मोदी सरकार की चारों ओर से घेराबंदी करने की कोशिशों में जुटा विपक्ष।
राष्ट्रपति पद के चुनाव के बहाने सम्पूर्ण विपक्ष को लामबंद करने की कोशिशों में जुटी कांग्रेस किस हद तक सफल हो पायेगी, कहा नही जा सकता और न ही यह गांरटी ली जा सकती है कि वर्तमान में सोनिया गांधी के इर्द-गिर्द जुटते दिखाई दे रहे तमाम क्षेत्रीय दलों के नेता आगामी लोकसभा चुनावों के वक्त राहुल गांधी के नेतृत्व में चुनावी मोर्चे पर उतरने के लिऐ तैयार होंगे लेकिन इस सबके बावजूद कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं व कांग्रेस के प्रति आस्थावान मतदाताओं को विश्वाास है कि राष्ट्रीय राजनीति में अपनी एक अलग धमक रखने वाला यह सबसे पुराना व व्यापक जनाधार वाला दल एक बार फिर देश की जनता का विश्वास जीतने में कामयाब होगा और राष्ट्रीय राजनीति की दिशा में एक बड़ा बदलाव आयेगा। हांलाकि आर्थिक नीतियों व सुधारवादी अर्थव्यवस्था के मामले में देश भाजपा के राज में भी उसी दिशा में चल रहा है जिसका निर्धारण वर्तमान से लगभग दो-ढ़ाई दशक पहले मनमोहन सिंह व नरसिंहाराव की जोड़ी ने कर दिया था और सदन से लेकर सड़क तक सरकार की नीतियों की आलोचना करने वाली भाजपा वर्तमान में ज्यादा त्वरित अंदाज से उन तमाम मुद्दों, समझौतो व मसौदो को निपटाकर कानून का रूप दे रही है जो कांग्रेस सरकार में विपक्ष के विरोध के चलते अधूरे छूट गये थे लेकिन इस सबके बावजूद विपक्ष के एक बड़े हिस्से को केन्द्र में कांग्रेस या फिर गठबंधन सरकार की दरकार है और क्षेत्रीय दलों के नेताओं को यह महसूस होने लगा है कि अपना राजनैतिक वजूद मजबूत करने की टोह में लगे मोदी व उनके तथाकथित भक्त न सिर्फ उन पर चारित्रिक, राजनैतिक व आर्थिक हमला कर रहे है बल्कि अबतक चुनावी सफलता की गांरटी माने जाने वाले जातीय समीकरणों को नेस्तानाबूद कर नये राजनैतिक समीकरण खड़े करने की कोशिशें भी भाजपा के नेताओं द्वारा तेज की जा चुकी है। हालातों के मद्देनजर विपक्षी नेताओ की यह स्वतः स्फूर्त एकजुटता कांग्रेस के लिये फायदें का सौदा हो सकती है और लगातार चुनावी हार का सामना करते हुऐ नेपृथ्य में जा रहे कांग्रेस के नेताओं के लिऐ यह क्षेत्रीय समीकरणों की साझेदारी एक संजीवनी का काम कर सकती है लेकिन सवाल यह है कि इसकी शुरूवात कहा से की जाय और छोटे- छोटे गुटों के रूप में राजनैतिक अस्तित्व रखने वाले तमाम क्षेत्रीय दल अपने प्रभाव क्षेत्र में मतदाताओं को यह कैसे समझाऐं कि भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिऐ उनका कांग्रेस के साथ खड़े होेना मजबूरी है। ऐसी एक कोशिश उ.प्र्र. में की गयी लेकिन मतदाताओं ने अपने चुनावी फैसले में सिर्फ कांग्रेस ही नही बल्कि उ.प्र. की राजनीति में बड़ा प्रभाव रखने वाली सपा और बसपा को नकार दिया। लिहाजा क्षेत्रीय राजनीति के दिग्गज कांग्रेस के साथ खड़ा होने में कुछ अनमना सा भी महसूस कर रहे है और राजनीति के हलकों में यह भी चर्चा हो रही है कि मोदी राज के तुगलकी अंदाज को चुनौती देने के लिऐ एक बार फिर राजनारायण व लोहिया जैसे राष्ट्रव्यापी व्यक्तित्वों को तलाश कर एक नये आन्दोलन को आवाज देनी होगी। देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे सवर्ण व दलितों के बीच संघर्ष तथा किसानों के आन्दोलनों के अलावा विभिन्न जातियों को आरक्षण के दायरे में रखने की