तेजी से बदल रही समाज की सोच के बीच बेरोजगारी नही बन पायी मुद्दा
दो पहिया और चार पहिया वाहनों की बिक्री पर प्रदूषण के आधार पर रोक लगाने के न्यायालयी आदेशों के बाद बाजार में एक भूचाल आया और वाहन निर्माता कम्पनियों ने थोड़ी-बहुत छूट के बाद वह सारे वाहन बाजार में खपा दिये जिनकों कि कायदेंनुसार सड़क पर होना ही नही चाहिऐं था। नतीजतन पर्यावरण के संदर्भ में जो असर अगले साल-छः महिने में पड़ता वह न्यायालय की सक्रियता, वाहन निर्माताओं की चालाकी व उपभोक्ता के पर्यावरण जैसी समस्याओं को लेकर बहुत ज्यादा संवेदनशील न होने के कारण एकदम पड़ गया और लगातार बढ़ रहे प्रदूषण को लेकर चिन्तित नजर आ रहे पर्यावरणविदों व चिन्तकों को भी आगामी चर्चाओं के लिऐ एक मुद्दा मिल गया। लेकिन अगर इस सारी कड़ी के बीच हम असली दोषी की तलाश करने निकले तो इस संदर्भ में हमें कई अलग-अलग मत मिल सकते है और केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार बनने के बाद अतिसक्रिय नजर आने वाली भक्तों की टीम के इस जुमले पर गंभीरता से विचार किया जा सकता है कि ‘ठंड के मौसम में बैंको की लाईन में परेशानी महसूस करने वाले लोग ही पैंतीस से चालीस डिग्री तापमान की चिलचिलाती धूप में गाड़िया खरीदने की लाईन में लगे थे।‘ हांलाकि यह एक अधूरा सत्य है और इसे कटाक्ष की तरह सस्ता वाहन खरीदने वालों के लिऐे इस्तेमाल करने वालो की मंशा सारे देशवासियों के प्रति गलत रही हो, ऐसा नही है लेकिन अगर इस जुमले की गंभीरता पर गौर करें तो यह साफ लगता है कि व्यापक जनहित की पेरोकार होने का दावा करने वाली मोदी सरकार ने इस एक जुमले को भक्तों की जुबान पर डालकर अपने उपर लगने वाले कई आरोंपो से बचने की पुख्ता व्यवस्था कर ली है और यह कहने में भी कोई हर्ज नही है कि प्रदूषण, पर्यावरण सामाजिक न्याय व ऐसे ही अन्य तमाम मुद्दों को व्यापक जनहित में संज्ञान लेने वाला न्यायालय भी इस मामले में थोड़ी चूक कर गया। खैर वजह चाहे जो भी रही हो लेकिन यह सच है कि बीएस-4 व बीएस-3 के चक्कर में बाजार में लाखों दो पहिया व चैपहिया वाहन एक साथ आ गये और अब सरकार की मजबूरी है कि वह बिना किसी पूर्व व्यवस्था के इन वाहनों को सुलभ यातायात व समुचित पार्किग की व्यवस्था उपलब्ध कराये लेकिन इस मजबूरी के पीछे भी सरकार का फायदा छुपा है क्योंकि लाखो-लाख वाहनो एक साथ बिकने से जहां सरकार को विभिन्न करो के रूप में कमाई हुई है वही वाहन निर्माता कम्पनियों की भी मूल लागत निकल जाने से उद्योग धंधों के घाटे में जाने की संभावनाऐं कम हुई है। हो सकता है कि इस मौके का फायदा चुनिन्दा ऐसे जरूरतमंदो ने भी उठाया हो जिन्हें वाहन की वाकई जरूरत थी लेकिन इनकी ऊँची कीमतों के कारण वह इन्हें खरीदने का साहस नही उठा पा रहे थे लेकिन अगर इस समुचे परिपेक्ष्य में देखा जाय तो इस मौके का फायदा उठाने वालों में अधिकांश संख्या जरूरतमंदों की नही बल्कि ऐसे शौकिया लोगों की होगी जिनके पास ऐसे खर्चो के लिऐ इफरात से पैसा है और अगर अब इस सम्पूर्ण परिपेक्ष्य को नोटबंदी की नजर से देखे तो हम पाते है कि लगभग दो महिने तक चले नोटबंदी व मंदी के दौर ने उस वक्त भी शौकीन मिजाजों व इफरात से पैसे वाले