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Tuesday, April 23, 2024

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बम-बम के जयघोष के साथ।

दुरूस्त प्रशासनिक व्यवस्थाओं के बावजूद काॅवड़ यात्रा के अन्तिम दौर के अव्यवस्थित व अराजक होने की सम्भावनाओ से नही किया जा सकता इनकार।

गाय, गंगा और कट्टरवादी हिन्दुत्व की बात करने वाली राजनैतिक विचारधारा के लिये यह उचित अवसर था कि वह आगामी चुनावों को ध्यान में रखते हुऐ कावड़ यात्रा जैसे धार्मिक अवसरों का पूरा उपयोग कर अपने मतदाताओं को एकजुटता व धर्म की रक्षा करते हुए पूरे ज़ोर-शोर के साथ धार्मिक क्रिया-कलापो के संचालन का सन्देश देती लेकिन भारतीय लोकतन्त्र की आत्मा में बसी सर्वधर्म सम्भाव की रणनीति और सरकार में रहते हुऐ कानून व्यवस्था को बनाये रखने की मजबूरी ने दिल्ली, हरियाणा, उत्तरप्रदेश व उत्तराखंड आदि राज्यों के सरकारी तन्त्र को मजबूर किया है कि वह कावड़ यात्रा की आड़ में होने वाली अराजकता पर काबू पाने के लिऐ आगे आये और इस अवसर पर सड़कों में दिखने वाली अनियन्त्रित भीड़ के लिए तमाम तरह के नियम व कायदे-कानूनों को लागू करे।यह कहने में कोई हर्ज नही है कि देश व समाज को एकता के सूत्र में बाॅधने वाले धार्मिक क्रिया-कलापों व स्वतः स्फूर्त ढ़ग से आयोजित होने वाले समाजिक उत्सवों का भारत की लोकतांत्रिक जनता द्वारा हमेशा ही सम्मान किया जाता रहा है और अनेक अवसरों पर यह भी महसूस किया जाता रहा है कि भिन्न-भिन्न विचारधाराओ व धार्मिक गतिविधियों से जुड़े होने के बावजूद हमारे सामाजिक हित व व्यवसायिक गतिविधियाॅ एक-दूसरे के साथ जुड़ी हुई है लेकिन इस सबके बावजूद भी कुछ अवसरों पर सर्तकता तथा अराजकता पर काबू पाना आवश्यक हो जाता है और विभिन्न राज्यों व केन्द्र की सरकार ऐसे अवसरों के लिऐ फौरी तौर पर कुछ नियम बनाते हुऐ व्यवस्थाओं को नियन्त्रित करने का प्रयास भी करती है। इस परिपेक्ष्य में विभिन्न राज्यों की सरकारों ने अपने-अपने स्तर पर कोशिशें शुरू कर दी है और कावड़ यात्रा के इस मेले को निर्भीक गति से निपटाने की लगभग सभी तैयारियाॅ पूरी हो चुकी है। अब देखना यह है कि यह यह तमाम व्यवस्थाऐं किस हद तक कायम रहती है और कावड़ यात्रा के अवसर पर हरिद्वार व श्रृषिकेश जैसे गंगा के बहाव वाले स्थानो की ओर रूख करने वाले कावड़ यात्रियों से किस प्रकार निपटा जाता है।यह मानने के कई कारण है कि अगर कावड़ यात्रा जैसे अवसरों को आयोजित करने में पुलिस प्रशासन के स्थान पर सन्त समाज व पण्डा-पुरोहितों की मदद ली जाती तो सरकार के लिऐ इसके स्वरूप में बदलाव करना और कावड़ यात्रा के इस मेले को ज्यादा सुरक्षित बना पाना आसान होता तथा इस अवसर पर तीर्थनगरी हरिद्वार व अन्य धार्मिक स्थलो की ओर रूख करने वाले करोड़ो काॅवड़ियों की संयुक्त मानव शक्ति का उपयोग कर हम प्राणदायिनी गंगा नदी समेत इन तमाम तीर्थस्थलों की साफ-सफाई व्यवस्था को लेकर भी कई नये आयाम जोड़ सकते थे लेकिन अफ़सोसजनक है कि सरकारी तन्त्र का इस ओर अभी तक ध्यान ही नही गया है और व्यवस्थाओं को बनाये रखने में