राजनीति की बिसात पर काफी धमाचैकड़ी मचाने के बावजूद अंग्रेजी शराब की दुकानों में बदस्तूर सजी है डेनिस।
शराब माफिया और राजनेताओं के बीच तालमेल का खेल नया नही है और न ही हम इस तथ्य से इनकार कर सकते है कि शराब के कारोबार व ऐसे ही कुछ दूसरे धंधो की मोटी कमाई को देखते हुऐ इन धंधों के कारोबारी हमेशा ही सत्ता पक्ष व विपक्ष के साथ बेहतर सम्बंध बनाकर चलने की नीति पर विश्वास करते है जिसके चलते सत्ता के इस खेल में एक विशेष तबके का असर हमेशा ही बना रहता है। देश-प्रदेश की सरकारों ने शराब के कारोबार को राजस्व वसूली का मोटा जरिया बनाते हुऐ इसके व्यापार का सरकारीकरण कर इसे वैध रूप दे रखा है और देश के लगभग हर कोने में इसका अवैध व्यापार भी लगातार निर्बाध गति से चलता दिखाई देता है। इसलिऐं हम यहाँ पर राजनीति के खेल में शराब के कारोबारियों के दखल और अपने राजनैतिक फायदे के लिऐ जनभावनाऐं भड़काकर अपना उल्लू सीधा करने के राजनैतिक दलों व शराब कारोबारियों के तौर-तरीकों की विस्तार से चर्चा करेंगे। बात की शुरूवात अपने राज्य उत्तराखंड से करते हुये हम प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में अनावरत या छुटपुट रूप से रहे शराब आन्दोलन पर एक नजर डालते है तो हमारा ध्यान बरबस ही शराब की एक विशेष ब्रांड डेनिस पर अटक कर रह जाता है और यह महसूस होता है कि शराब के सौदागर वाकई में इतने ताकतवर है कि एक कम्पनी विशेष की शराब को प्रोत्साहन दिये जाने के आरोंप पूर्ववर्ती सरकार के मुख्यमंत्री पर लगने व चुनावों के बाद सरकार बदल जाने के बावजूद सरकारी संरक्षण में चल रही शराब की दुकानों में ‘डेनिस‘ की शान बदस्तूर बनी हुई है। कितना आश्चर्यजनक है कि जिस डेनिस को लेकर भाजपा के तमाम छोटे-बड़े नेताओं ने हरीश रावत सरकार की समय-समय पर घेराबंदी की और शराब बिक्री के नाम पर जिस डेनिस ब्रांड को प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाया गया, उस डेनिस का नशा उत्तराखंड सरकार के आबकारी मंत्रालय के सर चढ़कर अभी भी बोल रहा है। नयी सरकार का दावा है कि उसने नयी आबकारी नीति के तहत एफएल -टू की व्यवस्था बदल दी है और अब सभी नामी गिरामी शराब कम्पनियों के गोदाम शहरों में खोला जाना व इनकी उपलब्धता सुनिश्चित किया जाना आसान हो गया है लेकिन हकीकत यह है कि प्रदेश की कुछ दुकानों को छोड़कर शेष सभी में पूरे जोर-शोर के साथ डेनिस को बड़ी हुई दरों पर धड़ल्ले से बेचा जा रहा है तथा आन्दोलन प्रभावित क्षेत्रों में तो डेनिस के अलावा कुछ और उपलब्ध ही नहीं है। हमारे पुराने पत्रकार साथी और तमाम आन्दोलनकारी पृष्ठभूमि के नेता इस तथ्य से भली-भांति अवगत है कि लंबे समय तक उत्तराखंड के कुमाँऊ क्षेत्र को ही अपनी कर्मभूमि बनाने वाले पौन्टी चढ्ढ़ा ने शराब के कारोबार को सफलतापूर्वक अंजाम देकर किस हद तक तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री क्रमशः मुलायम सिंह व मायावती से अपने नजदीकी सम्बन्ध कायम किये हुये थे और सरकार से अपनी इसी नजदीकी का फायदा उठाते हुये उन्होंने किस अंदाज में खनन के कारोबार में महत्वपूर्ण दर्जा रखने वाली गौला नदी पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश की थी। यह तथ्य भी किसी से छुपा नही है कि उत्तराखंड राज्य गठन से पहले और बाद गठित तमाम सरकारों में न सिर्फ चढ्ढ़ा की ‘कम्पनी‘ का डंका बजता था बल्कि सरकारी राजस्व के हिसाब से महत्वपूर्ण समझी जाने वाली आबकारी नीति का हर अंश उसकी इच्छा से ही तैयार किया जाता था। खबर है कि इन दिनों पौन्टी चढ्ढ़ा ‘कम्पनी‘ के रूप में शराब के सबसे बड़े कारोबारी थे और इस कारोबार से जुड़े लगभग हर मामले में उनका दखल सिर्फ उत्तराखंड या उ.