लोगो को परेशान नही किया बल्कि वहीं लोग परेशान हो लाईन में लगे रहे जो जरूरतमंद थे। कहने का तात्पर्य यह है इन दोनों ही मामलों के अलग-अलग होते हुऐ भी इन दोनों ही नही बल्कि इस तरह के तमाम मामलों में साधन सम्पन्न लोगों को सिर्फ फायदा ही मिलता है जबकि रोज कमाकर खाने वाले गरीब व मजलूम तबके को जलालत ही उठानी पड़ती है और इस बार भी ठीक ऐसा हो रहा है लेकिन अफसोस की बात यह है कि आम मतदाता और उसपर भी देश का युवा वर्ग इन हालातों को लेकर चिन्तित नही है बल्कि वह तो जाने-अनजाने में राजनैतिक दलो व सत्तापक्ष के नेताओं का मोहरा बन सरकारी तंत्र की जिन्दाबाद लगाने में लगा है। कितना आश्चर्यजनक है कि गरीब भारत में बेरोजगारी कोई मुद्दा नही है और न ही किसी मौके पर इस विषय को चर्चा के काबिल समझा जा रहा है जबकि हकीकत यह है कि युवाओं के लिऐ रोजगार के अवसर पैदा करने की बात करने वाली हर सरकार चुनाव दर चुनाव सरकारी कर्मचारियों की संख्या कम करने की जुगत भिड़ा रही है और युवाओं को काम धंधे के लिऐ उत्प्रेरित करने की जगह उन्हें बेफिजूल के ऐेसे कामों में लगाया जा रहा है जिनका हासिल कुछ भी नही है। हिन्दू राष्ट्र का नारा देकर या फिर मन्दिर और मस्जिद विवाद छेड़कर वोटो की फसल काटने वाले नेता एक चुनाव जीतने के बाद दूसरे चुनाव की तैयारी में जुटते हुऐ युवाओं की फौज का सत्ता हासिल करने के लिऐ बेहतरीन इस्तेमाल कर रहे है तथा सूचना संचार के विभिन्न माध्यमों को उपयोग कर देश की जनता को यह बताने की कोशिश भी की जा रही है कि उनकी किन-किन गलतियों या लालच के चलते यह देश विश्व स्तरीय मुकाबले मंे पिछड़ रहा है लेकिन युवा होते भारत की समुची ताकत का इस्तेमाल कर इस राष्ट्र को विश्वशक्ति बनाने की किसी भी योजना पर काम नही हो रहा और न ही सरकारी तंत्र अपने आधीन आने वाली नौकरियों में युवाओं को मौका देने का पक्षधर दिखता है। कितना आश्चर्यजनक है कि अपने दैनिक भत्ते व वेतन बढ़ाने के मामले में एकजुटता से पेश आने वाले तमाम सांसद और विधायक वरीष्ठ नौकरशाहों व पुराने कर्मचारियों को बेहतर सुविधाऐं व लाभ देने के लिऐ वेतन आयोग के माध्यम से इस वर्ग की जरूरतें पूरा करते है लेकिन बेरोजगारों की जरूरतों को लेकर किसी भी तरह के आयोग या कमेटी का विचार सरकार के दिमाग में नही आता बल्कि खाली पडे़ सरकारी पदो को भरने के लिऐ वेतन आदि मद में बचत किये जाने के नाम पर सरकारी विभागों में ठेका श्रमिक, संविदा कर्मचारी या फिर अंशकालिक श्रमिक जैसे नामो से युवाओं का शोषण किया जा रहा है। यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि बेरोजगारों के इस देश में आरक्षण को लेकर बहस व मारपीट तो है लेकिन बेरोजगार को रोजगार दिया जाना कोई चुनावी मुद्दा नही है। हालातों के मद्देनजर हम यह कह सकते है कि देश की युवा पीढ़ी हाल-फिलहाल तो जुमलेबाजी का शिकार हो सरकारी तंत्र की जिन्दाबाद व नमो-नमों का नारा लगाने में जुटी है और उसे देश के प्रधानमंत्री के हर कदम के पीछे एक महान सोच छुपी नजर आ रही है लेकिन हालात जब हाथ से बाहर निकलने लगेंगे और बेरोजगारी की आंच मध्यम वर्ग के परिवारों तक पहुंचने लग जायेगी तो स्थिति क्या होगी, कहा नही जा सकता।