मजबूरी की राजनीति | Jokhim Samachar Network

Thursday, May 02, 2024

Select your Top Menu from wp menus

मजबूरी की राजनीति

आपातकाल की बरसी पर।

लगभग चार दशक से ज्यादा वक्त गुज़र जाने के बावजूद आपातकाल की याद आज भी कुछ लोगो के ज़हन में ताज़ा है और देश की सत्ता पर काबिज राजनैतिक विचारधारा इन्ही यादो का सहारा लेकर एक बार फिर काॅग्रेस को राजनैतिक शिकस्त देने के मूड में है। हाॅलाकि वर्तमान सरकार के कामकाज के तौर -तरीके और सरकार के नियन्त्रण में रहकर काम करने वाली विभिन्न इकाईयो को लेकर जनता के अनुभव वर्तमान में भी बहुत अच्छे नही है तथा यह माना जा रहा है कि सत्ता के शीर्ष पर काबिज राजनैतिक नेतृत्व अपने राजनैतिक प्रतिद्वन्दियों को खामोश करने व सरकार के खिलाफ उठने वाले किसी भी तरह के विरोधी सुरो को दबाने के लिऐ साम-दाम-दण्ड-भेद की नीतियों पर काम कर रहा है लेकिन सरकार इन तमाम खामियों व कमजो़रियों से जनता का ध्यान हटाने के लिऐ काॅग्रेस विरोध के एकसूत्रीय नारे के साथ काम कर रही है और आपातकाल की बरसी मनाने के नाम पर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व काॅग्रेस के शीर्ष पर एक ही परिवार के कब्जे़ व पिछले कुछ दशको में हुऐ राजनैतिक भ्रष्टाचार पर चर्चाओ का दौर जा़री रखना चाहता है। यह तथ्य किसी से छिपा नही है कि एक बार फिर मोदी के ही नेतृत्व में चुनाव मैदान में उतरने को तैयारी कर रही भाजपा की यह मजबूरी है कि उसके पास अपनी इस पूर्ण बहुमत सरकार की उपलब्धियों की चर्चा करने के लिऐ कुछ खास नही है और सत्ता की राजनीति में उसके साथ भागीदार रहे तमाम छोटे-बड़े राजनैतिक दल हाल-फिलहाल भाजपा पर दबाब बनाने के लिऐ या फिर सरकार की कमज़ोर राजनैतिक स्थिति जान राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन से दूरी बनाते दिख रहे है लेकिन भाजपाईयों के उत्साह में कोई कमी नही है और यह माना जा रहा है कि उन्हे अपनी रिपोर्टकार्ड से कहीं ज्यादा हिन्दू कार्ड पर भरोसा है। यह ठीक है कि वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष्य में विपक्ष की एकता पर भी कई सवाल खड़े किये जा सकते है और साझा विपक्ष या फिर मुख्य विपक्षी दल के रूप में काॅग्रेस के पास भी वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की तर्ज पर लोकप्रिय चर्चित चेहरा न होना यह इशारा कर रहा है कि आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर भाजपा अश्वस्त हो सकती है लेकिन राजनैतिक विश्लेषक यह मानकर चल रहे है कि भाजपा की रणनीति व कार्यशैली के चलते अपना जनाधार खोता महसूस कर रहे विपक्षी व सत्ता पक्ष के सहयोगी दलो में अन्तिम समय पर सैद्धान्तिक सहमति बन जायेगी और ठीक अटल बिहारी बाजपेयी सरकार के पाॅच वर्ष पूरे होने के बाद हुऐ चुनावांे की तर्ज पर सर्वसहमति से एक सर्वमान्य नेता चुन लिया जायेगा। भाजपा के रणनीतिकार भी यह मानते है कि अगर ऐसा कोई अवसर आता है तो काॅग्रेस अपने राजनैतिक अनुभव व राष्ट्रव्यापी चरित्र के दम पर इस स्थिति में होगी कि चुनावों के वक्त उसे आगे कर मोदी और भाजपा के खिलाफ खड़ा किया जाय।