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Friday, April 26, 2024

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अध्यादेश के विरोध में।

उत्तराखण्ड राज्य के पैरोकारो व राज्य की पहाड़ी जनता के हितो का विरोधी नज़र आता है सरकारी तन्त्र व इस राज्य की तथाकथित जनहितकारी सरकारें।

उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में अवैध बस्तियों को उजड़ने से बचाने के लिऐ सरकार द्वारा लाया गया अध्यादेश अब सत्ता पक्ष के गले की फाॅस बनता जा रहा है और सरकार के इस फैसले के विरोध में लामबन्द होती दिख रही जनता व बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग ने विभिन्न राजनैतिक दलो से जुड़े नेताओ व जनप्रतिनिधियों को मजबूर किया है कि वह दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्रो में रहने वाली जनता की समस्याओं व रोजमर्रा की जरूरतों को मुद्दा बनाते हुऐ सरकार द्वारा आनन-फानन में लिये गये इस फैसले के विरोध में मुखर हो। हाॅलाकि राज्य के मुख्य विपक्षी दल काॅग्रेस ने इस परिपेक्ष्य में जनभावनाओ का ज्वार फूटने से पहले ही एक समयबद्ध कार्यक्रम घोषित कर सरकार द्वारा लाये गये अध्यादेश के विरोध का फैसला सुना दिया था और राजधानी देहरादून से जुड़े काॅग्रेस के कुछ बड़े नेता शक्ति प्रदर्शन वाले अन्दाज़ में अपने समर्थंकों को जुटा राज्यमंत्रीमण्डल द्वारा लिये गये इस निर्णय के विरोध में जुटे हुऐ है लेकिन अगर काॅग्रेस की मांग पर भी गौर किया जाये तो वह पूरे राज्य की जनता की चिन्ता करने के स्थान पर कुछ चुनिन्दा अवैध बस्तियों के नियमितिकरण के पक्ष में दिखाई देती है और इस पूरे मामले में तमाम सामाजिक संगठनो व उत्तराखण्ड राज्य के परिपेक्ष्य में एक पर्वतीय राज्य की अवधारणा रखने वाले जनवादी चिन्तको के कूद पड़ने के बाद इस सम्भावना से इनकार नही किया जा सकता कि न्यायालय द्वारा सुनाये गये एक फैसले पर अमल करने के स्थान पर अपने राजनैतिक लाभ अथवा हानि को मद्देनज़र रखते हुऐ राज्य की वर्तमान सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम फिलहाल सरकार के लिऐ मुश्किलों भरा हो सकता है। यह ठीक है कि राजधानी देहरादून में रिस्पना नदी के बहाव क्षेत्र में अवैध कब्जो के दम पर उग आयी यह तमाम बस्तियाॅ कई नेताओ व विधानसभा क्षेत्रो का गणित बना अथवा बिगाड़ सकती है और एक ही झटके में शहरी क्षेत्र की लाखो की आबादी को उजाड़ दिया जाना अथवा बिना किसी पूर्व चेतावनी के बेघर कर पाना सम्भव भी नही लगता लेकिन यह तथ्य भी काबिलेगौर है कि देहरादून के नक्शे में यह तब्दीली राज्य बनने के बाद ही आयी है और इस बसावट के लिऐं नेताओ व प्रापर्टी डीलरों के नापाक गठजोड़ को ही जिम्मेदार माना जाता है। इस हालत में कोई नेता अथवा जनप्रतिनिधि आम आदमी के हित अथवा गरीबों का उत्पीड़न बचाने के नाम पर जब भी इन अवैध कब्जो को वैधानिक रूप देने की मांग करता है या फिर इनके खिलाफ होने वाली किसी भी तरह की अतिक्रमण हटाने की कार्यवाही का विरोध किया जाता है तो यह