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Thursday, May 02, 2024

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एक बड़ा सवाल

पूरे लावा-लश्कर के साथ गैरसैण जाने को तैयार बैठे सरकार बहादुर क्या इसे स्थायी अथवा ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की हिम्मत जुटा पाएंगे?
उत्तराखंड की जनता को एक बार फिर गैरसैण के भारी-भरकम सवालों में उलझाने के लिए सरकार बहादुर अपने पूरे लावा-लश्कर के साथ गैरसैण प्रवास का इरादा बनाते नजर आ रहे हैं और इस प्रवास को विधानसभा का शीतकालीन सत्र नाम दिया गया है लेकिन इस सत्र के दौरान पहाड़ और पहाड़ी अस्मिता से जुड़े किन मुद्दों पर चर्चा होगी या फिर अपने नौ माह के कार्यकाल के दौरान किए गए प्रयासों व उपलब्धियों को लेकर साहब बहादुर किस तरह के प्रमाण प्रस्तुत करेंगे, इस बारे में अभी कोई खबर नहीं है और न ही यह पता चल पाया है कि दिसम्बर की इस कड़कड़ाती ठंड के बीच पहाड़ की सैर के पीछे छिपे सरकार के निहितार्थ क्या हैं। कुछ लोगों का मानना है कि सरकार विपक्ष समेत जब-तब आंदोलन का हल्ला मचाने वाले तमाम क्षेत्रीय राजनैतिक दलों पर दबाव बनाने के लिए इस बार गैरसैण में ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाए जाने जैसा कुछ शगूफा छोड़ सकती है और उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों की विचारधारा एवं निर्णय के अनुरूप उठाए गए, कहलाये जाने वाले सरकार के इस कदम के बाद स्थानीय जनता के बीच शराब की बिक्री के मुद्दे व अन्य कारणों के चलते पनप रहे विरोध के कुछ कम होने की संभावना भी है लेकिन सवाल यह है कि सरकारी तंत्र में गैरसैण की ओर मची भागमभाग से हासिल क्या होगा। क्या सरकार सभी तरह के विरोध को दरकिनार करते हुए गैरसैण को उत्तराखंड की राजधानी घोषित करने का दम रखती है या फिर सत्ता पक्ष के नेता यह कहने की स्थिति में हैं कि उन्हें पूर्ववर्ती सरकार द्वारा गैरसैण में किए गए खर्च का दर्द है और इसे उपयोग में लाए जाने के उद्देश्य से ही गैरसैण में विधानसभा सत्र आयोजित करने की परम्परा डाली जा रही है। शायद ऐसा कुछ भी नहीं है और न ही सत्तापक्ष गैरसैण को लेकर कोई गंभीर कदम उठाना चाहता है लेकिन सरकार के नीति-निर्धारकों का मानना है कि सरकार के इस कदम के बाद जहां एक ओर स्थानांतरण विधेयक व लोकपाल गठन जैसे मुद्दे इस सत्र के दौरान गंभीरता से नहीं लिए जाएंगे, वहीं दूसरी ओर सरकार की निष्क्रियता व असफलताओं की ओर ध्यान इंगित करने वाले कर्मचारी व अन्य वर्गों के आंदोलनकारियों की पहुंच भी गैरसैण तक न होने के चलते सब कुछ ठीक-ठाक व आराम से निपट जाएगा। हो सकता है कि सरकार बहादुर का मानना सही हो और अपने इस अंदाज से स्थायी राजधानी व गैरसैण के जिन्न को एक बार फिर बाहर निकाल वह राज्य की जनता का ध्यान ज्वलंत मुद्दों व समस्याओं से हटाने की कोई कामयाब योजना बना रहे हों लेकिन यह तय है कि इस तरह की तकनीक लगातार पांच साल काम नहीं कर सकती और न ही जनता इतनी बेवकूफ है कि वह इस नूराकुश्ती को न समझे। हम देख रहे हैं कि उत्तराखंड की त्रिवेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार सदन में दो-तिहाई से भी अधिक बहुमत प्राप्त होने के बावजूद ठीक तरह से कार्य नहीं कर पा रही क्योंकि उसका अपना कोई विजन या रणनीति नहीं है और न ही प्रदेश पर थोपे गए मुख्यमंत्री इतने ज्यादा सक्रिय हैं कि वह सबको साथ लेकर अपनी केाई नीति बना सकें लेकिन इस सबके बावजूद अगर सरकार गैरसैण का अहम् मुद्दा उठाने की जहमत कर रही है तो इसकी कोई तो वजह होगी और यह वजह क्या है, यह प्रस्तावित विधानसभा सत्र की समाप्ति तक सबकी समझ में आ जाएगा। यह माना कि भाजपा ने अपने हर चुनावी घोषणापत्र में यह स्वीकार किया है कि वह राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों के विकास व स्थायी राजधानी को लेकर संकल्पबद्ध है और उसके हर नेता ने चुनावी मंच से राज्य की पलायन जैसी गंभीरतम् समस्याओं व स्थायी राजधानी के मुद्दे को जरूर उठाया है लेकिन यह मानने का कोई कारण नजर नहीं आता कि कल तक अफसरशाही के इशारे पर काम कर रही भाजपा की सरकार