इसे मोदी का जलवा कहें या जादू लेकिन उ0प्र0 व उत्तराखण्ड में नेता सदन के चुनाव को लेकर विधायको के संयमित बयानो में झलक रहा है शिष्टाचार।
उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड के विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत हासिल करने वाली भाजपा में मुख्यमंत्री को लेकर असमंजस अभी बना हुआ है और दावेदारों की बड़ी संख्या को देखते हुऐ यह तय माना जा रहा है कि इस विषय पर फैसला लेने में हाईकमान को थोड़ा और वक्त लगेगा। हाॅलाकि राज्यों में मुख्यमंत्रियों का चुनाव विधायक दल का अधिकार क्षेत्र है और जब तक विधायक दल की बैठक ही आहूत नही की जाती है तो इन विषयों पर कोई भी चिन्ता या चिन्तन करना न्यायोचित नही है लेकिन लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में तेजी से आये बदलाव के चलते मुख्यमंत्री चयन के मामले में सर्वोपरि माने जाने वाले हाईकमान के हस्तक्षेप को देखते हुऐ इस मुद्दे का गम्भीर विषय में तब्दील हो जाना स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा माना जा सकता है। भाजपा हाईकमान को यह अन्दाजा है कि आगामी लोकसभा चुनावों में एक बार फिर सफलता का परचम लहराने के लिऐ उ0प्र0 का सहयोग आवश्यक है और केन्द्र की मोदी सरकार का गठन करने के लिऐ राज्य की पाॅचो ही लोकसभा सीटो का योगदान देने वाले उत्तराखण्ड में भाजपा के भीतर कई क्षत्रप मौजूद है। शायद यही वजह है कि मोदी व अमित शाह की जोड़ी इन दोनो ही राज्यों के संदर्भ में कोई भी निर्णय लेने से पहले अच्छी तरह मंथन व मनन कर लेना चाहती है और मजे की बात यह है कि इन दोनो ही राज्यों में संगठनात्मक स्तर पर होने वाले इस मंथन या मनन को लेकर कोई हायतोबा नही है। यह ठीक है कि इन दोनो ही राज्यों के तमाम नेता अपने-अपने स्तर पर दिल्ली से लेकर नागपुर तक अपने घोड़े दौड़ाने में लगे है और मुख्यमंत्री पद पर चयन के अलावा सम्भावित मन्त्रालयों को लेकर भी जोड़तोड़ का खेल शुरू हो गया है लेकिन आश्चर्यजनक है कि पदो की दावेदारी को लेकर ‘माता धारी देवी’ तक की कसमें खाने वाले बड़बोले नेता इस वक्त खामोश है और जनता की अदालत में कोई भी बयान जारी करने के स्थान पर चुप्पी साधना ही बेहतर माना जा रहा है। इसे संगठन को मिले पूर्ण बहुमत का असर कहें या फिर भाजपा का अन्दरूनी अनुशासन लेकिन मोदी और अमित शाह की इस जोड़ी में ‘कुछ तो दम है’ जो विधायक सरकार गठन को लेकर किसी भी प्रकार के दावे या बयानबाजी करने की जगह शान्ति से बैठकर फैसले या वक्त का इन्तजार कर रहे है। हो सकता है कि कुछ लोगो को लगता हो कि इन दोनो ही राज्यों में मुख्यमंत्री के रूप में कोई भी नाम सामने आते ही गुटबाजी सामने आयेगी और उत्तराखण्ड में तमाम पूर्व मुख्यमंत्रियों के अलावा काॅग्रेस से बगावत कर भाजपा में शामिल हुऐ बागी तेवर वाले नेताओ को पूर्ण तबज्जों न दिये जाने की स्थिति में कुछ न कुछ छिछालेदार अवश्य होगी लेकिन सवाल यह भी है कि वर्तमान में इन तमाम विद्रोही तेवर वाले नेताओ के पास भाजपा हाईकमान की बात मानने के अलावा और विकल्प भी क्या है ? यह तथ्य काबिलेतारीफ है कि भाजपा के बड़े नेताओ ने राजनीति में तेजी से आ रहे बदलाव की नब्ज पहचानते हुऐ पहले मौके पर गोवा व मणिपुर में अपनी सरकार बनाने पर तबज्जों दी और अब राजनैतिक स्तर पर यह कोंशिश की जा रही है कि सर्व सहमति से कम से कम ऐसा नाम सामने आये जिस पर अधिकताम् आम सहमति प्राप्त की जा सके लेकिन अगर किन्ही कारणों से आम सहमति के हालात पैदा नही होते है तो मोदी या अमित शाह अनुशासन के डण्डे के दम पर दो नये चेंहरो को आगे कर सत्ता के