शायद यहीं वजह है कि भाजपा के कार्यकर्ता व एक नियोजित अन्दाज़ में काॅग्रेस व उनके तमाम बड़े नेताओ को लेकर कुछ भी ऊॅट-पटाॅग प्रचार करने में जुटी आईटी विशेषज्ञों की एक बड़ी टीम न सिर्फ राहुल गाॅधी व उनके पूरे परिवार को हर वक्त अपने निशाने पर लिये हुऐ है बल्कि आपातकाल की बरसी जैसे मौको को तलाशकर जनता के बीच यह माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है कि इस राजनैतिक विचारधारा से जुड़े लोगो को देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं पर विश्वास ही नही है। यह माना कि काॅग्रेस ने अपने लम्बे राजनैतिक जीवन में कई गलतियाॅ की है और भारत के लोकतान्त्रिक इतिहास में सिर्फ एक बार लगा अपातकाल इस राजनैतिक विचारधारा के लम्बे अनुभव व सत्ता के शीर्ष पर कब्जे़दारी वाले अध्याय पर एक बदनुमा दाग है लेकिन हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि देश में लगे आपातकाल के दौरान विरोध व लम्बा आन्दोलन करने वाली राजनैतिक ताकतों को जब एक सयंुक्त मोर्चे के रूप में सरकार बनाने का मौका मिला तो वह जनता को संतुष्ट नही कर पायी और एक छोटे से अन्तराल के बाद काॅग्रेस, आपातकाल की जनक मानी जाने वाली इन्दिरा गाॅधी के नेतृत्व में एक बार फिर कहीं ज्यादा स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में वापिस लौटी। अगर राजनैतिक भाषा में कहा जाये तो हम यह मान सकते है कि कई कमियों व कमजोरियों के बावजूद देश की जनता ने यह स्वीकार किया है कि राष्ट्रीय राजनैतिक परिपेक्ष्य में सिर्फ काॅग्रेस ही एक ऐसी विचारधारा है जो न सिर्फ सम्पूर्ण राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाॅधकर रख सकती है बल्कि समय-समय पर परिलक्षित होने वाले जनविरोध से सबक लेते हुऐ सतत् रूप से आत्मसुधार की प्रक्रिया पर भी काम करती रहती है। इसके ठीक विपरीत काॅग्रेस के वैचारिक विरोध के नाम पर सत्ता पर कब्जे़दारी का प्रयास करने करने वाले अथवा इस तरह के प्रयासो में सफल रहने वाले राजनैतिक चरित्रो व दलो ने न सिर्फ सत्ता के शीर्ष पदो को हासिल करने के लिऐ समय-समय पर काॅग्रेस की विचारधारा का अनुपालन व सहयोग किया है र्बिल्क सत्ता को हासिल करने के बाद यह तमाम नेता व राजनैतिक दल उन तमाम फैसलो को लागू करने या उसी दिशा में काम करने को तत्पर दिखे है जिनका वह विपक्ष के रूप में घोर विरोध करते रहे है। भाजपा इससे अछूती नही है और इन चार वर्षो के कार्यकाल में मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार जिस नोटबन्दी अथवा जीएसटी लागू किये जाने को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बताती है, उसका भाजपा द्वारा विपक्ष के रूप में न सिर्फ भरसक विरोध किया गया था बल्कि कई उदाहरणों व सामने दिख रहे नतीजो के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार इस फैसले को सही तरीके से लागू नही कर पायी जिसके चलते आम जनमानस का एक बड़ा हिस्सा आज भी परेशान व बेकार है। इतना ही नही भाजपा के नेता अपने ऐजेण्डे के अनुरूप राममन्दिर के नाम पर मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को एकजुट करने,नाथूराम गोंडसे को महिमामण्डित करने अथवा अपनी सुविधा के हिसाब से देश की आजादी के आन्दोलन से जुड़ी किवदन्तियो व कथाओं में बदलाव कर अपने सिद्धान्तो के अनुरूप नये आर्दश खड़े करने के जितने भी प्रयास कर ले लेकिन तमाम अवसरों पर महात्मा गाॅधी,जवाहरलाल नेहरू र्या इिन्दरा गाॅधी जैसे तमाम काॅग्रेस से जुड़े योद्धाओ व नेताओ को याद करना व उन्हे सम्मान देना उनकी मजबूरी है और मज़े की बात यह है कि चुनावी मौको पर भाजपा का भरोसा दीन दयाल उपाध्याय, डाॅ. हेडगेटवार या फिर अटल बिहारी बाजपेयी जैसे अपने आदर्शों की जगह काॅगे्रस के नेताओ व गाॅधी परिवार पर ही ज्यादा दिखता है तथा किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने की रणनीति को लेकर काम कर रहे भाजपा के नीति निर्धारक अपनी चुनावी जीत सुनिश्चित करने के लिये अपने कार्यकर्ताओ को तवज्जों देने के स्थान पर काॅगे्रस अथवा अन्य दलो से भाजपा में आयें नेताओ व प्रत्याशियों को ही ज्यादा तवज्जो देते दिखते है। क्या यह आश्चर्यजनक नही है कि जनता के बीच से चुनी गयी एक लोकतान्त्रिक सरकार आगामी चुनावों की तैयारी के दृष्टिकोण से राजनीति के मैदान में उतरने के लिऐ जब अपने परो को तोलने की कोशिश करती है तो उसे अपनी उपलब्धियों से कही ज्यादा विपक्ष की खामियों और नाकामियों का भरोसा दिखता है तथा अच्छे दिन लाने के वादे के साथ सत्ता के शीर्ष पर काबिज हुई एक विचारधारा एक बार फिर उग्र हिन्दुत्व का सहारा लेते हुऐ विपक्ष की घेराबन्दी करना शुरू कर देती है लेकिन अपनी इन कोशिशों के बीच उसे विपक्ष के नेताओ के मन्दिर जाने अथवा जनेऊ धारण कर नरम हिन्दूवादी दिखने से भी ऐतराज है और इस ऐतराज को छिपाने या ढ़के-छिपे शब्दों में व्यक्त करने की जगह भाजपा इन तमाम विषयों को चुनावी मुद्दा बनाने की दिशा में प्रयासरत् दिखती है क्योंकि उसके पास उपलब्धियों के रूप में चर्चा के लायक कुछ भी नही है और न ही सरकार यह चाहती है कि जनता के बीच यह चर्चा हो कि इन पिछले चार वर्षो में लगभग चार सौ करोड़ खर्च कर एक सौ सत्तर देशो में घूम चुके हमारे प्रधानमन्त्री ने क्या उपलब्धि हासिल की या फिर मॅहगाई, बेरोज़गारी, बेकारी, महिलाओं के खिलाफ अपराध अथवा किसानों को राहत दिये जाने जैसे तमाम विषयों पर सरकार की क्या कार्ययोजना है। हकीकत यह है कि पिछले आम चुनावों में झूठे वादो के सब्ज़बाग दिखाकर सत्ता के शीर्ष पर काबिज हुई भाजपा कें पास इस वक्त उग्र हिन्दुत्व के अलावा और कोई मुद्दा नही है तथा चुनावी मोर्चे पर जाने के लिऐ आवश्यक मानी जाने वाली मुद्दो की तलाश सत्ता पर काबिज विचारधारा को मजबूर कर रही है कि वह गड़े मुर्दे उखाड़ने वाले अन्दाज़ में घूम फिर कर फिर एक बार आपातकाल समेत काॅगे्रस के शासनकाल की अन्य कमजा़रियों को चर्चा का विषय बनाये और यह कहने में कोई हर्ज नही कि इन चार वर्षाे के कार्यकाल के एक बड़े हिस्से को अपने नियन्त्रण में करने में सफल रही भाजपाई मानसिकता अपने इन प्रयासों में सफल भी दिखती है।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *