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Friday, April 26, 2024

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नासमझों की सरकार

गैरसैण को राज्य की स्थायी राजधानी घोषित किए जाने के मुद्दे पर सुलग रहे आन्दोलन के बीच सहारनपुर को उत्तराखंड से मिलाये जाने की चर्चाओं पर बल देकर क्या साबित करना चाहते हैं मुख्यमंत्री?
दून के एक सरकारी अस्पताल में भर्ती उत्तराखंड राज्य आन्दोलनकारी बाबा मथुरा प्रसाद बमराड़ा अपनी जिन्दगी की जंग हार गये जबकि उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दूसरे दौर की शुरूआत के रूप में स्वीकार की जा सकने वाली राजधानी गैरसैण की जंग अभी जारी है। हालांकि एक राज्य आंदोलनकारी की असामयिक मृत्यु का जिक्र करते वक्त राज्य के हालात एवं राज्य में चल रहे तमाम आन्दोलनों का जिक्र करना सामयिक माना जा सकता है और उन्हें अंतिम पुष्पांजली देने के नाम पर जुट रहे तमाम राज्य आन्दोलनकारियों की टीस व दर्द को आसानी से महसूस भी किया जा सकता है लेकिन सवाल यह है कि इन तमाम तथ्यों और तर्कों का सरकार पर क्या प्रभाव पड़ रहा है तथा सत्ता के शीर्ष पदों को सम्भालने के तत्काल बाद शहीद स्थलों की ओर रूख करने वाले व समय-समय पर उन्हें श्रद्धांजलि देने का ढोंग करने वाले नेता राज्य गठन के इन सत्रह सालों बाद कैसा महसूस कर रहे हैं। आश्चर्यजनक है कि आज राज्य के तमाम पहाड़ी हिस्सों में गैरसैण को लेकर राजनैतिक सुगबुगाहट और आन्दोलनात्मक गतिविधियां शुरू हो गयी हैं तथा राज्य के विभिन्न हिस्सों से देश व दुनिया के तमाम कोनों को रूख करने वाले उत्तराखंड के मूल निवासी भी इस तथ्य से सहमत नजर आ रहे हैं कि राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाएं जुटाए बिना यहां पलायन रोकना या फिर इसे पर्वतीय प्रदेश कहा जाना एक बेमानी है लेकिन सत्ता के शीर्ष पर काबिज राजनैतिक विचारधारा और राज्य का मुख्यमंत्री अपनी राजनैतिक दल की हसरतों को पूरा करने के लिए पड़ोसी राज्य के एक बड़े मैदानी क्षेत्र को इस राज्य में मिलाने के पक्ष में बुलन्दी के साथ खड़ा होता दिख रहा है तथा सरकार ने अपने इस कृत्य के माध्यम से अपनी पेंशन व अन्य सुविधाओं की लड़ाई तक सिमटे तथाकथित राज्य आन्दोलनकारियों व उनके संगठनों को एक आईना दिखाने का प्रयास किया है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण लागू किए जाने की व्यवस्था के खिलाफ शुरू हुए छात्रों के आन्दोलन से जब रोजगार व अन्य स्थानीय समस्याओं के विषय जुड़े तो एक वृहद राज्य आन्दोलन खड़ा हुआ तथा इस दौर में तमाम राज्य आंदोलनकारियों व आंदोलन को धार दे रहे विचारकों ने स्पष्ट रूप से यह चिन्ता व्यक्त की कि अगर इस क्षेत्र की संस्कृति, सम्पदा व संसाधनों को सुरक्षित रखने के स्पष्ट उपाय नहीं किए गए तो राज्य के रूप में एक अलग ढांचे के गठन के बावजूद कई विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है लेकिन तत्कालीन व्यवस्था व राज्य गठन को लेकर जल्दबाजी में दिख रही भाजपा ने बिना किसी तैयारी के उत्तराखंड के तमाम पर्वतीय जिलों के साथ उ.प्र. के कुछ मैदानी इलाकों को मिलाकर आनन-फानन के एक नये राज्य का गठन कर दिया तथा जनता के बीच इसका श्रेय लेने के लिए इसका नाम भी जनभावनाओं से अलग जाकर उत्तरांचल कर दिया गया। उत्तरांचल को एक बार फिर उत्तराखंड के रूप में मान्यता दिलाने के लिए सरकारी स्तर पर व आंदोलनकारी संगठनों द्वारा कितने संघर्ष किए गए यह एक अलग चर्चा का विषय है और इस विषय पर भी एक लम्बी बहस की जा सकती है कि अपने राजनैतिक स्वार्थों का ध्यान रखते हुए उत्तराखंड राज्य के गठन व इसकी अस्थायी राजधानी के रूप में देहरादून के चयन के निर्णय के पीछे कौन से कारण प्रभावी थे लेकिन इन तमाम बहसों और तर्कों के बीच इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद यहां बनने वाली तथाकथित रूप से जनप्रिय सरकारों ने इस राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों व राज्य के गठन के उद्देश्यों की पूरी तरह अनदेखी की। शायद यही वजह है कि वर्तमान में राज्य के पर्वतीय क्षेत्र के निवासी तथा खुद को पहाड़ी सरोकारों से