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Wednesday, April 24, 2024

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लूट की खुली छूट

पाॅच साल सत्ता में रहने के बाद दलबदल कर फिर किस्मत आजमाने निकले काॅग्रेसी शूरवीर

उत्तराखण्ड के परिपेक्ष्य में भाजपा द्वारा जारी की गयी प्रत्याशियों की सूची के बाद घमासान होना तय है और इस तथ्य से भी इनकार नही किया जा सकता कि भाजपा से बगावत कर कुछ लोग निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरें या फिर अपने सम्भावित प्रत्याशी तलाश रही काॅग्रेस इनमें से कुछ को हाथोंहाथ ले लेकिन प्रदेश के राजनैतिक हालातों को ध्यान में रखते हुए इन स्थितियों को अच्छा नही कहा जा सकता और न ही किसी दल विशेष से राजनैतिक प्रतिबद्धता या सम्बद्धता के चलते इस तरह की गतिविधियों को अनदेखा ही किया जा सकता है। यह ठीक है कि सत्ता के शीर्ष को हासिल करने मात्र के ध्येय से की जाने वाली राजनीति के इस दौर में चुनावी दंगल के माहिर माने जाने वाले राजनीतिज्ञों से वैचारिक संघर्ष या व्यापक जनहित की उम्मीद करना भी बेमानी है और कुछ ही समय पूर्व भाजपा की शह पर सरकार में हुई बगावत के बाद यह भी तय हो गया है कि राजनीति में शुचिता व आदर्शो की बात करने वाले राष्ट्रीय राजनैतिक दल सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकते है लेकिन सवाल यह है कि इस दलबदल, बगावत या फिर राजनैतिक परिवर्तन से आम आदमी को क्या फायदा और बड़े-बड़े मंचो से हालात बदल देने का दावा करने वाले नेताओं के भाषणो पर विश्वास करने की कौन सी वजह कार्यकर्ताओं द्वारा मतदाता को बतायी जाय जिसके आधार पर यह तय हो सके कि कल तक बेईमान, भ्रष्ट या गलत आचरण का दोषी कोई भी नेता दलबदल करते ही ईमानदार और चरित्रवान हो गया है। आज जो हालत भाजपा के साथ है कल वहीं स्थितियाॅ काॅग्रेस में भी आनी है और इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि प्रत्याशियों की पहली सूची जारी होते ही काॅग्रेस में भी निर्दलीय चुनाव लड़ने वालो या संगठनात्मक पदों से इस्तीफा देने वालो की एक बड़ी संख्या सामने आ सकती है लेकिन सवाल यह है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं की नुमाइंदगी का दावा करने वाले हमारे राजनेता व राजनैतिक दल इन स्थितियों से निपटने के लिऐ क्या उपाय कर रहे है और कार्यकर्ता स्तर पर लगातार बढ़े रहे असन्तोष को दूर करने के लिए संगठन अथवा सरकार में बैठे लोग कौन से नये तरीके ईजाद कर रहे है। मौजूद हालातों में ईवेन्ट मेनेजरों के हाथो में जाते दिख रहे चुनावी प्रबन्धन को देखकर ऐसा लग रहा है कि राजनीति के शीर्ष पर काबिज कुछ लोगो ने यह मान लिया है कि जनमत संग्रह के नाम पर पोंलिग बूथ तक आने वाली जनता चुनावी तिलस्म में रूचि लेने के स्थान पर रस्म अदायगी करती है और राजनीति के इस खेल में कुछ चेहरों को आगे कर जनता को लम्बे समय तक वेबकूफ बनाया जा सकता है। सत्ता को हासिल करने के लिए भाजपा, काॅग्रेस अथवा किसी अन्य राजनैतिक दल द्वारा खेले जा रहे इस उठापटक के खेल का अन्तिम परिणाम क्या होगा, यह तो पता नही लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि उत्तराखण्ड की राजनीति में यह दंगल ज्यादा समय तक चलने वाला नही है और देर आये दुरूस्त आये वाले अन्दाज में उत्तराखण्ड की जनता शीघ्र आयाराम-गयाराम की राजनीति कर रहे नेताओं को सबक सिखायेगी।

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