हुंकार के साथ चलाये जा रहे तमाम छोटे-बड़े आन्दोलनों की इसी श्रेणी में रखकर सभी सरकार विरोधी तत्वों को एकजुट करते हुऐ मोदी सरकार को चुनौती देने कोशिशें शुरू हो गयी है तथा कुछ लेखकों, बुद्धिजीवियों व तथाकथित पत्रकारों ने मोदी राज के दौरान लिये जा रहे कई फैसलों की तुलना आपातकाल से करते हुऐ केन्द्र की भाजपा सरकार के वर्तमान शासन को लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिऐ घातक माना है। लिहाजा यह कहना या मानकर चलना कि मोदी सरकार के लिऐ आगामी दो वर्षो का कार्यकाल चुनौती भरा नही होगा या फिर आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा को कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों की ओर से चुनौती नही मिलेगी, गलत होगा और पूर्व में आये चुनाव नतीजों या फिर भाजपा के अन्य समर्थकों द्वारा बनाये जा रहे माहौल को देखते हुये किसी भी नतीजे तक पहुंचने की कोेशिश करना एक जल्दबाजी होगी लेकिन सवाल यह भी है कि क्या कांग्रेस का नया नेतृत्व स्थानीय क्षत्रपों की तरह व्यवहार करने वाले कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को एकजुट कर राजनीति में पहले से ही स्थापित क्षेत्रीय दिग्गजों के साथ काम करने के लिऐ राजी कर पायेगा। हमने देखा कि कांग्रेस की बिखरी हुई विरासत को संभालने के लिऐ आगे आये कांग्रेस के तथाकथित युवराज राहुल गांधी को चुनावी मोर्चे पर अथक प्रयासों के बावजूद किसी भी तरह की सफलता नही मिल पायी है और अपनी छवि को एंग्री यंगमेन वाले अंदाज में उभारने या फिर खुद को गरीबों व मजलूमों का मसीहा साबित करने के चक्कर में सोशल मीडिया पर हावी मोदी भक्तों द्वारा उन्हें पप्पू के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा है। यह ठीक है कि राहुल गांधी के लिऐ पप्पू शब्द का पहले पहल इस्तेमाल आम आदमी पार्टी के कुमार विश्वास द्वारा किया गया था और उस वक्त राहुल गांधी पूरी तरह से राजनीति के खिलाड़ी भी नही कहे जा सकते थे लेकिन जल्द ही इस दो अक्षर के शब्द को भाजपाई ले उड़े और पप्पू को राजनीतिक अनाड़ी की पहचान के रूप में राहुल गांधी के लिऐ इस्तेमाल किया जाने लगा। मजे की बात यह है कि यह अकेले राहुल या किसी एक नेता का किस्सा नही है बल्कि भाजपा व संघ के लोगों ने विपक्ष के नेताओं के चरित्र हनन व उन्हें बदनाम करने के तमाम तरीके ढ़ूढ़ रखे है और मनगणन्त किस्से कहानियों के चलते जनता के एक बड़े हिस्से को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की जा रही है कि भारत के तख्तोताज पर काबिज होने के लिऐ तमाम मुस्लिम बदले हुये नाम व अंदाज के साथ जनता के बीच आते रहे है । हांलाकि यह कहना मुश्किल है कि धर्म और जाति की बुनियाद पर खड़ी भारत की राजनीति में विकास का मुद्दा किस हद तक चुनावों पर हावी होगा तथा अपनी बातों को सधे हुये अंदाज में जनता के बीच रखने में माहिर नरेन्द्र मोदी को चुनावी शिकस्त देने के लिऐ विपक्ष किस चेहरे पर अपना दांव लगायेगा लेकिन इतना तय है कि आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर अपनी रणनीति तय कर चुकी भाजपा विपक्ष को उसके ही दांव से चित करने की कोशिशें जारी रखेगी और कोई बड़ी बात नही है कि चुनावों की तारीखों के ऐलान से ठीक पहले एक बार फिर तमाम विपक्षी दलों के नेता भाजपा में शामिल होने के लिऐ दौड़ लगाते दिखे।