पूरी ताकत झौकने वाला स्थानीय प्रशासन किसी भी कीमत पर इस यात्रा सीज़न को र्निविघ्न निपटाने की तैयारियों में जुटा हुआ है। कावड़ यात्रियों के लिऐ अलग से पैदल यात्रा पथो के निर्माण एवं स्ंवय सेवकों अथवा श्र्द्धालुओं के सहयोग से उनके रूकने व भोजन आदि की व्यवस्था को सुचारू बनाने के अनेक इन्तज़ामात स्थानीय स्तर पर किये जा रहे है तथा यात्रा मार्ग में किसी भी प्रकार की अनहोनी को टालने के लिऐ इस बार विभिन्न राज्यों की सरकार ने आपसी रजामन्दी से यात्रा मार्ग पर माॅस-मदिरा की दुकानो को बन्द करने व सुलभ शौचालयों के निर्माण आदि के भी तमाम निर्णय लिये है लेकिन यह मूहसूस किया जा रहा है कि प्रतिवर्ष की तरह इस बार भी कावड़ यात्रा के अन्तिम दौर में अव्यवस्थाऐं हावी हो ही जायेगी और डाक-काॅवड़ियों के अपने साज-बाज व पूरे अन्दाज़ के साथ सड़को पर उतरने के बाद हालातो को नियन्त्रण में रखना कठिन होगा। हरिद्वार जिले के स्थानीय प्रशासन ने इन परिस्थितियों का पूर्व आॅकलन करते हुऐ अभी से एक निश्चित अवधि के लिऐ स्कूल-काॅलेज बन्द करने की घोषणा कर दी है और स्थानीय जनता भी इस दौरान होने वाली अव्यवस्थाओं व परेशानी के लिऐ खुद को मानसिक रूप से तैयार कर चुकी है लेकिन इस सबके अलावा काॅवड़ यात्रा के दौरान रोके जाने वाले भारी वाहनो के आवागमन को लेकर हमारे पास कोई विकल्प मौजूद नही है जिसके चलते उत्तराखण्ड के तमाम दूरस्थ क्षेत्रों में आवश्यक एवं जनउपयोगी वस्तुओ की आपूर्ति प्रभावित होना तथा एक निश्चित अन्तराल के लिऐ कृत्रिम मंहगाई का बढ़ना तय माना जा रहा है।कहने का तात्पर्य यह है कि देवभूमि कहलायी जाने वाली उत्तराखण्ड की परम् पावनी नगरी एवं धर्मभीरू जनता के लिऐ काॅवड़ मेले के आयोजन का यह अवसर एक ऐसी समस्या की तरह है जिसका कोई समाधान यहाॅ के प्रशासन अथवा सरकारी व्यवस्था को सूझ नही रहा है और अगर किसी र्दुयोग से इस काॅवड़ यात्रा में अराजक व उपद्रवी तत्व शामिल हो जाते है तो इसका खामियाज़ा भी स्थानीय जनता को ही भुगतना पड़ता है। गंगा को नज़दीक से जानने व समझने की होड़ तथा अपने अराध्य के लिऐ शुद्ध गंगाजल लाने के फेर में हरिद्वार या श्रृषिकेश ही नही बल्कि गौमुख तक पहुॅचने वाली शिवभक्तो की भीड़ द्वारा जाने-अनजाने में फैलाये जाने वाले प्लास्टिक के कचरें के निस्तारण अथवा उसे एकत्र करने के अलावा सरकार के पास कोई उपाय नही है और न ही इस दिशा में कोई प्रयास ही किये जा रहे है लेकिन काॅवड़ यात्रा के दौरान वर्ष दर वर्ष बढ़ती जा रही भोले के भक्तो की संख्या यह इशारा जरूर कर रही है कि अगर यह सबकुछ ऐसे ही चलता रहा तो अराजकता व अव्यवस्था के खिलाफ आमजन का गुस्सा कभी भी ज्वालामुखी बनकर फूट सकता है और आर्थिक दृष्टिकोण से बहुत ज्यादा लाभप्रद न मानी जाने वाली इस काॅवड़ यात्रा को नियन्त्रित करने अथवा इसपर पूर्णतः पाबन्दी लगा दिये जाने की माॅग इस आयोजन से व्यक्तिगत् परेशानी झेलने वाली जनता द्वारा की जा सकती है। हाॅलाकि यह सबकुछ कहने में थोड़ा अटपटा सा जरूर लगता है कि देवभूमि उत्तराखण्ड की धर्मभीरू जनता अथवा धार्मिक आयोजनों व