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Friday, April 26, 2024

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माहौल के बावजूद

सरकार विरोधी प्रदर्शनों से दूर रहकर जनता की नाराजी का जायजा ले रहा है विपक्ष
भ्रष्टाचार पर जीरो टालरेन्स का नारा देने वाली उत्तराखंड की टीएसआर सरकार में लोकायुक्त व स्थानातंरण विधेयक जैसी महत्वपूर्ण व्यवस्थाओं को लेकर कोई चर्चा नही है और सत्ता पर काबिज होने के सौ दिन के भीतर लोकपाल देने का दावा करने वाली भाजपा अब अपने ही बयानों से मुकरती नजर आ रही है जबकि शिक्षा विभाग की कार्यशैली को लेकर कई तरह के प्रश्नचिन्ह खड़े करने वाले प्रदेश के शिक्षा मंत्री व्यवस्था में कोई सुधार लाये बिना ही नेपथ्य में दिखते है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि सदन में दो तिहाई बहुमत हासिल होने के बावजूद भी उत्तराखंड की भाजपा सरकार निर्णय लेने व व्यवस्थाओं में सुधार लाने के मामलों में असफल नजर आ रही है और प्रदेश में चल रहे आन्दोलनों व जनता के बीच व्याप्त असंतोष को देखकर किसी दृष्टि से यह अनुभव नही हो रहा है कि इस सरकार के मुख्य अंग माने जा सकने वाले मंत्री अथवा सम्मानित विधायक किसी भी स्थिति में जनता के प्रति जवाबदेह है। हांलाकि यह कहने में कोई हर्ज नही है कि राज्य के इतिहास में यह भी पहली बार है जब सत्तापक्ष के एक विधायक ने अपनी ही सरकार को घेरते हुऐ भूख से हुई मौत व किसान द्वारा की गयी आत्महत्या जैसे विषयोें को उठाया है और जनता से जुड़े विषयों पर सत्तापक्ष के कुछ अन्य विधायक भी मुखर दिखे है लेकिन यह अफसोसजनक है कि विरोध या उग्रता दिखाने की यह प्रक्रिया सिर्फ शब्दो तक सीमित रही है और ऐसी कोई भी नजीर अब तक सामने नही आयी है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि सत्ता पक्ष कि विधायकों ने जनपक्ष को लेकर सरकारी तंत्र पर दबाव बनाया है। यह ठीक है कि भाजपा को प्रदेश में तीसरी बार सरकार बनाने का मौका ऐसे समय मिला है जब राजकोष ही हालत कतई अच्छी नही है और कर्ज व ब्याज की बढ़ती देनदारी कई योजनाओं या विकास कार्योे के मामले में पुर्नविचार को मजबूर कर रही है लेकिन ऐसा नही है कि भाजपा के नेता चुनाव से पहले इन तमाम तथ्यों से अंजान रहे हो बल्कि हकीकत यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के तमाम प्रदेश स्तरीय व राष्ट्रीय नेताओं ने उत्तराखंड की जनता से डबल इंजन का वादा करते समय इसी तरह की तमाम कमियों को चुनावी मुद्दा बनाया था। सत्ता हासिल करने के बाद केन्द्रीय सत्ता पर काबिज भाजपा के बड़े नेताओं ने उत्तराखंड को निरीह व दयनीय हालत में छोड़ दिया है और सरकार की कमान भी एक ऐसे नेता को सौंप दी गयी है जो अपनी अन्र्तमुखी प्रवृत्ति के चलते जनता के खाके पर फिट नही नजर आ रहा। अगर राजनैतिक दृष्टिकोण से देखे तो उत्तराखंड की भाजपा सरकार में इस वक्त सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत व यशपाल आर्या जैसे, ऐसे तमाम चेहरे है जो कहीं न कहीं मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा लेकर कांग्रेस से विद्रोह के बाद भाजपा में शामिल हुऐ है और भाजपा से जुड़े संघी विचारधारा के मदन कौशिक व प्रकाश पंत के अलावा अन्य भी कुछ ऐसे नाम है जो उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने की तमाम योग्यता रखते है लेकिन भाजपा हाईकमान ने किन्हीं कारणों के चलते टीएसआर को यह जिम्मेदारी सौंपी है और पिछले लगभग पांच माह से सरकार जिन स्थितियों से गुजर रही है उसे देखकर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कई गुणी, ज्ञानी व विद्वतजनों के सरकार का अंग होने के बावजूद अगर टीएसआर बिना किसी रोक टोक के अपनी सरकार चला पा रहे है तो उसका एक बड़ा कारण उनका अन्र्तमुखी होना ही