प्र. तक ही सीमित नही था बल्कि हिमाचँल, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब समेत अन्य पांच-सात और राज्य भी उनके प्रभाव क्षेत्र मे माने जाते थे। इतने बड़े कारोबार के साथ तमाम नेताओं व अधिकारियों से तालमेल बनाये रखना तथा अपने कार्य क्षेत्र में दखल देने की कोशिश करने वाले नये-पुराने शराब कोरोबारी को काम-धाम छोड़कर भागने के लिये मजबूर कर देना या फिर अपने साथ मिला लेना, इतना आसान नही था। इसलिऐं कम्पनी से जुड़े कुछ नीतिनिर्धारक तत्वों ने शराब बनाने वाली कम्पनियों की बिक्री को प्रभावित करने के लिऐ विभिन्न प्रदेशों की सरकारों की मदद से एक रणनीति तैयार की और विभिन्न शराब निर्माता कम्पनियों का एक अघोषित पूल बनाकर इस पूल से बाहर रहने वाली शराब निर्माता कम्पनियों की निर्मित शराब की बिक्री इन तमाम प्रदेशों में बिना कारण बताये या फिर अघोषित रूप से रोक दी गयी। नतीजतन लगभग सभी बड़ी शराब निर्माता कम्पनियों ने इस पूल मंे एक निश्चित रकम जमा करते हुये शराब के इस कारोबार में पौन्टी का अधिपत्य स्वीकार किया। सुनने में शायद अजीब लगे लेकिन शुरूवाती दौर में दस रूपये प्रति पेटी की दर से अदा की जाने वाली यह पूल की राशि हाॅल-फिलहाल में सौ से एक सौ बीस रूपये के बीच पहुंच चुकी है और पौन्टी के गुजर जाने के बावजूद ‘कम्पनी‘ के कारिन्दे आज भी पूरी ईमानदारी के साथ इस वसूली गयी रकम में से नेताओं, नौकरशाहों व अन्य सरकारी अधिकारियों की हिस्सेदारी अदा करते है जिसके चलते शराब के इस कारोबार में पौन्टी की ‘कम्पनी‘ की धमक आज भी बरकरार है। अब अगर असल मुद्दे अर्थात शराब के इस कारोबार में ‘डेनिस‘ के प्रवेश पर एक नजर डाले तो आपको एक बार फिर फ्लैश-बैक में जाना होगा और प्रमाणिक तथ्यों व सबूतों के आधार पर ‘जोखिम में प्रकाशित पूर्ववर्ती लेखों पर विश्वास करते हुये यह मानना होगा कि उत्तराखंड की राजनीति में हरीश रावत ही एकमात्र वह शख्स रहे जिनका पौन्टी चढ्ढा की ‘कम्पनी ‘ से कभी तालमेल नही बैठा। ऐसा नही है कि हरीश रावत अपने राजनैतिक जीवन के शुरूवाती दौर से ही एक ईमानदार व सद्चरित्र व्यक्ति रहे जिसके चलते सबको अपने मायाजाल में समाहित करने वाली कम्पनी का जादू हरीश रावत पर नही चला बल्कि अगर हम पहाड़ की राजनीति पर गौर करें तो हम पाते है कि हरीश रावत इस क्षेत्र में पहले से स्थापित गोविन्द बल्लभ पंत-केसी पंत, हेमवती नन्दन बहुगुणा-विजय बहुगुणा व नारायण दत्त तिवारी- इन्दिरा हृदयेश जैसी धाराओं से हटकर राजनीति में आये और खुद को राजनीति में जिन्दा रखने के लिऐ उन्होंने न सिर्फ स्थानीय कारोबारियों को संरक्षण देना शुरू किया बल्कि पौन्टी जैसे शराब कारोबारियों के प्रतिद्वन्दियों को राजनैतिक शह देकर खुद के साथ जोड़ा। शायद यही वजह रही कि एक के बाद एक कर लगातार चार लोकसभा चुनाव हारने के बाद हरीश रावत का राजनैतिक कद हमेशा बढ़ता हुआ दिखाई दिया और राज्य गठन के बाद से ही वह मुख्यमंत्री पद के लिऐ ‘कम्पनी‘ विरोधी लाॅबी की पहली पंसद बने रहे। यह ठीक है कि इस अंतराल में हरीश रावत ने अपने राजनैतिक तौर-तरीको व सोच में भी बहुत बदलाव किये और मुख्यमंत्री पद की दावेदारी से कहीं पहले उत्तराखंड के तमाम पर्वतीय व मैदानी इलाकों मे खड़े किये गये उनके कार्यकर्ताओं ने उन्हें राजनैतिक मजबूती दी लेकिन इस सारी दौड़-भाग अथवा राजनैतिक नूराकुश्ती के लिऐ धन जुटाने का जिम्मा