कर्मकाण्ड के बलबूते ही अपनी रोज़ी-रोटी कमाने खाने वाले पण्डा-पुरोहित समाज द्वारा सदियों से चली जा रही काॅवड़ यात्रा के विरोध में सुर बुलन्द किये जा सकते है और प्रशासनिक सहयोग व चुस्त व्यवस्थाओें के बावजूद अन्तिम दौर में अराजक व अव्यवस्थित हो जाने वाली काॅवड़ यात्रा को सुचारू रूप से चलाने के लिऐ इसमें कुछ सुधार व नयें कायदें कानून बनाये जाने की आवश्यकता है लेकिन यह सच है कि इस तरह के तमाम आयोजनों को धार्मिक लहजे के साथ ही साथ पर्यावरणीय लहज़े से देखना भी आवश्यक है और यह तय किया जाना जरूरी है कि काॅवड़ यात्रा के बहाने देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों से हरिद्वार अथवा अन्य पर्वतीय क्षेत्रो की ओर रूख करने वाले यह यात्री पर्यावरणीय दृष्टिकोण से सम्पूर्ण विश्व को एक सन्देश देने में सफल रहे। सुरक्षा के नाम पर हाथो में डण्डे लेकर चलने वाली, छपी-छपायी टी-शर्ट व भगवा नेकर पहनी भोले के भक्तो की टोली जब समावेत रूप से बम-बम के जयकारे लगाते हुऐ किसी भी राष्ट्रीय राजमार्ग अथवा गली-मोहल्ले से गुजरती है तो समुचा वातावरण भक्तिमय मालुम देता है और ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे समाज व धार्मिक प्रारूप में कुछ न कुछ तो ऐसा जरूर है जो हर आमोखास को यह सोचने को मजबूर कर देता है कि इन आयोजनों का अपना एक अलग रहस्य अथवा इनसे होने वाले फायदे-नुकसान की एक अलग ही दुनिया है लेकिन जब यह लाठी र्हिथयार में तब्दील हो जाय और बम-बम के जय घोष की जगह कानफोडू संगीत गूजंने लगे तो फिर किसी भी किस्म के धार्मिक क्रिया-कलाप की उम्मीद समाप्त हो जाती है और ऐसा लगता है कि मानो बिना हैलमेट के तीन सवारी बिठाकर मोटरसाईकिलें दौड़ाने वाले अथवा अपने वस्त्रो व पहनावें की आड़ में सड़क पर चलने वाले आम- यात्रियों से ज़ोर-जबरदस्ती वाले अन्दाज़ में वसूली करने वाले कुछ लोग कानून व व्यवस्था को धता बताकर कुछ और ही सिद्ध करना चाहते है। हमें इस किस्म की अराजकता व क्रियाकलापो से बचना ही होगा और यह तय करना होगा कि काॅवड़ यात्री अपनी यात्रा के लिये निर्धारित मार्गो से इतर मुख्य राष्ट्रीय राजमार्ग की ओर रूख न करे। अपने साथ लाये गये प्लास्टिक के कचरे को पूर्ण रूप से एवं सुरक्षित निस्तारण की जिम्मेदारी भी काॅवड़ यात्रियों पर लागू की जानी चाहिऐ तथा यह तय किया जाना भी जरूरी है कि अपने अराध्य के लिऐ एक कावड़ जल ले जाने के बदले यह भक्तजन गंगा को दी जाने वाली भेट के रूप में क्या अंशदान कर रहे है। जरूरी नही है कि यह अंशदान नकद राशि अथवा आर्थिक सहयोग के रूप में हो इसके स्थान पर गंगा को स्वच्छ व निर्मल बनाये रखने की दिशा में चलाये जा रहे अभियानो में सहभागिता भी अंशदान के रूप में स्वीकार मानी जा सकती है लेकिन काॅवड़ यात्रियों की लगातार बढ़ती जा रही भीड़ को देखते हुऐ अब यह तय करना आवश्यक हो गया है कि इस अपार मानव शक्ति का उपयोग किसी भी तरह से नदी को स्वच्छ बनाये रखने तथा पर्यावरणीय सन्तुलन व साफ-सफाई के उद्देश्यो से भी किया जाये।

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