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Sunday, April 28, 2024

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एक बड़ा सवाल

डेरा प्रमुख की गिरफ्तारी के खिलाफ मीडिया के एक हिस्से पर फूटा गुस्सा कितना जायज?
डेरा सच्चा सौदा मामले में सच को जनता के सामने रखने की कोशिश करने वाले पत्रकारों के साथ हुई मारपीट व उनके कैमरों से हुई तोड़-फोड़ के मामलों ने मीडिया कर्मियों की सुरक्षा से जुड़े सवालातों की गंभीरता पर बल दिया है तथा इस सम्पूर्ण घटना ने एक बार फिर मीडिया कर्मियों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि अपनी जान जोखिम में डालकर एकत्र किये गये तथ्यों व सबूतों के बावजूद उनके खबरों के प्रसारण या अंदाजे बयां में ऐसी क्या कमी रह गयी कि जनता उनकी सुरक्षा से जुड़े सवालों पर मीडिया के साथ खड़ी नही दिख रही। हांलाकि तमाम मीडिया संगठनों के अलावा कुछ राजनैतिक दलों द्वारा भी बाबा राम रहीम की न्यायालय में हुई पेशी व सजा सुनाये जाने के दौरान पत्रकारों, विशेषकर इलैक्ट्रानिक मीडिया कर्मियों के साथ हुई हाथापायी व उन्हें खबरों के सीधे प्रसारण से रोकने के प्रयासों की निन्दा की गयी है और देश के कुछ हिस्सों में मीडिया कर्मियों के अलावा जनसामान्य के कुछ संगठनों ने भी इस तमाम घटनाक्रम पर रोष जताया है लेकिन अगर खबरों की गहराईयों में जाये तो बाबा राम-रहीम के भक्तों द्वारा मीडिया पर किये गये इस हमले के लिऐ हमारे देश की मीडिया का बदलता चरित्र भी कम दोषी नहीं है और इस अकेले घटनाक्रम के बाद खोजी पत्रकारिता के पेशावराना अंदाज को अपनाने वाले या फिर सबसे तेज व सबसे पहले के चक्कर में दर्शको को मूर्ख समझ कर उनके सामने कुछ भी प्रस्तुत कर देने वाले मीडिया कर्मियों के समक्ष एक चेतावनी सी खड़ी की है। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि बाबा राम-रहीम के भक्तों की उनके प्रति अथाह आस्था रही होगी और एक लम्बी छानबीन व कानूनी कार्यवाही के बाद उनको मिली सजा या उनपर लगे आरोंपो ने उनके भक्तों का दिल तार-तार कर दिया होगा। ऐसी हालत में अगर कोई आपके मुंह पर कैमरा लगाकर यह सवाल पूछे कि आपको कैसा लग रहा है या फिर इस गिरफ्तारी के विरोध में आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी, तो गुस्सा आना स्वाभाविक है और अगर गुस्से की इस स्वाभाविक प्रतिक्रिया को कुछ हुड़दंगियों का भी साथ मिल जाय तो भीड़ के हिंसाग्रस्त होते देर नही लगती। वैसे मीडियाकर्मी भी इस पूरे मामले में गलत नही थे क्योंकि टीआरपी के फेर में सबसे आगे निकलकर विज्ञापन बाजार पर कब्जा जमाने की चाहत ने उन्हें यह अंदाज अपनाने को मजबूर किया हुआ है और वह जाने-अनजाने में जनता की भावनाओं, आस्था व विश्वास पर हमला करने के आदी हो चुके है लेकिन अधिकांश मामलों में उन्हें जनता की ओर से ऐसा जवाब नही मिलता और शायद यहीं वजह है कि वह अपनी खबरों के अंदाज पर बाबा के भक्तों की ओर से आने वाली प्रतिक्रिया को लेकर सन्न है। यह ठीक है कि विरोध करने वाले पक्ष को कानून अपने हाथ में लेकर पत्रकारों पर हमला करने या फिर तोड़-फोड़ करने का कोई अधिकार नही है और न ही इस किस्म के आक्रोश से बाबा राम-रहीम की कानूनी स्थिति में कोई फर्क आया है लेकिन इस तथ्य से भी इनकार नही किया जा सकता कि वर्तमान में हिंसा व तोड़-फोड़ का शिकार हुऐ मीडिया के इस हिस्से ने मीडिया की आजादी के नाम पर हमेशा ही देश की जनता के अधिकारों पर अतिक्रमण किया है और तर्क व तथ्यों पर आधारित होने वाला मीडिया की बहसों का सिलसिला अब इतना नीचे गिर गया है कि अधिकांश मामलों में सब कुछ पूर्व नियोजित लगता है। हालातों के मद्देनजर यह स्वाभाविक है कि कुछ एक मतलबपरस्त चेहरों को छोड़कर अधिकांश मीडियाकर्मी ‘सच्चाई की तलाश‘ के नाम पर की जा रही लाला की इस नौकरी से आजिज आकर अन्य विकल्पों की तलाश में तेजी के साथ बड़े बेनरों से दूरी बना रहे है और खबरों के मैदान में ऐसे लोगों का कब्जा होता जा रहा है जिनमें अनुभवहीनता के साथ ही साथ सहनशीलता का भी आभाव है। अंधविश्वास को बढ़ाने वाली पटकथाओं, विज्ञापनों अथवा