उत्तराखण्ड में चुनावी दंगल का दूसरा दौर शुरू, बड़े नेताओ के आगमन की उम्मीद
अपनी रणनीति व चुनाव संचालन क्षमताओं के बूते अकेले भाजपा के हाईटेक प्रचार का सामना कर रहे हरीश रावत ने फिलहाल भाजपा को पीछे छोड़ दिया है और हरीश रावत के रोड शो के दौरान उमड़ने वाली भीड़ का जवाब देने के लिऐ भाजपा के प्रत्याशी हाईकमान की नई रणनीति का इंतजार कर रहे है। यूं तो सात तारीख से शुरू होने वालेू प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उत्तराखंड दौरे से भाजपा को बहुत उम्मीदें है और अन्य केन्द्रीय मंत्रियों के भी ताबड़तोड़ दौरो के कार्यक्रम भाजपा की प्रदेश कार्यकारणी द्वारा जारी किये जा रहे है लेकिन इधर पिछले दो चार दिनो में हरीश रावत द्वारा काशीपुर, जसपुर रामनगर, सितारगंज व किच्छा समेत तराई के तमाम विधानसभा क्षेत्रों में की गयी ताबड़तोड़ बैठको, कार्यकर्ताओं से निजी बैठको और रोड शो का मतदाता पर जो असर दिख रहा है वह बड़ी-बड़ी जनसभाओं या फिर प्रेस वार्ता के जरिये दिये गये संदेशों के माध्यम से दिखना मुश्किल लग रहा है। भाजपा की मुश्किल यह है कि प्रदेश स्तर पर बड़े नेताओं की भीड़ होने के बावजूद गुटबाजी के डर से हाईकमान इन नेताओं का चुनावों में खुलकर उपयोग करने से डर रहा है और चुनावी जीत के बाद मुख्यमंत्री पद के लिऐ कोई दावेदार घोषित न किये जाने के चलते विभिन्न क्षेत्रों में प्रभाव रखने वाले भाजपा के तमाम बड़े नेताओं ने भी खुद को सीमित किया हुआ है जबकि इसके ठीक विपरीत रावतमय हो चुकी कांग्रेस के चुनावी जोश को देखकर ऐसा लग रहा है कि मानो चुनावी टैम्पो बनाये रखने के लिऐ हरीश रावत का तमाम विधानसभा क्षेत्रों में जाकर कार्यकर्ताओं उत्साह बनाये रखना जरूरी हो गया है। टिकट बंटवारे से पूर्व यह माना जा रहा था कि तमाम बड़े नेताओं के कांग्रेस छोड़ने के बाद उनके सहयोगी या निकटस्थ कार्यकर्ता भी चुनाव प्रचार के लिऐ कांग्रेस को छोड़कर भाजपा का झण्डा थाम लेंगे या फिर तमाम क्षेत्रों में उठ रहे कांग्रेस के बगावती सुर निर्दलियो की फौज के रूप में अपनी ही पार्टी के प्रत्याशियों की हार सुनिश्चिित करने का काम करेंगे लेकिन हरीश रावत ने आश्चर्यजनक तरीके से इन बगावती सुरो को ठण्डा करते हुऐ न सिर्फ कांग्रेस के प्रत्याशियों की जीत को सुनिश्चित करने का प्रयास किया है बल्कि अपने परिजनों व संगठनात्मक सहयोेगियों की भी चुनाव लड़ने को लेकर बलवती इच्छा को बिना किसी विरोध के शान्त कर दिया है। नतीजतन काॅग्रेस में एक वर्ष पूर्व आये बगावत के तूफान के बावजूद भी आज काॅग्रेस मजबूती के साथ भाजपा को न सिर्फ टक्कर देती दिख रही है बल्कि हरीश रावत द्वारा किच्छा व हरिद्वार (ग्रामीण) की तराई वाली दो सीटो से एक साथ चुनाव लड़ने के कारण काॅग्रेस के तमाम नेताओ की पूरी सक्रियता सर्वाधिक विधानसभा क्षेत्र वाले इन दो जिलो में स्पष्ट दिख रही है। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि लगभग एक वर्ष पूर्व बजट के दौरान जब काॅग्रेस में बगावत की पटकथा लिखी गयी तो राज्य में लगे राष्ट्रपति शासन व सत्तापक्ष को मिली कानूनी जीत के बाद एक बार फिर बहुमत साबित कर ढर्रे पर आयी हरीश रावत सरकार को जनता का पूरा समर्थन व सांत्वना प्राप्त हुई लेकिन इस एक वर्ष के दौरान इस पूरे घटनाक्रम को जनता भूल चुकी थी और यह मान लिया गया था कि सतपाल महाराज समेत काॅग्रेस खेमे के तमाम बागी विधायक अब