माना जाता है कि अपने वोट-बैंक को बचाने के लिऐ कुछ नेता पूरे प्रदेश की जनता के साथ गद्दारी कर रहे है और एक साज़िश के तहत उत्तराखण्ड के विभिन्न जातीय व सामाजिक समीकरणों को बिगाड़ते हुऐ प्रथक पर्वतीय राज्य के रूप में गठित किये गये इस राज्य की निजी पहचान मिटाने की साज़िश की जा रही है। एक वक्त था जब देहरादून समेत राज्य के मैदानी माने जाने वाले इलाकों में इस राज्य के मूल निवासियों से इतर देश के अन्य हिस्सो से आये मतदाताओं की संख्या प्रभावी थी और यह माना जाता था कि क्षेत्रवादी अवधारणा के अनुरूप एक अलग राज्य गठित किये जाने के विरोध में लामबन्द यह तमाम मैदानी क्षेत्र के मतदाता इस नवगठित पर्वतीय राज्य का हिस्सा होने के बावजूद यहाॅ के रीति-रिवाजो व संस्कृति से सहमत नही है लेकिन इन पिछले सत्रह-अठारह वर्षो में पहाड़ो पर तेज़ हुऐ पलायन व देश के अन्य हिस्सो में जा बसे पहाड़ी मूल के आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवारों के इस नवगठित राज्य के मैदानी इलाकों में आ बसने से यह गणित एक बार गड़बड़ाता हुआ दिख रहा है और अगर चुनाव दर चुनाव बदलते दिखने वाले नेताओ व जनप्रतिनिधियों के चेहरो पर गौर करे तो हम यह पाते है कि पहाड़ के नेताओ ने बड़ी ही खामोशी के साथ राज्य के मैदानी इलाको की राजनीति में अपनी दखलदांजी बढ़ाई है तथा नये राजनैतिक समीकरणो की तलाश एवं जल्दी सबकुछ कर गुज़रने के फेर में पहाड़ी मूल के तमाम नेता भी इस शान्त इलाके में अन्य राज्यों से आ बसे अराजक तत्वों के पैरोकार बनकर रह गये है। अगर देखा जाये तो असल गड़बड़ ही यहीं से शुरू हुई है और राज्य गठन के बाद असन्तुलित रूप से बढ़ी आबादी के चलते गड़बड़ाये परीसीमन ने एक सामान्य समझ रखने वाले उत्तराखण्डी को भी यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या उत्तराखण्ड राज्यगठन की लम्बी लड़ाई व सड़को पर किया गया संघर्ष उत्तराखण्ड के उसी स्वरूप के लिऐ था जो वर्तमान में हमारे सामने है लेकिन अफसोसजनक है कि सत्ता की लड़ाई लड़ने के नाम पर राजनैतिक संघर्ष करने वाले तमाम बड़े चेहरे व राज्य की राजनीति पर हावी दिखने वाले राष्ट्रीय राजनैतिक दल हमेशा ही इन तथ्यो व तर्को को नकारते नज़र आते है और किसी भी सरकारी योजना को अमली जामा पहनाने अथवा विकास से जुड़े पहलुओ पर बात करने के लिऐ उन्हे राज्य का मैदानी इलाका ही सबसे मुफीद लगता है जबकि राज्य आन्दोलन के दौरान सक्रिय रही जनवादी ताकतें व दूरस्थ पर्वतीय इलाको से संवेदनात्मक रूप से जुड़ी राज्य की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हमेशा ही यह मानता रहा है कि सत्ता की राजनीति के खेल में चन्द मौका परस्त लोगो ने इस प्रथक पर्वतीय राज्य की अवधारणा को ही बदलकर रख दिया है। मौजूदा दौर में न्यायालय की दखलदांजी के बाद आया अवैध बस्तियों के ध्वस्तीकरण का फैसला तथा इस फैसले की धज्जियाॅ उड़ाते हुऐ राज्य मन्त्रीमण्डल द्वारा इस सम्पूर्ण परिपेक्ष्य में लाया गया अध्यादेश यह साबित करता है कि जनहित पर हावी मतलबपरस्ती के इस