समुचे उत्तराखंड में पानी को लेकर हाहाकार लेकिन सरकारी तंत्र समस्या का समाधान ढ़ूंढ़ने में नाकाम। देश और दुनिया के लिऐ आस्था एवं विश्वास की प्रतीक गंगा समेत तमाम नदियों के उद्गम प्रदेश उत्तराखंड के अधिकतम् हिस्सों में पानी को लेकर हाहाकार मचा हुआ है और प्राकृतिक रूप से बने जल के कई श्रोत सूख जाने के कारण मानव ही नही बल्कि वन्य जीवों के बीच भी त्राहि-त्राहि का माहौल है। हांलाकि देश और दुनिया में पेयजल की हो रही कमी को लेकर पूर्व से ही जागरूकता के विभिन्न अभियान चलाये जा रहे है और वैज्ञानिकों व मानव जीवनोपयोगी जल की हो रही लगातार कमी को लेकर चिन्तित सामाजिक विचारकों का मानना है कि अगले विश्व युद्ध में मानवोपयोगी जल व उनके श्रोत विभिन्न देशों के बीच युद्ध का मुद्दा होंगे लेकिन इस सबके बावजूद हम अपने प्रदेश के प्राकृतिक जल श्रोतो को लेकर संजीदा नही है। लगातार कट रहे जंगलों तथा आधुनिक विकास के चलते बनने वाली सड़कों की भेंट चढ़े प्राकृतिक जल के तमाम श्रोत जहाँ एक ओर ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों के लिऐ पेयजल का संकट पैदा कर रहे है वहीं दूसरी ओर पर्यटन के नाम पर प्राकृतिक जल श्रोतों के इर्द-गिर्द बढ़ती जा रही भीड़ इन तमाम जल श्रोतों को न सिर्फ गंदा कर रही है बल्कि मानवीय सभ्यता द्वारा किया जा रहा पाॅलीथीन का बेतहाशा प्रयोग उत्तराखंड के पहाड़ी जन-जीवन व जंगलों के विनाश का एक बड़ा कारण बनता जा रहा है। ऐसा नही है कि सरकार प्रदेश की जनता को पेयजल उपलब्ध कराने के लिऐ प्रयत्नशील नही है या फिर लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी सरकारों को अपनी रियाया की फिक्र ही नही है लेकिन सरकारी मशीनरी की तमाम व्यवस्थाऐं गर्मी का मौसम आते-आते चरमराने लगती है तथा इधर पिछले कुछ वर्षों में घटते दिख रहे भूगर्भीय जल के स्तर के कारण एकाएक ही काम करना बंद कर देने वाले ट्यूबवेल प्रदेश के मैदानी इलाकों में पानी की कमी का एक बड़ा कारण बनते जा रहे है। ठीक इसी प्रकार प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत बनाये गये सीमेन्ट् के टैंक तथा गांव-देहात में बिछाई गयी पाईप लाईन या फिर दिखावे भर को रह गये हैण्डपम्प आम आदमी की परेशानी का किस्सा खुद ही कह देते है। इंजीनियरों व वैज्ञानिक सलाहकारों के लंबे-चैड़े तामझाम के बावजूद सरकारी महकमों द्वारा किया गया भूगर्भीय जल का बेहिसाब दोहन तथा तेजी के साथ सूखते दिख रहे पहाड़ो के नौले, खाले या फिर अन्य प्राकृतिक जल श्रोत यह इशारा कर रहे है कि अगर सरकारी सोच और कार्यशैली का यहीं आलम रहा तो वह दिन दूर नही है जब नदियों का प्रदेश कहे जा सकने वाले उत्तराखंड की जनता के पास पेयजल का कोई भी विकल्प नही बचेगा। कितना आश्चर्यजनक है कि केन्द्र की मोदी सरकार उत्तराखंड के गंगोत्री- यमुनोत्री से होकर बहने वाली गंगा-यमुना के पवित्र जल को देश और दुनिया के विभिन्न हिस्सों तक पहुँचाकर इससे धन कमाने की योजना पर काम कर रही है तथा इन दोनों ही नदियों की सफाई व अविरलता बनाये रखने के नाम पर अभी तक हजारों करोड़ का धन आंबटित कर खर्च करने के अलावा इस नाम पर प्रदेश की जनता व इन नदियों के बहाव वाले क्षेत्रों पर विभिन्न प्रकार की पाबन्दियाँ लगाये जाने