राजनैतिक बदलाव की दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा वर्ष 2017।
कलैण्डर के बदलते पन्नों के हिसाब से नये साल का आना जीवन की एक साधारण प्रक्रिया है और विकास की रफ्तार में तेज भागते जा रहे मानव जीवन में साल दर कई परिवर्तन भी देखने को मिलते हैं लेकिन उत्सवधर्मी समाज इन्हीं परिवर्तनों के बीच कोई अवसर ढूंढकर क्षणिक आनंद प्राप्त करने की कोशिश करता है और इस तरह की कोशिशें कई वादों व नये इरादों को जन्म देती हैं। यह ठीक है कि समाज के लगभग हर हिस्से व धर्म में एक साल की इस अवधि को अलग-अलग तरीके से परिभाषित किया गया है और ऐसे कई समुदाय व धर्म हैं जो इस अंग्रेजी नववर्ष को मान्यता नहीं देते लेकिन सामान्य कामकाज व आम बोलचाल की भाषा में अंग्रेजी तारीखों, महिनों व साल के महत्व को नकारा नहीं जा सकता और न ही यह कल्पना की जा सकती है कि वैश्विक तंत्र द्वारा स्वीकार्य इस परम्परा को अनदेखा कर हम समय के साथ कदमताल करते हुए आगे बढ़ पाएंगे। लिहाजा किसी वर्ष के समाप्त हो जाने या फिर नये वर्ष के प्रारंभ होने के अवसर पर एक क्षणिक अनुभूति का अहसास तो बन ही जाता है और अगर हम नववर्ष के आगमन पर स्वागत करने को उत्सुक नव धनाढ्यों व युवाओं की टोली में शामिल न भी होना चाहें तो इस अवसर पर बीते हुए वर्ष का अवलोकन करने तथा आते हुए वर्ष में कुछ नयी चुनौतियां स्वीकार करने से खुद को नहीं रोक पाते जिस कारण यह अवसर हमारे जीवन में स्वयं ही महत्वपूर्ण बन जाता है। इसलिए कई प्रकार के वाद-विवाद व तर्कों के बावजूद किसी भी वर्ष के प्रारंभ होने अर्थात् नववर्ष के आगमन पर प्रसन्न होने से स्वयं को रोकने के लोभ को हम संवरण नहीं कर पाते और विचारों का एक अंतहीन सिलसिला चल निकलता है। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए अगर हम देश की राजनैतिक परिस्थितियों व सामान्य जनजीवन पर गौर करें तो यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि लगातार व तेजी से बढ़ी महंगाई के चलते हमारे देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा इस पूरे वर्ष त्रस्त दिखा है और किसानों की आत्महत्या, भूख से मौत, अकाल, सूखा व बाढ़ जैसी कई प्राकृतिक आपदाओं के साथ ही साथ देश की आम जनता को अपने इलाज संबंधी कई तरह की व्यवहारिक परेशानियों से जूझना पड़ा है लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि लोकतांत्रिक भारत के एक बड़े हिस्से ने इन तमाम परेशानियों व आपदा के लिए सरकार को जिम्मेदार नहीं माना है बल्कि अगर इस वर्ष सामने आए चुनाव नतीजों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि देश की केन्द्रीय सत्ता पर काबिज भाजपा की लोकप्रियता में इस वर्ष बड़ा इजाफा हुआ है और वह उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य समेत देश के उन्नीस राज्यों की सत्ता पर काबिज होकर एक नया कीर्तिमान स्थापित कर चुकी है। यह ठीक है कि इस वर्ष केन्द्र सरकार द्वारा नोटबंदी व जीएसटी लागू करने संबंधी दो महत्वपूर्ण व बड़े फैसले लिए गए हैं तथा इन फैसलों का प्रभाव जनसामान्य द्वारा अनुभव की जा रही आर्थिक दुश्वारियों के रूप में भी स्पष्ट दिखाई देता है लेकिन यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि तमाम तरह की परेशानियों के बावजूद देश की जनता का विश्वास अपने नेता नरेन्द्र मोदी व उनकी सरकार से डिगा नहीं है और न ही लगातार बढ़ रही महंगाई के खिलाफ कहीं कोई आंदोलन दिखाई दे रहा है। हो सकता है कि विपक्षी विचारधारा से जुड़े लोगों को लगता हो कि देश की मोदी सरकार एक तानाशाही वाले अंदाज में अपना परचम फहराते हुए आगे बढ़ रही है और अपने को सही साबित करने के लिए सरकार द्वारा बेरहमी से जनान्दोलनों को कुचला जा रहा है लेकिन समय-समय पर हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे यह बताते हैं कि एक प्रधानमंत्री के रूप में मोदी का जादू सर चढ़कर बोल रहा है और देश की जनता द्वारा मोदी ब्रांड हिन्दुत्व व राष्ट्रीयता की