दौर में राज्य की राजनीति में ऐसे तमाम लोग सक्रिय है जिनका राज्यहित अथवा इस प्रथक पर्वतीय राज्य के गठन को लेकर सामने रखे गये उद्देश्यों से कुछ भी लेना-देना नही है और न ही किसी गलत अथवा सही संदर्भ में फैसले लेते वक्त सरकारी तन्त्र द्वारा राज्य की जनता के बहुमत अथवा व्यापक दृृष्टिकोण को सामने रखकर कोई फैसला किया जाता है। कितना आश्चर्यजनक है कि राजधानी देहरादून में रिस्पना नदी के तटवर्ती क्षेत्रो के साथ ही साथ तमाम संवेदनशील क्षेत्रो पर ज़बरदस्ती काबिज़ झुग्गी-झोपड़ी अथवा पक्के मकानो के प्रति मानवीय दृष्किोण अपनाने की बात करने वाला राजनैतिक तन्त्र अगले दो-चार चुनावों में अपनी कपोल-कल्पित जीत पक्की करने के लिऐ समस्त राजधानी वासियों को मौत के मुहाने पर खड़ा कर देना चाहता है और ‘‘रिस्पना से श्रृषिपर्णा तक‘‘ जैसे नामो से विशेष अभियान चलाकर एक नदी को पुर्नजीवित करने का दावा करने वाला राज्य का मुख्यमन्त्री अपने कुछ दंबग विधायको के दबाव में आगे बढ़े हुऐ कदम पीछे खींचने को मजबूर दिखाई देता है लेकिन राज्य के पर्वतीय इलाको में लगातार बेघर व बर्बाद हो रहे स्थानीय आबादी के एक बड़े हिस्से की किसी को कोई चिन्ता ही नही है और न ही कोई जनप्रतिनिधि इन विषयों पर पहल करता दिखाई देता है। ‘‘स्मार्ट सिटी व स्वच्छ दून‘‘ जैसे नारो के साथ चलायी जाने वाली विभिन्न सामाजिक मुहिमों के लिये भी भाजपा की वर्तमान सरकार द्वारा लाया गया यह अध्यादेश एक धब्बे की तरह है जिसका सबसे ज्यादा स्याह पक्ष यह है कि एक जनता द्वारा चुनी गई सरकार ने व्यापक जनहित को देखते हुऐ संवेदनशील व दूषित स्थानो पर बसी अवैध बस्तियों को अन्यत्र स्थानातरित करने का फैसला लेने की जगह यथास्थिति कायम रखना ज्यादा मुफीद समझा है और एक बार फिर नियम व कायदें कानून से चलने वालो पर सरकार का तुगलकी फरमान भारी पड़ने की सम्भावना जतायी जा रही है। हांलाकि यह मानने के कई कारण है कि राजधानी देहरादून को स्वच्छ एवं सुरक्षित रखने के लिऐ रिस्पना नदी के तटवर्ती क्षेत्रो पर बसी अवैध बस्तियों व अवैधानिक कब्जो को हटाया जाना निहायत ज़रूरी है और देहरादून की संवेदनशीलता को देखते हुऐ किसी न किसी सरकार ने इस सम्पूर्ण परिपेक्ष्य में कठोर कदम उठाने ही होंगे लेकिन सवाल यह भी है कि इस तरह की अवैध कब्जेदारी अथवा गैर कानूनी खरीद-फरोख्त में मध्यस्थ कीे भूमिका निभाने वाली नेताओं की टोली और नौकरशाहो की फौज पर क्या कार्यवाही की जानी चाहिऐं तथा उत्तराखण्ड राज्य के नवनिर्माण को लेकर संकल्पित नज़र आने वाली नौजवानो की टोली व जनवादी विचारको ने वह कौन से कदम उठाने चाहिऐं जिनसे इस पहाड़ी राज्य की जनता के साथ वास्तविक न्याय हो सकें। यह प्रश्न कुछ संवेदनशील तथा क्षेत्रीय भावनाओ से ओतप्रोत प्रतीत हो सकता है लेकिन अगर एक राज्य के रूप में उत्तराखण्ड के गठन के उद्दश्यों व स्थानीय जनता की जरूरतो की बात प्राथमिकता के साथ की जाये तो यह तमाम विषय स्ंवय ही स्पष्ट हो सकते है।

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