साईकल पर आये चुनाव आयोग के फैसले के बाद अखिलेश यादव के हौसले बुलन्द।
उत्तर प्रदेश के मामले में यह लगभग तय हो चुका है कि सत्ताधारी दल, समाजवादी पार्टी की कमान अब पूरी तरह अखिलेश यादव के हाथो में होगी और मतदाताओं का धु्रवीकरण रोकने के लिए काॅग्रेस व सपा के बीच चुनाव से पूर्व गठबन्धन के प्रयास भी तेज हो गये है। हाॅलाकि एक लम्बे समय तक उत्तर प्रदेश की सत्ता में रही काॅग्रेस के लिए यह बर्दाश्त करना आसान नही है कि वह चुनाव मैदान में जाने से पहले ही क्षेत्रीय दल की मोहताज नजर आये और उसके बेनर तले चुनाव मैदान में उतरने वाले प्रत्याशियों की संख्या व विधानसभा क्षेत्रो का निर्धारण हाईकमान के स्थान पर स्थानीय स्तर के नेताओं द्वारा किया जाय लेकिन जब सवाल संगठन का अस्तित्व व राष्ट्रीय पहचान को बनाये रखने का हो तो बड़े नेताओं के ऐतराज को खारिज किया जाना पार्टी की मजबूरी में शामिल किया जा सकता है और बिहार के चुनाव में नितीश कुमार के साथ खड़े होकर काॅग्रेस हाईकमान को इस बात का अन्दाजा हो गया है कि हाल-फिलहाल किसी भी गठबन्धन अथवा क्षेत्रीय दल के साथ खड़े होकर भाजपा को मात देना उसके लिए घाटे का सौदा नही है। यह ठीक है कि शिवपाल यादव या अमरसिंह ने अभी अपनी हार स्वीकार नही की है और न ही मुलायम सिह ने सार्वजनिक मंच से यह घोषणा की है कि वह एक अलग दल के रूप में चुनाव में प्रतिभाग नही करेंगे लेकिन चुनाव आयोग के समक्ष अपना पक्ष मजबूती से रखने के मामले में अनमने से दिखे मुलायम सिह पुत्र मोह की स्थिति से बाहर निकल पायेंगे, ऐसी उम्मीद कम ही है। हालातों के मद्देनजर यह तय दिखता है कि अखिलेश यादव अब टिकट बॅटवारे के मामले में अहम् भूमिका में होेंगे और दबंगई के बूते चुनाव लड़ने वाले नेताओं को टिकट बॅटवारे के दौरान कम ही अहमियत मिलेगी जबकि नेताजी की भूमिका सिर्फ एक मार्गदर्शक की नजर आयेंगी। हो सकता है कि काॅग्रेस के साथ सीटो का साझा करने के मामले में सपा या काॅग्रेस की ओर से कुछ बगावती सुर सुनाई दे और चन्द सीटो पर निर्दलीय या अन्य क्षेत्रीय दलो से दावेदारी करते हुए छुटभय्यै नेता अपनी जोर आजमाइस करने की कोशिश करें लेकिन यह तय दिखता है कि अगर काॅग्रेस, सपा के साथ मंच साझा करती है तो उसका छिटका हुआ वोट-बैंक एक बार फिर उसके नजदीक आ सकता है और इस तालमेल के चलते सपा को थोक भाव में मुसलिमों व यादवों के अलावा कुछ दलित व ब्राहमण वोट भी पड़ सकते है। हाॅलाकि अभी मायावती ने चुनावों के संदर्भ में अपने पत्ते नही खोले है और गुमसुम सा दिख रहा दलित मतदाता अभी हवा का रूख पहचानने की कोशिश कर रहा है लेकिन यह तय है कि इस बार मायावती का जादू इस वर्ग के मददाताओं के सर चढ़कर बोलेगा और लगभग हर विधानसभा क्षेत्र में सपा या भाजपा को बसपा के साथ कड़े मुकाबले से गुजरना पड़ेगा। यह ठीक है कि युवाओं के बीच मोदी का जादू अभी कम नही हुआ है और न ही भाजपा उस हिन्दूवादी ऐजेण्डे से हटती दिखाई दे रही है जिसने लोकसभा के चुनावों में उ0 प्र0 से मोदी को प्रचण्ड बहुमत दिलवाया था लेकिन मतदाताओं के विभिन्न वर्गो के बीच भाजपा का प्रभाव अब पहले की तरह नही दिखाई देता और न ही भाजपा के प्रदेश स्तरीय नेता अभी तक मुस्लिम विरोधी मुद्दो पर जोर देते नजर आ रहे है। हिन्दूवादी राजनीति के कर्णधार माने जा रहे भाजपाई सांसद आदित्यनाथ मुख्यमंत्री का चेहरा न बनाये जाने के कारण हाईकमान से