विचारधारा पर ठप्पा लगाया जा रहा है। दूसरी तरफ विपक्ष नेतृत्वविहीन दिख रहा है और केजरीवाल व राहुल गांधी जैसे बड़े नाम भी बीते वर्ष में कोई कमाल नहीं दिखा पाये हैं। हालांकि इस वर्ष कांग्रेस को एक नया व युवा नेतृत्व राहुल गांधी के रूप में मिला है और अध्यक्ष पद की कुर्सी संभालने से पहले राहुल गांधी ने खुद को गुजरात चुनाव के माध्यम से साबित करने की कोशिश भी की है लेकिन उनके लिए दिल्ली अभी दूर है और देश की जनता का दिल जीतने के लिए कांगे्रस को कार्यकर्ता स्तर पर मजबूती प्रदान करना आवश्यक लगता है। इसके ठीक विपरीत सत्ता पर काबिज भाजपा ने अपना वोट बैंक समझे जाने वाले कट्टर हिन्दूवादी समूहों व बनिया वर्ग के अलावा नरम दिल हिन्दू सम्प्रदायों व अल्पसंख्यकों के कुछ वर्गों को भी अपनी कार्यशैली की ओर आकर्षित करने का प्रयास किया है और यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि केन्द्र सरकार द्वारा तीन तलाक के मुद्दे पर कानून बनाने के संदर्भ में की जा रही तमाम कोशिशों ने मुस्लिम सम्प्रदाय के बीच अछूत समझी जाने वाली भाजपा की स्वीकार्यता बढ़ाई है। अगर साम्प्रदायिक दंगों व आतंकी हमलों के लिहाज से गौर करें तो हम पाते हैं कि भाजपा शासित राज्यों में हिन्दू-मुस्लिम दंगों का शोर इस वर्ष नहीं के बराबर है और कश्मीर के उग्रवाद पीड़ित क्षेत्र को छोड़कर शेष भारत में कहीं कोई बड़ी आतंकी घटना भी सामने नहीं आयी है जबकि नक्सलवादियों के हौसले पस्त होते दिख रहे हैं और गुण्डा व अराजक तत्वों के खिलाफ भाजपा की सरकारें सख्त दिखाई देती हैं। ठीक इसी क्रम में यह कहा जाना भी आवश्यक है कि चुनावी राजनीति में पाकिस्तान को एक दहशतगर्द मुल्क के रूप में बेनकाब करने की भाजपाई रणनीति को जनता ने पसंद किया है और आतंक के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राईक जैसे जुमलों का इस्तेमाल कर भाजपा आम जनता का दिल जीतने में कामयाब रही है। यह ठीक है कि देश के प्रधानमंत्री द्वारा ताबड़तोड़ अंदाज में किए गए विदेश दौरों के आपेक्षित परिणाम सामने नहीं आए हैं और नेपाल जैसे पड़ोसी मुल्कों के साथ भी बेहतर संबंध कायम करने में भारत सरकार नाकामयाब दिखती है लेकिन अतिक्रमणवादी चीन को उसी की भाषा में दिया गया जवाब देश की जनता द्वारा पसंद किया गया है और ऐसा प्रतीत होता है कि पड़ोसी मुल्कों के साथ संबंध व अंतर्राष्ट्रीय स्तर के व्यापारिक समझौतों या अन्य मामलों मंे भारत सरकार के इस रवैय्ये को देश की जनता के एक बड़े हिस्से द्वारा सराहा गया है। हालांकि सरकार लोकपाल को कानूनी रूप देने में असफल रही है और टू जी घोटाले से जुड़े कई बडे़ नामों के न्यायालय से बेदाग छूटने के बाद सरकार में बैठे नेताओं द्वारा पूर्व में उठाए गए सवाल स्वयं संदेह के घेरे में हैं लेकिन विपक्ष जनसामान्य के बीच इन्हें बहस का मुद्दा बनाने में नाकामयाब दिख रहा है (या फिर यह भी हो सकता है कि विपक्ष के नेताओं पर समय-समय पर लगते रहे भ्रष्टाचार के आरोप व इन आरोपों पर चल रही विभिन्न स्तरों की जांच उन्हें इस चुप्पी के लिए मजबूर किए हुए है) और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इन चार वर्षों में सरकार का कोई बड़ा घोटाला सामने न आने की स्थिति में विपक्ष खुद ही इस तरह के सवालों को उठाने से बच रहा है। खैर कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि गुजरते हुए वर्ष 2017 की एक सरसरी निगाह से समीक्षा करने पर हम पाते हैं कि राजनैतिक उथल-पुथल के लिहाज से यह वर्ष भले ही शांत दिख रहा हो लेकिन इस वर्ष में सामने आए कई राज्यों के चुनाव परिणाम भारतीय राजनीति में एक बड़े बदलाव की ओर इशारा कर रहे हैं और यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इस पूरे वर्ष में भाजपा अपने राजनैतिक ग्राफ व चुनावी जीत के सिलसिले को कायम रखने में कामयाब रही है। अब देखना यह है कि सत्तापक्ष इस सिलसिले को कायम रखते हुए चुनावी वर्ष तक ले जाने के लिए क्या-क्या नये कदम उठाता है।