पिछले हादसों से सबक लेने की जगह सिर्फ राजनैतिक घोषणाओं व कमाई की जरिया बना रेल मंत्रालय
बुलेट ट्रेन और सुदृढ़ रेल व्यवस्था का दावा करने वाली भाजपा सरकार की पोलपट्टी एक बार फिर कंलिगा उत्कल एक्सप्रेस रेल हादसे के रूप में सामने आयी है और इस भीषण दुर्घटना के बाद यह फिर जाहिर हो गया है कि रेल किराया बढ़ाने के लिऐ लाख जतन कर रही केन्द्र सरकार ने यात्रियों की सुरक्षा का मामला वाकई प्रभु के हाथों में सौंप दिया है। यह तो गनीमत है कि सरकार ने अभी तक इस गंभीर व रेलवे मंत्रालय की चूक के चलते हुऐ हादसे को आंतकवादी साजिश घोषित नही किया है और न ही सोशल मीडिया पर हावी भक्तों की टीम ने रेल विभाग के किसी जिम्मेदार किन्तु मुस्लिम अधिकारी को खोजकर सारे घटनाक्रम का ठीकरा उसके सर फोड़ने की कोशिश शुरू की है लेकिन यकीन जानिये अगर इस रेल दुघर्टना को लेकर मीडिया का एक हिस्सा सरकारी तंत्र पर हावी दिखा तथा विपक्ष ने इस सम्पूर्ण घटनाक्रम की जिम्मेदारी सरकार पर आयद करते हुऐ इसे विरोध का मुद्दा बनाया तो रेल मंत्रालय इसे अपने चूक या यात्रियों की सुरक्षा से खिलवाड़ मानने के स्थान पर बहुत ही आसानी से आंतकवादी साजिश घोषित कर देगा और यह भी हो सकता है कि स्थानीय पुलिस की मदद से कुछ नामों को उजागर करते हुऐ एक नयी-कहानी के साथ खतौली के आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों से गिरफ्तारी भी कर ली जाये। यह भी तय है कि अगर विपक्ष ने इस प्रकार की गिरफ्तारियों को गलत बताते हुऐ इन तमाम घटनाक्रमों का विरोध करने की कोशिश की तो मोदी समर्थकों का चोला ओड़े बैठे भाजपा की साइबर सैल के सिपाही समुचे विपक्ष समेत इस प्रकार के तमाम घटनाक्रमों की निन्दा करने वाले तथा इन तमाम दुघर्टनाओं की जिम्मेदारी मोदी सरकार पर डालने की कोशिश करने वाले जनपक्ष को देशद्रोही करार देने में देर नही करेंगे और एक सुनियोजित तरीके से पूरी बेशर्मी के साथ आरोंप लगाने वाले पक्ष से यह पूछा जायेगा ‘कि क्या पहले रेल-दुघर्टनाऐं नही होती थी‘। हमने माना कि रेल हादसे भारत के रेल यात्रियों का दुर्भाग्य है और आजाद भारत में जबसे लोकतांत्रिक सरकारों ने देश की कमान सम्भाली है तबसे शायद कोई वित्तीय वर्ष ऐसा गुजरा हो जब कोई रेल दुर्घटना सामने नही आयी हो लेकिन हम इस तथ्य से इनकार नही कर सकते कि इन पिछले साठ-बासठ सालों में रेलवे के सम्पर्क मार्गों का विस्तार भी तेजी से हुआ है और रेल मंत्रालय पर काबिज तमाम पूर्व मंत्रियों व सत्तापक्ष ने रेल को अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूर्ति का जरिया बनाते हुऐ नई रेलें भी जमकर चलायी है। इस सबके बावजूद भारतीय रेल वर्तमान तक सुगम व सस्ते यातायात का एकमात्र साधन है और शायद यहीं वजह है कि तमाम तरह की असुविधाओं व प्रतिवर्ष तेजी से बढ़ रही रेल दुघर्टनाओं की संख्या के बाद भी रेल यात्रियों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती प्रतीत होती है और टिकट की मारामारी, आरक्षण सुविधा में दलालों की कब्जेदारी व डब्बे की क्षमता से अधिक भीड़ के बावजूद एक सामान्य यात्री वर्तमान में भी रेलमार्ग से ही यात्रा करना ज्यादा सहुलियत भरा महसूस करता है। हमने देखा कि नयी सरकार जब सत्ता पर काबिज हुई तो उसने जनसामान्य के यातायात व ढुलान से सम्बन्धित इस सस्ते परिवहन की लेकर तमाम तरह के वादे व घोषणाऐं की और बुलेट ट्रेन के नारे व रेलवे का कायाकल्प कर देने की घोषणाओं के बाद यह माना गया कि शायद आजादी के छह दशक बाद अब रेल यात्रियों के दिन बहुरंने ही वाले है लेकिन सरकार द्वारा किये जा रहे तमाम तरह के तथाकथित प्रयासों का असर वर्तमान तक