चंद लोगो के ही सर था और अपने इस कर्ज को उतारने के लिऐ हरीश रावत की मजबूरी थी कि वह सत्ता संभालते ही सबसे पहले उस पूल को तोड़े जिसे वर्षो पहले पौन्टी चढ्ढा व कम्पनी की शह पर खड़ा किया गया था। पूल के टूटते ही हरीश रावत के निकट मानी जाने वाली शराब लाॅबी ने ठीक-कम्पनी‘ की तर्ज पर उत्तराखंड में बिकने वाली तमाम कम्पनियों की शराब बिक्री पर अघोषित रोक लगाते हुये इस खुले बाजार को डेनिस व कुछ ऐसे ही नये शराब निर्माताओं के नाम कर दिया। नतीजतन ‘डेनिस‘ मार्का शराब हरीश रावत की सरकार बनते ही पूरे जोर-शोर से बाजार में छा गयी या फिर यों कहे कि शराब का डेनिस मार्का हरीश रावत सरकार की पहचान बन गया। हांलाकि इस सारे खेल में ऐसा कुछ नही था जो कि नया हो और न ही कुछ शराब कारोबारियों की इस व्यवसायिक प्रतिद्वन्दिता में वर्षो से अपने सहयोगी व नजदीकी रहे कुछ नौसिखिये लोगो के साथ ‘कम्पनी‘ के विरोध में खड़े हरीश रावत को पूरी तरह गलत कहा जा सकता है लेकिन कम्पनी की आकूत दौलत के आगे एक हरीश रावत अथवा एक प्रदेश की जनता द्वारा चुनी गयी सरकार की क्या बिसात? इसलिऐं इस सारे मामले को कुछ इस तरह प्रस्तुत किया गया कि मानो हरीश रावत सरकार उत्तराखंड में ‘डेनिस‘ के नाम पर जहर ले आया हो जबकि अन्य तमाम शराब कम्पनियाँ अपनी बोतल में भरकर अमृत बेच रही हो। लिहाजा साजिशों का दौर फिर शुरू हुआ और राजनीति के मैदान में हरीश रावत का हमेशा ही विरोध करने वाली एक सशक्त लाॅबी ने ‘कम्पनी‘ द्वारा प्रदत्त आर्थिक सहायता की मदद से सरकार गिराने या हरीश रावत को कुर्सी से हटाने का खेल रचा। नतीजतन उत्तराखंड में पहली बार बगावत का किस्सा सामने आया और ऐसा लगा कि शराब कारोबारियों की इस लड़ाई में ‘कम्पनी‘ ने एक बार फिर अपने सबसे बड़े राजनैतिक विरोधी हरीश रावत को चित कर दिया हो। एक थोड़े से अंतराल के लिऐ ही सही, डेनिस उत्तराखंड की शराब की दुकानों से गायब हो गयी और अन्य ब्रांडों की शराब बदस्तूर दिखाई देने लगी लेकिन यह खुशी ज्यादा दिन तक टिकी न रह सकी और और हरीश रावत ने एक बार फिर बाजरिया न्यायालय सत्ता में वापसी कर ली। इसके बाद विपक्षी दल भाजपा ने किस अंदाज में चुनावी मुहिम चला सत्ता हासिल की या फिर नोटबंदी का इन चुनावों पर किस तरह असर पड़ा, यह एक अलग किस्सा है लेकिन जहाँ तक शराब के कारोबार का मामला है तो हम इस तथ्य को पूरी तरह ठोक-बजा कर कह सकते है कि उत्तराखंड की राजनीति के इतिहास में हरीश रावत वह पहली शख्सियत है जिसने प्रदेश में अपनी समानान्तर सरकार चला रही कम्पनी की सीधे तौर पर चुनौती दी। अब रहा सवाल वर्तमान में उत्तराखंड की बाजारांे में डेनिस की सार्वजनिक तौर पर उपलब्धता का, तो यहाँ पर यह स्वीकारा जाना भी आवश्यक है कि प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत व आबकारी मंत्री प्रकाश पंत वर्तमान तक सीधे तौर पर किसी शराब माफिया या कम्पनी के सम्पर्क में नही है ओर तीन वर्षों तक लगभग लगातार उत्तराखंड के नौजवानों की नशों में शराब का जहर घोल ‘डेनिस‘ ने भी इतना पैसा कमा लिया है कि वह किसी भी स्तर पर अपने फायदें या नुकसान को ध्यान में रखते हुऐ सौदेबाजी कर सकती है। इसलिऐं हाल-फिलहाल डेनिस के लिऐ उत्तराखंड की बाजारों के द्वार खुले हुऐ है। हां यह अलग बात है कि कम्पनी के पूल में शामिल शराब के कारोबारी व निर्माता अपने फायदे व कमाई को ध्यान में रखते हुऐ किसी भी वक्त तख्ता पलट कर सकते है क्योंकि भाजपा के भीतर या फिर बाहर से आये हुये लोगो में कम्पनी के हितेषियों की कोई कमी नही है।