शीर्ष का रिमोट अपने पास रख आगे की रणनीति पर विचार कर सकते है। उत्तराखण्ड व उत्तर प्रदेश के मामले मेें भाजपा को पहले भी सरकार बनाने व चलाने का अनुभव रहा है और इन दोनो ही राज्यों से निकले तमाम छोटे-बड़े नेताओ ने समय-समय पर भाजपा के नेतृत्व में गठित केन्द्र सरकार में अपनी भागीदारी भी दी है लेकिन उत्तरप्रदेश व उत्तराखण्ड के मामले में एक बड़ी भिन्नता भी है और यहीं भिन्नता भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को मजबूर कर रही है कि वह इन दोनो ही राज्यों के मुख्यमंत्री का नाम चयन करने से पहले अच्छी तरह अपना चिन्तन-मनन कर ले। अगर पहले उत्तरप्रदेश की बात करे तो हम पाते है कि अपने वृहद आकार और लोकसभा में ठीक-ठाक प्रतिनिधित्व के अलावा विभिन्न जातियों व धार्मिक समीकरणों के कारण उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री स्वंय में एक बड़ी ताकत माना जाता है तथा केन्द्र की राजनीति में उत्तर प्रदेश की बड़ी भागीदारी को देखते हुऐ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को देर-सबेर प्रधानमंत्री पद का दावेदार भी माना जाता है। बस यहीं दावेदारी मोदी व अमित शाह की उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के चुनाव को लेकर मुश्किलें बढ़ा रही है और योग्य चेहरों की एक लम्बी सूची के बावजूद भी भाजपा के यह दोनो ही दिग्गज नये मुख्यमंत्री का चयन करने से पहले तमाम समीकरणों का अवलोकन कर रहे है। राष्ट्रीय राजनीति में लम्बी पारी खेलने की इच्छुक मोदी व अमित शाह की जोड़ी यह अच्छी तरह जानती है कि अगर उनका एक भी दाॅव गलत पड़ा तो उन्हे कुर्सी से उतार फैंकने के लिऐ तमाम राजनैतिक ताकतें लामबन्द हो जायेंगी और अगर इन हालातों में उ0प्र0 की सत्ता किन्ही मजबूत हाथों में दे दी गयी तो अभी तक उन्हे हाथोहाथ ले रहे भाजपा संगठन व संघ के नेताओं को बैठे-बिठाये उन का राजनैतिक विकल्प भी मिल जायेगा लेकिन उ0प्र0 की सत्ता पर किसी कमजोर आदमी की ताजपोशी किये जाने से न सिर्फ भाजपा की छिछालेदार होने का खतरा है बल्कि इन हालातो में बाजरिया उ0प्र0 एक बार फिर केन्द्रीय सत्ता को हासिल करने का ख्वाब देख रही मोदी-अमित शाह की जोड़ी के तमाम समीकरण ही छिन्न-भिन्न हो सकते है। इसके ठीक विपरीत मात्र पाॅच सांसदों वाले उत्तराखण्ड की हाल-फिलहाल राष्ट्रीय राजनीति में कोई महत्वपूर्ण भूमिका तो नही है और न ही मोदी सरकार को उत्तराखण्ड भाजपा के किसी नेता से बड़ी राजनैतिक चुनौती मिलने की सम्भावना ही है लेकिन आध्यात्मिक पर्यटन का केन्द्र होने कारण उत्तराखण्ड न सिर्फ भाजपा के नेताओ की नजर में महत्वपूर्ण है बल्कि इस राज्य की आन्दोलनकारी जनता द्वारा उठाये जाने वाले मुद्दो का भारतीय व वैश्विक राजनीति पर पड़ने वाला प्रभाव केन्द्रीय सत्ता पर काबिज हर नेता व राजनैतिक दल को मजबूर करता है कि वह उत्तराखण्ड में होने वाली किसी भी राजनैतिक उठापटक को लेकर सतर्क रहे। उपरोक्त के अलावा इस राज्य की सत्ता पर कब्जेदारी के लिऐ भाजपा के नेताओ द्वारा पूर्व में की गयी उठापटक उन्हे मजबूर करती है कि वह अपने घर के अन्दर होने वाले किसी भी राजनैतिक विध्वंस को लेकर सतर्क रहे और किसी भी राजनैतिक निर्णय के माध्यम से विरोधी पक्ष को यह मौका न दिया जा सके कि खुलकर केन्द्रीय सत्ता के फैसलो की खिलाफत हो। शायद यहीं वजह है कि उ0प्र0 व उत्तराखण्ड में पूर्ण बहुमत हासिल करने के बाद भी भाजपा इन दोनेा राज्यों में नेता सदन के चुनाव को लेकर असमंजस में है और सोच समझकर फैसला लेने के नाम पर फैसले को लटकाकर हालातो का जायजा लेने की कोशिश जारी है।