तो भारत की रेल व्यवस्था पर पड़ता नही दिख रहा है और पिछले तीन वर्षो के दौरान सामने आये रेल हादसों व इनमें मृतक रेल यात्रियों की संख्या पर गौर करने के बाद हम आसानी के साथ इस निष्कर्ष तक पहुंच सकते है कि सरकार द्वारा की गयी घोषणाओं का कोई भी असर अभी तक धरातल पर नही दिख रहा है। यह माना कि तीन-साढ़े तीन साल के अंतराल में सारे देश में बुलेट ट्रेन नही चलायी जा सकती और न ही जनता के सहयोग के बिना रेलवे जैसी सार्वजनिक सम्पत्तियों को सुरक्षित, स्वच्छ व सुगम बनाया जा सकता है लेकिन यह भी तय है कि रेलवे स्टेशनों के सौन्दर्यीकरण के नाम पर रेलवे मंत्रालय की तमाम बेशकीमती जमीन निजी हाथों में देकर या फिर सिर्फ रेल किराये व मालभाड़े में अंधाधुंध बढ़ोत्तरी करके यह नही माना जा सकता कि हालात खुद-ब-खुद ठीक हो जायेंगे। सत्तापक्ष को यह मानना ही होगा कि भारत जैसे विविधता वाले देश में रेल को सिर्फ फायदें का सौदा नही बनाया जा सकता और न ही यहाँ कि जनता अभी तक नियम, कायदे व कानून की इतनी अभ्यस्थ है कि सिर्फ स्वचालित मशीनों के लगा देने भर से या फिर रेलवे स्टेशनों पर निशुल्क वाईफाई सुविधा देने मात्र से सबकुछ अपने आप व स्वचालित अंदाज में चलने लगे लेकिन रेल की व्यवस्थागत् जरूरतों को संभालने वाले तमाम विभाग इस तरह की व्यवस्थागत् जरूरतों से अंजान नजर आते है और महकमें के पास मानव शक्ति के रूप में कार्मिकों की बहुत ज्यादा कमी होने के बावजूद रेलवे मंत्रालय इस दिशा में उदासीन है या फिर सरकार इसी अंदाज में व्यवस्था को कमजोर करते हुऐ निजी हाथों में सौंपने का बहाना ढूढ़ रही है। अगर गंभीरता से गौर किया जाय तो यह दोनों ही स्थितियाँ आम आदमी के नजरिये से ठीक नही है और न ही एक लोकतांत्रिक सरकार को यह हक होना चाहिऐं कि वह इस तरह जन सामान्य के लिऐ फायदेमंद व जरूरी उपक्रमों में पीपीपी के नाम पर या फिर विकास के दिवा स्वप्न देखते हुऐ निजी हाथों में सौंप दे लेकिन इस सबके बावजूद रेल मंत्रालय में धड़ल्ले से यही सबकुछ चल रहा है और विकास के नाम पर रेलवे स्टेशनों में प्रवेश शुल्क को दो रूपये से बढ़ाकर बीस रूपये तक कर दिया गया है जबकि सुविधाओं में बढ़ोत्तरी के नाम पर निजी हाथों को लीज में दी जा रही भूमि पर माॅल की तर्ज में व्यवसायिक प्रतिष्ठानों का निर्माण किया जा रहा है। हम मानते है कि यह सबकुछ आने वाली पीढ़ी के लिऐ जरूरी है तथा पर्यटन के लिऐ देश-विदेश से आने वाले पयर्टको को भारत के तमाम रेलवे स्टेशनों पर विश्व स्तरीय व एक जैसी सुविधाऐं मिलनी ही चाहिऐं लेकिन इसका तात्पर्य यह तो नही है कि इस सबके लिऐ उस आम आदमी को अनदेखा कर दिया जाय जो वास्तव में भारतीय रेल की रीढ़ कहा जा सकता है और जिसके रोजाना हजारों कि.मी. यात्रा करने के कारण ही विगत् कई दशकों से रेल विभाग व इसके कर्मचारियों की सांसे चल रही है। हमारी सरकार को चाहिएं कि वह रेल मंत्रालय की बेहतरी के लिऐ हवा-हवाई घोषणाऐं करने या फिर आर्थिक संसाधन जुटाने के नाम पर भू-माफिया की तरह काम करने की जगह कुछ ठोस निर्णय लेते हुऐ ओहदे के हिसाब से तमाम बड़े अधिकारियों व रेल मंत्री की जिम्मेदारी निर्धारित करें तथा ठीक तरीके से जिम्मेदारी का निवर्हन न करने वाले अधिकारी व नेता को तत्काल प्रभाव से मंत्रालय से बाहर का रास्ता दिखाया जाय। हमारे नेताओं व जिम्मेदार पदो पर पर बैठे जनप्रतिनिधियों को यह समझना ही होगा कि सरकार, विभाग व प्रशासन की कुछ अपनी हदे व जिम्मेदारियाँ है सिर्फ घोषणाओं, भाषणों व लफ्फेबाजी से इस तरह की दुघर्टनाओं को नही रोका जा सकता और न ही मुआवजा बांट देना इस तरह के गंभीर अवसरों को टालने का एक तरीका है।