की घोषणाऐं लगातार की जा रही है लेकिन नदियों के इस प्रदेश में प्यासे घूमते यहां के स्थानीय निवासियों की चिन्ता किसी को नही है। अगर सरकार चाहती तो उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में बहने वाली तमाम नदियों के जल को उत्तराखंड के विभिन्न शहरी व कस्बाई क्षेत्रों तक पहुँचाकर इस प्रदेश के प्रदेश ग्रामीण क्षेत्र तक पेयजल पहुँचाया जाना सुरक्षित कर सकती थी तथा इस तरह की व्यवस्थाओं के बीच में जंगलों में लगने वाली आग को बुझाने व इन जंगलों में रहने वाले जंगली जानवरों को भी प्यास से बचाने के लिऐ कई तरह के प्रावधानों को रखा जा सकता था लेकिन कमीशनबाजी व क्षेत्रीयता की भंट चढ़े उत्तराखंड सरकार के विभिन्न कामकाजों की तरह ही इस दिशा में भी इस सोलह-सत्रह सालों में कोई प्रगति नहीं हो पायी। सरकारी ख़जाने में पलीता लगा रही प्रदेश की नौकरशाही व प्रदेश की परिस्थितियों व वातावरणीय समस्याओं से अनभिज्ञ तथाकथित रूप से विद्वान योजनाकारों ने इन पिछले दो दशकों में प्रदेश की पेयजल व्यवस्था दुरूस्त करने के के लिये पैसा तो पानी की तरह बहाया लेकिन ‘दर्द बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की‘ वाले अंदाज में सरकारी मशीनरी की लापरवाही व कमीशन के खेल में चलते हालात ‘जस के तस‘ रहे। यह ठीक है कि इन पिछले दो दशकों में उत्तराखंड के शहरी व कस्बाई क्षेत्रों में जनसंख्या दबाव तेजी से बढ़ने के चलते भी इस तरह की समस्याऐं ज्यादा तीव्र रूप से सामने आयी है और अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक व रहन-सहन के तौर-तरीकों को लेकर फ्रिकमंद जनता के दैनिक जीवन में जल का उपयोग भी पहले के मुकाबले बढ़ा है लेकिन इस तथ्य से भी इनकार नही किया जा सकता कि इस परिपेक्ष्य में सरकारी तंत्र द्वारा की जाने वाली लंबी चैड़ी घोषणाओं के बावजूद भी गर्मी के इस मौसम में लगभग हर बार पेयजल की समस्या गंभीर रूप लेती दिखती है और पेयजल की इस कमी व प्राकृतिक श्रोतों के प्रति सरकार की उदासीनता के इस क्रम को गरमी के मौसम में उत्तराखंड के जंगलों में लगने वाली आग तथा गर्मी से हाल-बेहाल जंगली पशुओं द्वारा मानव बस्तियों की ओर किये जाने वाले रूख से सीधे तौर पर जोड़ा जा सकता है। वर्तमान समय की जरूरत है कि इन समस्याओं के निपटने के लिऐ सरकार के आधीन आने वाले तमाम महकमें एक साथ काम करें और सत्ता पक्ष छोटे राजनैतिक स्वार्थो से उपर उठकर उन सभी विषयों पर एक साथ विचार करें जो कि पहाड़ के प्राकृतिक जल श्रोतों के सूखने अथवा विलुप्त होने का प्रमुख कारण है। अगर इन कमियों को दूर करने का अतिशीघ्र प्रयास नही किया गया तो यह निश्चित मानियें कि सदियों से संरक्षित व फली-फूली हमारी यह संस्कृति व सभ्यता एक दिन यूं ही विलुप्त हो जायेगी। हमारी विचारधारा, देवी-देवता और जीवन शैली हमें एक आलौकिक भावना के साथ यहां के जंगलो व प्राकृतिक जल श्रोतो के साथ जोड़ती है तथा हमारी संस्कृति, सभ्यता व धार्मिक रीतिरिवाज इन्हीं प्राकृतिक जल श्रोतों व जंगलों से शुरू होकर इन्हीं के इर्द-गिर्द समाप्त हो जाते है। इन हालातों में हमें सजग हो जाना चाहिऐं क्योंकि अगर हमारे प्राकृतिक जल श्रोत व जंगल ही नही बचेंगे तो फिर हमारा अस्तित्व स्वंय ही समाप्त हो जायेगा।