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Friday, April 19, 2024

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चुनौतियों और जिम्मेदारियों के बीच

सीमान्त जिले में कर्ज के बोझ से दबे किसान की आत्महत्या की खबरों ने खड़े किये पहाड़ की आर्थिकी पर सवाल।
उत्तराखंड के एक ग्रामीण इलाकें में कर्ज से परेशान किसान द्वारा की गयी आत्महत्या को राजनीति का नाम देकर नकारा नही जा सकता और न ही यह दावा किया जा सकता है कि इस तरह की अन्य घटनाऐं अब सामने नही आयेंगी। हांलाकि कांग्रेस ने इन मुद्दे को राजनैतिक रंग देने की कोशिश की है और सत्ता पक्ष इसे नकारने में जुटा है लेकिन अगर तथ्यों व प्रमाणों के आधार पर बात करें तो स्थितियाँ जो दिखाई दे रही है वह इससे कहीं ज्यादा खराब है और यह तय है कि अगर हमने इन तमाम घटनाओं को देखने का राजनैतिक नजरियाँ नहीं बदला तो बाजी हाथ से निकल सकती है। यह ठीक है कि पहाड़ में बड़ी जोत का किसान नहीं है और घर-परिवार के कुछ सदस्यों के सरकारी नौकरी या अन्य काम धंधों के कारण, परदेश में रहने के चलते अभी तक उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों ने अर्थिक तंगी को महसूस नही किया गया है लेकिन इधर हालत तेजी से बदले है और सरकार द्वारा थोपी गयी नोटबंदी का असर इस वक्त पहाड़ पर साफ देखा जा सकता है। कुछ मोदी भक्त हमारे इस लेख को सरकार विरोधी मानसिकता से प्रेरित बताकर नकार सकते है लेकिन इस तथ्य को तर्को व सबूतों के आधार पर आसानी से प्रमाणित किया जा सकता है कि केन्द्र सरकार द्वारा देश की जनता पर थोपी गयी नोटबंदी के बाद बेरोजगारी बढ़ी है तथा कई निजी व सरकारी संस्थानों ने अपने खर्चो का बोझ कम करने के लिऐ बहुत बड़ी संख्या में कामगारों को बाहर निकाला है जिसका सीधा असर उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। आज भी संयुक्त परिवार की प्रथा का अनुपालन कर रहे उत्तराखंड के ग्रामीण व पहाड़ी क्षेत्रों के निवासियों में मैदानी इलाकों से कुछ कमा-धमाकर अपने घर परिवार के लिऐ आय का एक हिस्सा पहाड़ भेजने की परम्परा रही है जिसके अनुपालन में प्रतिवर्ष एक ठीक -ठाक धनराशि मनिआॅर्डर व अन्य माध्यमों से प्रतिमाह पहाड़ आती है लेकिन इधर नोटबंदी के कारण बाजार में छायी मंदी और बेरोजगारी के चलते इस धनराशि में तेजी से कमी आयी है और इसके परिणाम पहाड़ों पर धीरे-धीरे कर बन रहे भुखमरी के हालात व किसानों की आत्महत्या के रूप में सामने आने लगे है। यह ठीक है कि पहाड़ों में बड़े किसान नही है और शायद यही वजह भी है कि किसान की आत्महत्या व उससे पूर्व भूखमरी से हुई एक महिला की मौत जैसी दर्दनाक घटनाओं के बावजूद पहाड़ में कही किसान आन्दोलन नही दिखाई दे रहा लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नही है कि उत्तराखंड का किसान खुद को मोहताज व कर्ज के बोझ से दबा महसूस नही कर रहा है बल्कि अगर सही मायने में देखा जाय तो अपनी खेती के लिऐ पूर्ण रूप से आसमानी बारिश पर निर्भर उत्तराखंड का किसान अक्सर ही आसमान से बरसने वाले कहर का शिकार होता रहता है और संकट की इस घड़ी में उसे नाम मात्र का मुआवजा उपलब्ध कराने वाली सरकारी व्यवस्था उसकी व उसकी फसल की जंगली जानवरों से रक्षा करने या फिर उसे किसी भी तरह की अन्य सुविधाऐं देने में नाकामयाब रही है। जहाँ तक उत्पादकता का सवाल है तो पहाड़ के छोटे- छोटे व सीढ़ीनुमा खेतों से प्राप्त होने वाली फसल को गुणवत्ता व उत्पादकता के लिहाज से किसी से कम नही आंका जा सकता लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षो में सरकार द्वारा चलायी जा रही विभिन्न योजनाओं के तहत उत्तराखंड राज्य के विभिन्न सुदूरवर्ती क्षेत्रों में गेहूं व चावल समेत कुछ अन्य खाद्यान्न निशुल्क अथवा बहुत कम दामों में मिलने के चलते