महिमामण्डन के अंलकरण से बाहर निकलकर जब हम यथार्थ की दुनिया का सामना करते है तो हमें अपने ही ढ़ांचे में कई खामियाँ नजर आने लगती है और पत्रकारिता को एक मिशन मान पर्दे के पीछे छिपा सच जनता के सामने लाने को आतुर तमाम जाबाज नौजवानों व अनुभवी कलमकारों ने अपनी जुंबा को दांतो के बीच रखकर इस तथ्य को स्वीकार करना ही पड़ता है कि जो कुछ भी हुआ या जो कुछ भी हो रहा है, वह किसी भी तरह से ठीक नही है। इस सारी कशमकस के बीच यह तथ्य भी किसी से छिपा नही है कि बदले हुऐ अंदाज व मायने के साथ सच्चाई को सामने लाने के मिशन में जुटे नये व नौसिखियें पत्रकार बहुत जल्द यह अनुभव प्राप्त कर लेते है कि रोजी-रोटी की इस जंग को उद्देश्यों या आदर्शो के दायरें में रहकर नही लड़ा जा सकता और न ही किसी चैनल या बड़े मीडिया ग्रुप को चलाना इतना आसान खेल है। इसलिऐं खबरों के इस संसार में एक व्यापारी की तरह उतरते वक्त हमारे खबरनवीसों ने यह सोच लेना चाहिऐ कि प्रतिस्पर्धा की इस बाजार मेें वह किसी भी तरह की विशिष्ट सहुलियत या फिर जनसहयोग की उम्मीद न करें क्योंकि अपने अधिकार व जनता की ओर से मिलने वाले सम्मान को वह बहुत पहले ही विज्ञापन के बाजार में खड़े होकर सरेआम नीलाम कर चुके हैं। यहाँ पर यह जिक्र किया जाना भी आवश्यक है कि बाबा राम-रहीम की गिरफ्तारी अथवा सजा सुनाये जाने के दौरान उनके भक्तों द्वारा कुछ कैमरोमेनों व ओबी वेन पर किया गया हमला वास्तविकता में मीडिया पर हमला नही है बल्कि उस अव्यवस्था के खिलाफ आक्रोश है जो कि पिछले दो दशकों में मीडिया के नाम पर बनायी गयी है। अगर यह वास्तव में मीडिया पर हमला होता तो डेरा सच्चा सौदा के आस-पास व सुनवाई स्थल पर उमड़ी भीड़ ने सबसे पहले उस दैनिक समाचार पत्र समेत उन तमाम छोटे व मझौले समाचार पत्रों को अपना निशाना बनाना था जिन्होंनें बाबा राम-रहीम की काली करतूतों का पर्दापाश करने की न सिर्फ हिम्मत जुटाई बल्कि पिछले लगभग एक दशक से पर्दे के पीछे चल रहे इस घिनौने खेल को बार-बार जनता के सामने लाने की कोशिश की। अगर हालातों व आंकड़ों पर गौर करें तो हम पाते है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद इन तमाम छोटे व मझौले समाचार पत्रों ने न सिर्फ जनता का विश्वास जीता है बल्कि पिछले एक-डेढ़ दशक में इनकी प्रसार संख्या में भी तेजी से बढ़ावा हुआ है लेकिन सरकारी तंत्र अपनी नाकामियों को छुपाने के लिऐ मीडिया के इस हिस्से को खत्म कर देना चाहता है और सरकार द्वारा रची जा रही इस साजिश के खिलाफ हो रही सुगबुगाहट को कहीं जनता का साथ मिल जाने से किसी बड़े आन्दोलन की भूमिका न बनने लगे, इस डर से सरकार व्यापारी मानसिकता के धंधेबाजों को आगे कर मौके का फायदा उठाने की फिराक में दिखती है। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि बाबा राम-रहीम मामले में आक्रोशित भक्तों ने कुछ कैमरामैनों व ओबी वेन से तोड़-फोड़ करने के साथ ही साथ समुचे घटनाक्रम को कैमरें से कैद कर रहे मीडियाकर्मियों को भी अपने निशाने पर लिया और कानून व्यवस्था को अपने हाथों में लेने की इन कोशिशों के वक्त वह यह भूल गये कि उनकी इन हरकतों से बाबा की मुश्किलें बढ़ सकती है लेकिन अगर मीडिया के चरित्र पर भी गौर किया जाय तो वर्तमान हालातों में यह माना जा सकता है कि मीडिया के निशाने पर दिख रहे बाबा राम-रहीम के खिलाफ व्यंग झेलते उन लोगों को बाबा के भक्त बर्दाश्त नही कर पाये जो अपने छोटे-बड़े फायदे के लिये बाबा का महिमामण्डन करने अथवा स्तुतिगान करने में कोई हर्ज नही समझते थे। लिहाजा यह स्पष्ट है कि भक्तों का आक्रोश सम्पूर्ण मीडिया पर नही बल्कि इस तंत्र के उस भ्रष्ट हिस्से पर है जो सरकारी संरक्षण के चलते तेजी से फल-फूल रहा है और किसी भी सरकारी तंत्र के लिऐ यह बर्दाश्त कर पाना नामुमकिन है कि जनता सीधे उसपर हमलावर होने की कोशिश करें। इसलिऐं कानून व न्याय व्यवस्था के रखवालों ने पूरी चालाकी के साथ दो धंधेबाजी के कारिन्दों की इस लड़ाई को मीडिया पर हमले का रूप देकर एक तीर से कई शिकार करने का मन बनाया है।

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