भाजपा के ही अंग है तथा वह भाजपा प्रत्याशी के रूप में ही चुनाव मैदान में उतरेंगे लेकिन इधर टिकट बटवारें से ठीक एक दिन पहले भाजपा ने वर्तमान सरकार के मन्त्री व काॅग्रेस के दलित नेता यशपाल आर्या को अपने खेमे में शामिल कर तुरत-फुरत में उनको व उनके पुत्र को भाजपा का प्रत्याशी घोषित किया तो जनता के दिमाग में पिछला घटनाक्रम ताजा हो गया और खुद को भाजपा का कर्मठ व सक्रिय कार्यकर्ता मानने वाले तमाम सम्भावित उम्मीदवारों के प्रति जनता की सहानुभूति जाग उठी। लगभग इसी दौर में भाजपा के रणनीतिकारों ने पं0 नारायण दत्त तिवारी को उनके पुत्र समेत भाजपा में शामिल कर एक गलती और की तथा इस पूरी कहानी के पीछे यह तथ्य सामने आया कि रोहित शेखर तिवारी, तिवारी के कानूनी वारिस बनने के बाद अब उनके राजनैतिक वारिस बनने के लिऐ भी बैचेन है तथा अपने इस नेक इरादे को काॅग्रेस में परवान न चढ़ता देख अब वह बाजरिया भाजपा राजनीति में आना चाहते हैं। इस सम्पूर्ण घटनाक्रम के दौरान भाजपा में ऊपर से नीचे तक कई रंग बदलते दिखाई दिये तथा कार्यकर्ताओं के आक्रोश व जनता के बीच जा रहे सन्देश को देखते हुऐ भाजपा के नेताओ ने पहले धीरे से पं0 नारायण दत्त तिवारी से पल्ला झाड़ा और फिर उनके पुत्र को भी टिकट देने से इनकार किया गया। इस सारी जद्दोजहद में जनता यह समझ गयी कि किसी भी कीमत पर उत्तराखण्ड की सत्ता हासिल करने के लिऐ हाथ-पैर रहे भाजपाईयों को इस प्रदेश की जनता के हित या अहित से कोई लेना देना नही है, वह सिर्फ सरकार बनाने के ऐजेण्डे पर कार्य कर रहे है। इधर हरीश रावत, काॅग्रेस से दूर जा चुके बागियों और मौके पर साथ छोड़ देने वाले दागियों के अलावा मतलबपरस्त नेताओ की घेराबन्दी में रहने के स्थान पर एक नये सिरे से काॅग्रेस को मजबूती देने में जुट गये। एक अभियान की तरह सक्रिय कार्यकर्ताओ के बीच से प्रत्याशियों के चयन के साथ ही साथ यह तय किया गया कि इस बार किसी भी नेता पुत्र या फिर स्थापित नेताओं की अगली पीढ़ी को मैदान में नही उतारा जायेगा। हाॅलाकि इस सारी जद्दोजहद में कई गलतियाॅ भी हुई और खुद काॅग्रेस प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय को सहसपुर से बागी हुऐ आयेन्द्र शर्मा के कारण कड़े मुकाबले में फॅसना पड़ा लेकिन हरीश रावत ने अपने निर्णयो पर पुर्नविचार की कोई गुजांइश नही छोड़ी और हाईकमान व चुनाव रणनीति निर्धारित करने के लिऐ लगाई गयी पीके की टीम ने इस फैसले में हरीश रावत का पूरी तरह साथ दिया। इधर भाजपा एक लम्बे अन्तराल तक अपनी बगावत को सम्भालने की कोशिश में लगी रही तथा अनुभवहीनता के चलते लिये गये कुछ फसलों से उसकी कई महत्वपूर्ण सीटे कड़े मुकाबले में फॅस गयी। हालात यह है कि वर्तमान में भाजपा अपने चुनाव प्रचार के लिऐ पूरी तरह तकनीकी या दिल्ली के नेताओ के भरोसे है और तमाम विधानसभा सीटो पर अपने-अपने प्रचार में पूरी ताकत से जुटे भाजपा के प्रत्याशी हरीश रावत के साथ चल रहे रेले के आगे खुद को बेबस पा रहे है। अब यह तो वक्त ही बतायेगा कि कौन नेता जनता के रूख को मोड़ने में किस हद तक कामयाब होता है तथा जमीनी पकड़ का दावा करने वाले संघ के कार्यकर्ता भाजपा के प्रत्याशियों की किस हद तक मदद कर पाते है लेकिन हाल-फिलहाल तो मोदी का जादू जनता के बीच चलता नही दिख रहा है जबकि हरीश रावत का चुनावी दौरा व रोड शो सामान्य कार्यकर्ता में भी जान फूंकतें हुये उनके कारवां को बढ़ा रहा है।