स्थानीय स्तर पर किसानों का इन नकदी फसलों के लिऐ मोह कम हुआ है जबकि सरकार पहाड़ों में आसानी से उत्पादित की जा सकने वाली साग-सब्जियों, फलों और फूलों के व्यापार को स्थानीय स्तर पर बाजार उपलब्ध कराने में पूरी तरह असफल रही है। हांलाकि पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने किसानों की इस गंभीर समस्या को समझते हुये पहाड़ की पारम्परिक फसलों, मोटे अनाज व स्थानीय फलों को बाजार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से कुछ महत्वाकांक्षी योजनाऐं लागू की थी लेकिन सरकार बदलते ही इन तमाम योजनाओं का ठण्डे बस्ते में जाना तय दिख रहा है और वर्तमान सरकार द्वारा हाल ही में विधानसभा पटल पर रखा गया बजट भी यह इशारा कर रहा है कि वर्तमान सरकार पहाड़ों की खेती-किसानी या फिर स्थानीय कृषि उत्पादों को लेकर कतई चिन्तित नही हैं । इन हालातों में इन छोटी जोत के किसानों का चिन्तित होना स्वाभाविक है और अगर वर्तमान सरकार सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानो में सस्ता अनाज व चीनी जैसी अन्य महत्वपूर्ण सामग्री को सस्ती दरों पर जन सामान्य को उपलबध न कराये जाने सम्बन्धी अपने फैसले पर पुर्नविचार नही करती तो कोई बहुत बड़ी बात नही है कि आने वाले कल में उत्तराखंड के तमाम पर्वतीय क्षेत्रों में भुखमरी से होने वाली मौतों व किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या के किस्सों में बड़ा इजाफा देखने को मिले। तेजी से बदल रही सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच पहाड़ के ताने-बाने और भाईचारे को नेस्ताबूद करने में सरकार को अथाह राजस्व देने वाली शराब का योगदान भी कम नही है और शायद यहीं वजह है कि आज पहाड़ की महिलाऐं पूरी एकजुटता के साथ शराब बिक्री के विरोध में खड़ी दिखाई दे रही है लेकिन माफिया संस्कृति का पेरोकार सरकारी अमला नही चाहता कि पहाड़ मेें शराब के सेवन पर पाबंदी लगे और गांवो की खुशहाली वापस आये। इसलिऐें स्थानीय स्तर पर शराब की दुकान खोलने के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति तक आसानी के साथ शराब की पहुँच सुनिश्चित करने में जुटी सरकार न सिर्फ शराब कारोबारियों को व्यक्तिगत् सुरक्षा देना व उनके द्वारा खोली जा रही नई दुकानों के आस-पास माहौल खराब न होने देने को अपनी व्यक्तिगत् जिम्मेदार मानकर चल रही है बल्कि कर्ज के बोझ तले किसानों की आत्महत्या या फिर भूख से हुई मौत को पूरी तरह नकारा जा रहा है। इन हालातों में सरकार से किसानों की ऋण माफी की उम्मीद करना या फिर विपरीत परिस्थितियों का सामना कर रहे किसानों को फौर तौर पर कोई राहत दिये जाने में उम्मीद करना भी बेमानी है लेकिन कांग्रेस के कुछ तथाकथित गांधीवादी नेताओं को लगता है कि धरने व उपवास के माध्यम से सरकार का ध्यान इस ओर आकृर्षित कर किसानों के परिवारों को कुछ राहत दिलायी जा सकती है और शायद यहीं वजह है कि कांग्रेस को कुछ नेता इस मुद्दे को सम्पूर्ण राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे किसानों के आन्दोलन तक ले जाने अथवा उससे जोड़ने की बात कर रहे है। यह तो वक्त ही बतायेगा कि इस पहाड़ी राज्य में पहले भुखमरी से हुई महिला की मौत की खबर और अब किसान द्वारा की गयी आत्महत्या स्थानीय स्तर पर राजनीति को किस हद तक प्रभावित करती है लेकिन जैसा कि माहौल दिख रहा है और कर्ज के बोझ तले दबे किसान की आत्महत्या पर जिस तरीके से प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत व सहकारिता राज्य मंत्री धन सिंह रावत ने सामान्य प्रतिक्रिया देते हुये अपने व्यक्तिगत् कर्ज का जिक्र किया है, उसे देखते हुऐ स्थानीय व छोटे किसानों के साथ किसी भी प्रकार की रियायत की उम्मीद नही की जा सकती।

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