जुड़ा मानने वाली जनता का एक बड़ा हिस्सा गैरसैण को राज्य की स्थायी राजधानी बनाये जाने के पक्ष में खड़ा है जबकि सत्ता की राजनीति करने वाले अधिकांश राजनैतिक दल व उनसे जुड़े नेता या जनप्रतिनिधि इस मुद्दे पर कई तरह के किन्तु-परंतु लगाते हुए राष्ट्रीय एकता व राष्ट्रवाद की चासनी लपेटकर उत्तराखंड राज्य गठन की आवश्यकता व इसके पीछे छिपी मूल भावना को ही तहस-नहस करने में जुट गए हैं। यह माना कि केन्द्रीय सत्ता पर काबिज नेताओं ने देश की जनता को इस कदर उलझा रखा है कि जनपक्ष का एक बड़ा हिस्सा वर्तमान में आंदोलन के लिए तैयार नहीं है और किसी भी मुद्दे पर उत्तराखंड राज्य आंदोलन की तर्ज पर व्यापक जनभागीदारी के साथ आंदोलन खड़ा करना व उसे लंबे समय तक चलाये रखना कठिन होता जा रहा है लेकिन इन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद राज्य की स्थायी राजधानी गैरसैण बनाये जाने के मुद्दे पर युवा, महिलाएं और सामाजिक संगठन एकजुट होते नजर आ रहे हैं तथा धीरे-धीरे कर राज्य के विभिन्न हिस्सों में फैलती जा रही गैरसैण को स्थायी राजधानी बनाये जाने की सुगबुगाहट एक बड़े आंदोलन का रूप लेने लगी है। हो सकता है कि सरकारी तंत्र जनपेक्षाओं को अनदेखा करने की नीयत से मीडिया व प्रचार-प्रसार के अन्य संसाधनों पर दबाव डालते हुए इस आंदोलन से जुड़ी खबरों को रोकने का प्रयास करे या फिर सहारनपुर समेत उत्तर-प्रदेश के एक बड़े भूभाग को उत्तराखंड से मिलाये जाने की चर्चाओं को बल देते हुए हमारे नेता व सरकार के मंत्री स्थायी राजधानी के मसले को हाशिये पर धकेलने अथवा आंदोलन को भटकाने का प्रयास करे लेकिन हालात यह इशारा कर रहे हैं कि इस बार जनता की मुहिम बेकार नहीं जाएगी और उत्तराखंड राज्य निर्माण के इन सत्रह-अट्ठारह वर्षों में यह पहला मौका होगा किसी एक मुद्दे पर राज्य आंदोलनकारियों के तमाम संगठन, उत्तराखंड से पलायन कर देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों में रहने के बावजूद भी अपनी संस्कृति व परम्पराओं से जुड़ाव महसूस करने वाले लोग एवं राज्य की स्थानीय जनता किसी एक मुद्दे पर एकमत होकर आंदोलनकारी दृष्टिकोण से आगे बढ़ेगी। यह मुहिम इतनी आसान भी नहीं है और इस तथ्य को भी नहीं नकारा जा सकता कि स्थायी राजधानी के मुद्दे पर खड़े हो रहे उत्तराखंड के इस नवनिर्माण आंदोलन को बाबा बमराड़ा जैसे अनुभवी सलाहकारों व गिर्दा जैसे तमाम ऊर्जावान सहयोगियों की आवश्यकता तो है ही साथ ही साथ इस आंदोलन में स्थानीय जनता की भागीदारी बढ़ाने के लिए क्षेत्रीय स्तर पर छोटी-छोटी कमेटियों का गठन करते हुए स्थानीय समस्याओं को मांग पत्र के साथ जोड़ा जाना व शराब के विरोध जैसे ज्वलंतशील मुद्दों को इसी मंच से उठाया जाना भी आवश्यक है लेकिन सत्ता की राजनीति करने वाले लगभग सभी राजनैतिक दल व उनसे जुड़े तमाम छोटे-बड़े चेहरे ऐसा होने नहीं देंगे क्योंकि राजधानी की मांग के साथ इस तरह के तमाम मुद्दे जुड़ने से स्थानीय स्तर पर नया नेतृत्व उभरने व राजनीति के मैदान में नेताओं की एक नयी खेप आने की संभावनाएं तत्काल पैदा हो जाएंगी और सत्ता की राजनीति के स्थापित नेता यह कदापि नहीं चाहेंगे कि उन्हें स्थानीय जनता व अपने मतदाताओं से ही चुनौती मिले। इसलिए स्थायी राजधानी के मुद्दे पर अगुवाई के लिए आगे आ रहे सामाजिक संगठनों व युवाओं से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि राजनीति के शातिर खिलाड़ियों व सरकार के खिलाफ किसी भी खुली जंग का ऐलान करने से पूर्व वह अपनी व अपने सहयोगी आंदोलनकारी साथियों की राजनैतिक भूमिका व राजनैतिक कर्मस्थली का भी खुलकर ऐलान करे तथा राजनीति के मैदान में कार्यरत् मतलबपरस्त नेताओं व स्वार्थी जनप्रतिनिधियों को जनता के बीच बेनकाब करने का काम तेजी से शुरू किया जाए। अगर ऐसा हो पाया तो आज गैरसैण राजधानी के मुद्दे पर सकारात्मक पहल करने के साथ ही साथ विभिन्न स्थानीय मुद्दों पर आंदोलन कर रहे भावी पीढ़ी के संघर्षशील युवाओं को बाबा बमराड़ा जैसे तमाम संघर्षशील राज्य आंदोलनकारियों की तरह गुमनामी की जिंदगी और मौत का सामना नहीं करना पड़ेगा।

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