एकाएक ही गैरसैण समेत उत्तराखंड के तमाम पर्वतीय क्षेत्रों पर इतनी मेहरबान कैसे हो गयी है कि इस कड़कड़ाती ठंड में पूरे लावा-लश्कर के साथ गैरसैण प्रस्थान में कोई हर्ज नजर नहीं आता। जहां तक गैरसैण को लेकर सांकेतिक शुरूआत किए जाने की जरूरत है तो यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि पूर्ववर्ती सरकार यह पहल कर चुकी है और भराड़ीसैण में नवनिर्मित विधानसभा भवन समेत तमाम अवस्थापना सुविधाएं इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं कि इस दिशा में गंभीर रूप से काम करने के प्रयास किए गए हैं। ऐसे में अगर सवाल परिपाटी के अनुपालन का है तो सरकार को चाहिए था कि वह पूर्ववर्ती सदन द्वारा लिए गए फैसले का सम्मान करते हुए अपना पहला विधानसभा सत्र या बजट सत्र गैरसैण में आहूत करती लेकिन उस वक्त सरकार बहादुर ने पूर्ण बहुमत के जोश में जनभावनाओं व विपक्ष को कोई तवज्जों नहीं दी और अब बिना किसी इंतजामात व पूर्व तैयारी के एक प्रहसन की तर्ज पर गैरसैण का नाम उवाचते हुए इस तरह की दौड़ को अंजाम दिया जा रहा है। अगर सरकार वाकई में गैरसैण व स्थायी राजधानी के मुद्दे को लेकर चिंतित व संकल्पबद्ध है तो फिर इन पिछले आठ-दस महीनों में उसने गैरसैण को लेकर क्या-क्या तैयारी की है और प्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष समेत शासन तंत्र के कितने अधिकारियों ने गैरसैण के नवनिर्मित भवन को समझने या अन्य परेशानियों को जानने के लिए वहां का दौरा किया है या फिर देहरादून की अस्थायी विधानसभा से कुल कितने कर्मचारियों को उनकी मूल तैनाती पर अर्थात् नवनिर्मित विधानसभा भवन भेजा गया है। इन तमाम प्रश्नों का जवाब शून्य के अलावा और कुछ नहीं है जिससे सिद्ध होता है कि सरकार द्वारा लगाया जा रहा ‘गैरसैण चलो’ का नारा प्रदेश की जनता का ध्यान उसकी मूल समस्याओं से हटाने मात्र के लिए लगाया जा रहा है। इससे कहीं ज्यादा अच्छा होता कि सरकार बहादुर पहाड़ों पर होने वाली बर्फबारी से पहले बर्फबारी वाले क्षेत्रों में राशन व अन्य जरूरी सुविधाएं भिजवाने की पुख्ता व्यवस्था करती और तमाम नौकरशाहों व मंत्रियों या विधायकों के लावा-लश्कर के गैरसैण आने-जाने व वहां रूकने-खाने में होने वाले खर्च को उस स्थानीय व पहाड़ी क्षेत्र की जनता पर खर्च किया जाता तो इन विषम परिस्थितियों में अपना जीवन यापन करते हुए मजबूती के साथ पहाड़ी जिलों व दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में टिकी हुई है। काबिलेगौर है कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौर में गैरसैण को उत्तराखंड राज्य की राजधानी के लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त मानने की प्रमुख वजह यह थी कि यह क्षेत्र न सिर्फ कुमाऊं व गढ़वाल के मध्य था बल्कि अपनी विषम परिस्थितियों व भूगोल के चलते यह इलाका सम्पूर्ण उत्तराखंड का प्रतिनिधित्व भी करता था। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान सक्रिय राजनैतिक व सामाजिक ताकतों ने यह माना कि अगर एक दुर्गम, दूरस्थ एवं विकास की अवधारणा से दूर क्षेत्र राज्य की राजधानी होगा तो बंद कमरों में बैठकर आर्थिक व सामाजिक विकास की योजनाएं बनाने वाले योजनाकार ज्यादा आसानी के साथ यहां की परिस्थितियों से अवगत हो पाएंगे लेकिन यह एक अफसोसजनक सत्य है कि हमारे योजनाकारों, रणनीतिकारों व नीति निर्धारकों के त्रिगुट ने गैरसैण को एक सैरगाह मात्र बनाकर छोड़ दिया और इस सर्द जाड़े के मौसम में यह सिद्ध किया जाना बाकी है कि यहां गर्मी के मौसम में ही नहीं बल्कि जाड़े में भी पिकनिक मनायी जा सकती है। खैर, गैरसैण का क्या होगा या फिर उसे कभी राजधानी अथवा विधानसभा स्थल का दर्जा मिलेगा भी या नहीं, यह सवाल तो फिलहाल भविष्य के गर्भ में कैद है फिलहाल तो हम इस सोच में डूबे हैं कि नेताओं व अधिकारियों की यह जाड़ों की सैर आम आदमी को कितनी भारी पड़ेगी अर्थात् आर्थिक तंगी की ओर जा रहे राज्य पर इस शीतकालीन सत्र से कितना अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और इसके लाभ क्या होंगे?

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