरकारी तंत्र को उन कारणों की तलाश करनी चाहिऐं जो जनसामान्य को आंतकियों के प्रति संवेदनाऐं रखने या फिर इन्हें सड़कों पर जाहिर करने के लिऐ मजबूर कर रहे है। हमने देखा कि कश्मीर से बेदखल कर दिये गये कश्मीरी पंडितों की घर वापसी की प्रबल इच्छाओं के बावजूद सरकारी तंत्र इस परिपेक्ष्य में गंभीर नही है और आंतकवादी वारदातों से सुरक्षित बचने के लिऐ सरकारी खर्च पर नई कालोनियाँ व रिहायशी इलाके बनाने की योजना को सरकार ने ठण्डे बस्ते में डाल दिया है। स्थानीय बेरोजगार, नौजवान व युवतियाँ रोजगार के संसाधनों के आभाव में दिहाड़ी मजदूरों की तरह सुरक्षा बलों पर पत्थर बाजी कर एक अलग तरह की सुरक्षा दीवार खड़ी करने का काम कर रहे है और स्थानीय नेता व सरकार के प्रतिनिधि अपने प्राणों की फिक्र के साथ चुप्पी ओड़े हुऐ है जिसके चलते आंतक को शह देने वाली विचारधारा की तमाम मुश्किलें स्वंय ही कम होती दिख रही है। हम यह कह सकते है कि भारत-पाक बंटवारें के बाद कश्मीर के भारत में विलय को लेकर पैदा हुई स्थितियों के मद्देनजर पैदा किया गया कश्मीर का मुद्दा अब धीरे-धीरे धर्म आधारित होकर रह गया है और कश्मीर से बेदखल किये गये कश्मीरी पंडितों व तमाम अन्य जाति के लोगों के असंगठित हालत में देशभर में छितरा जाने के बाद समुचे कश्मीरी इलाके को कुछ खास लोगों की जागीर समझ रहे नेता वास्तव में इस समस्या का समाधान ही नही चाहते। सरकारी तंत्र ने यह मानकर चलना चाहिऐं कि अगर कश्मीर समस्या का कोई भी वाजिब समाधान निकालना है तो उसके लिऐ कश्मीरी पंडितों की घर वापसी जरूरी है और सेना के हाथ बांध देने या फिर कश्मीरी आवाम से शान्ति व्यवस्था बनाये रखने की अपील के साथ कश्मीरी पंडितों से घर वापसी की उम्मीद करना भी बेमानी है। यह माना कि वर्षो से शरणार्थी कैम्पों में गुजर-बसर कर रहे कश्मीरी पंडितों के पास भी घर वापसी के अलावा कोई चारा नही है और अपनी शिक्षा व पैतृक व्यवसाय के बूते देश के विभिन्न हिस्सों में खुद को स्थापित कर चुके कश्मीरी परिवारों में भी अपने घर, परिवार व पैतृक व्यवसाय को लेकर एक टीस है लेकिन इस सबके बावजूद सरकारी संरक्षण के बिना इनकी घर वापसी आसान नही है। सरकार को चाहिऐं कि वह स्थानीय पुलिस व सुरक्षा बलों का इस्तेमाल हिंसक वारदातों को रोकने के लिऐ करने के अलावा शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के संदर्भ में भी सुरक्षा बलों की जिम्मेदारी तय करें तथा विरोध प्रदर्शन के नाम पर हो रही पत्थरबाजी व अन्य घटनाओं को देखते हुऐ सुरक्षा बलों को माहौल के हिसाब से निर्णय लेने का अधिकार दिया जाय। कश्मीर की राजनैतिक परिस्थितियों को देखते हुऐ यह जरूरी है कि तथाकथित रूप से उदारवादी किन्तु प्रथक कश्मीर के समर्थक नेताओं का छिपा सच, इनकी आर्थिक सम्पन्नता के संसाधन व रोजगार या परिवार को लेकर बरती जाने वाली गोपनीयता को भी सार्वजनिक किया जाय जिससे कश्मीरी आवाम यह अंदाजा लगा सके कि उन्हें आंतक और गुनाह की राह में धकेलकर खुद मौज लेने वाले उनके नेता वास्तव में कश्मीर की आजादी के सिपाही ने होकर पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के टुकड़ों पर पलने वाले गद्दार है। हमारे नेताओं और दिल्ली में बैठकर सरकार चला रहे भाजपाई विचारधारा से जुड़े वरीष्ठ संघ प्रचारकों को यह मानना ही होगा कि कश्मीर समस्या के समाधान का रास्ता कश्मीरी पंडितों की घर वापसी से होकर निकलता है और इस समस्या के सम्पूर्ण निदान के लिऐ धारा 370 को समाप्त किये जाना ही एक मात्र विकल्प है। यह ठीक है कि धारा -370 की समाप्ति कश्मीरी आवाम को मिलने वाले कई विशेषाधिकारों पर रोक लगाती है और इसे एक झटके से समाप्त किये जाने पर जनता के बीच से आंतकियों को मिलने वाली सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ सकती है लेकिन रोजगार के संसाधनों को बढ़ाते हुऐ कश्मीरी आवाम को इस बात के लिऐ तैयार किया जा सकता है कि वह देश व दुनिया के अन्य मुल्कों की बयार को कश्मीर में बहने से रोकने की कोशिश न करें।