नाराज बताये जा रहे है और अगर उनकी यह नाराजी मतदान के अन्तिम दौर तक कायम रहती है तो भाजपा को इस बार उ0 प्र0 में तीसरे स्थान पर आने के लिए भी लड़ना पड़ सकता है। वैसे नोटबन्दी को लेकर आये केन्द्र सरकार के फैसले के बाद भाजपा का परम्परागत् वोटबैंक भाजपा से खुश नही है और यह माना जा रहा है कि उ0 प्र0 के मामले में चुनावी चन्दा एकत्र करने के लिए भी भाजपा को विशेष मशक्कत करनी पड़ सकती है लेकिन इस सबके बावजूद मोदी के प्रशंसक यह मानकर चल रहे है कि आखिरी समय में मोदी व अमित शाह की जोड़ी सब कुछ सम्भाल लेगी और भाजपा अपने उम्मीदवारों के रूप में ऐसे चेहरो को मैदान में उतारेगी जिनकी जीत को लेकर कोई सन्देह न हो अर्थात् विधानसभा क्षेत्रो में नांमाकन की प्रक्रिया का प्रारम्भ होने से पहले आया राम-गया राम वाले अन्दाज में विभिन्न दलो के बड़े नेताओं के भाजपा में शामिल होने से इंकार नही किया जा सकता। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि आगामी दिनो में होने वाले पाॅच राज्यों में चुनाव प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए विशेष महत्व रखते है क्योंकि इन राज्यों में मिलने वाले चुनाव नतीजों के आधार पर न सिर्फ मोदी सरकार द्वारा लिये गये नोटबन्दी के फैसले की सफलता या असफलता का अन्दाजा लगाया जा सकेगा बल्कि पंजाब, उत्तराखण्ड व उत्तरप्रदेश में सामने आये चुनाव नतीजों के बाद ही राहुल की नेतृत्व क्षमता और काॅग्रेस पार्टी के भविष्य को लेकर कोई भविष्यवाणी किया जाना सम्भव होगा। यह ठीक है कि बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में सत्ताधारी दल समाजवादी पार्टी के पक्ष में तमाम समीकरण फिलहाल मजबूत नजर आने लगे है और काॅगे्रस के साथ चुनावी समझौते की बढ़ती सम्भावनाओं के बाद यह भी माना जा रहा है कि इस चुनाव में अखिलेश न सिर्फ एक नया इतिहास बनायेंगे बल्कि उ0प्र0 में मृतप्राय हो चुकी काॅग्रेस में भी नयी प्राणवायु का संचार होगा लेकिन भाजपा के रणनीतिकारों को भी कमजोर मान लेना राजनीति की एक भूल होगी और अगर जल्दबाजी में बसपा को पीछे छोड़ा गया तो इसे राजनैतिक नाइसांफी ही कहा जायेगा। कुल मिलाकर हम यह कह सकते है कि समाजवादी पार्टी में आये एक बड़े बदलाव पर चुनाव आयोग की मोहर लग जाने के बाद उ0प्र0 की राजनीति पर छाया राजनैतिक कुॅहासा कुछ कम हुआ है और प्रदेश के मुखिया अखिलेश यादव लगातार पाॅच साल सत्ता में रहने के बावजूद अपनी अच्छी छवि बरकरार रखने में कामयाब दिखते है जबकि लोकसभा चुनावों के दौरान उ0प्र0 में अच्छा प्रदर्शन कर चुकी भाजपा के नेताओ में वह पहला वाला जोश नजर नही आ रहा है लेकिन यह उम्मीद की जानी चाहिए कि टिकट बॅटवारे व चुनाव मैदान में जाने से पहले भाजपा का शीर्ष नेतृत्व ऐसा कोई कदम जरूर उठायेगा जिससे उत्तर प्रदेश के चुनावी समीकरण एक बार के लिऐ फिर पलटते हुए दिखेंगे। इसी क्रम में बसपा की बात करे तो टिकट बॅटवारे के मामले में अव्वल रहने वाली मायावती की चुप्पी यह इशारा कर रही है कि इस बार उन्होने अपने राजनैतिक दुश्मनों को चारो ओर से घेरने के लिए सुनियोजित रणनीति बना रखी है और वह इधर-उधर की बयानवाजी के स्थान पर पूरी खामोशी के साथ चुनावी धमाका करने की कोशिश में जुटी हुई है जबकि काॅग्रेस इन चुनावों में सपा के सहारे अपनी टूटे हुऐ मतदाताओं को जोड़कर किसी भी कीमत पर पुनः खड़े होने की कोशिश में है।