है। यह तय है कि जिस दिन भी टीएसआर ने अपनी क्षमताओं को परखना व विभिन्न विभागों में चल रही सरकारी योजनाओं की समीक्षा करना शुरू कर दिया उसी दिन उनके खिलाफ असंतोष फूट उठेगा और उनकी कुर्सी हिलाने की कोशिशें शुरू हो जायेंगी। लिहाजा ऐसा लगता है कि उत्तराखंड की वर्तमान सरकार ने हाल-फिलहाल जानबूझकर ‘जो भी है और जैसा भी है वही सही है‘ वाली नीति पर काम जारी रखा हुआ है और वह बहुत ज्यादा विचार-विमर्श या उठापटक कर पुराने व सधे-सधाये ढ़र्रे को छेड़ने के मूड में भी नही है। शायद यही वजह है कि वर्तमान सरकार ने सत्ता संभालते ही सरकार के एक वैकल्पिक केन्द्र के रूप में पूर्व आईएस अधिकारी राकेश शर्मा जैसे ही होनहार व काबिल अधिकारी का चयन किया है और अगर शासन स्तर से छन-छन कर आ रही खबरों को सही माने तो जनता के लिऐ यह आश्चर्य का विषय हो सकता है कि निजी सचिव, विशेष सचिव, व्यक्तिगत् सहायक समेत अन्य तमाम तरह के कर्मचारियों व अधिकारियों की एक बड़ी फौज होने के बावजूद टीएसआर द्वारा हस्ताक्षरित लगभग हर कागज या फाइल इस होनहार नौकरशाह के हाथों से होकर गुजरने का एक अद्योषित सा नियम सरकार में बन चुका है। अब यह हम आसानी से समझ सकते है कि अपने व्यक्तिगत् कार्यो या बीमारी के इलाज हेतु आर्थिक सहायता जैसे मुद्दो को मुख्यमंत्री के दरबार में लेकर जाने वाली जनता अपने प्रार्थनापत्र की स्थिति को पता करने तो इस वरीष्ठ नौकरशाह के पास जाने से रही और न ही इन जनाब को कोई चुनाव लड़ना है जो वह जनता की नाराजी की फिक्र करते रहे। लिहाजा मुख्यमंत्री आवास की ओर रूख करने वाली दुखयारी आत्माओं की संख्या में पूर्ववर्ती सरकार के मुकाबले काफी कमी देखी जा रही है ओर मुख्यमंत्री भी पूरी दरियादिली वाले अंदाज मंे विवेकाधीन कोष को विधायकों के हवाले कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त दिखाई देते है। यह अलग बात है कि विधायकों द्वारा प्रस्तावित सूची पर किस हद तक कार्यवाही हो रही है या फिर सतावन-अठावन विधायकों में कितने, इतना दम रखते है कि अपने प्रार्थनापत्रों के बारे में सीधे इस वरीष्ठ नौकरशाह से पूछताछ कर सके लेकिन यह तय है कि अतिव्यस्त बताये जा रहे इन साहब के पास आजकल किसी विधायक या पत्रकार तो छोड़िये बल्कि कई बार सरकार के मंत्रियों से मिलने का समय भी नही होता ओर प्रोटोकाल व संघीय अनुशासन में बंधे मंत्री अपनी फाइलांे के साथ मनमसोस कर रह जाते है। ऐसा कब तक और कैसे चलेगा, यह तो पता नही लेकिन सड़क पर हो रहे जनता के आन्दोलन और सदन में उछलने वाले प्रश्नो को देखकर यह अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि जनता अपनी सरकार की कार्यशैली से खुश नही है और वह रह-रह कर उन तमाम वादो व नारों को याद कर रही है जो चुनावी मौके पर भाजपा के तमाम बड़े नेताओं ने दिये थे। यह ठीक है कि उत्तराखंड सरकार के समक्ष अभी किसी चुनाव के जरिये खुद को साबित करने की चुनौती नही है और भाजपा का कार्यकर्ता यह मान बैठा है कि मोदी के नाम के जादू व संघ की हिन्दूवादी नीतियों के चलते वह हाल-फिलहाल हर चुनाव मेें सफलता हासिल कर सकता है लेकिन अगर जनता के नजरिये से देखे तो शराब के मुद्दे पर पूरी तरह असफल हो चुकी इस सरकार को यह हक ही नही है कि वह खुद को पूर्ण बहुमत में माने लेकिन वर्तमान दौर की राजनीति भावनाओं से नही बल्कि आंकड़ो से चलती है और आंकड़ो के आधार पर दो तिहाई बहुमत से सरकार चला रहे टीएसआर ने पूरी सफाई के साथ लोकपाल के गठन का मुद्दा टाल नेताओं की परेशानी कम कर दी है जो सत्ता पक्ष ही नही बल्कि विपक्ष के लिऐ भी राहत का विषय है। शायद यहीं वजह है कि विपक्ष हाल-फिलहाल माहौल में तल्खी होने के बावजूद भी खुलकर सरकार विरोधी प्रदर्शनों में हिस्सेदारी नही कर रहा।

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