फिर सवालों के घेरे में है गैरसैण | Jokhim Samachar Network

Saturday, April 27, 2024

Select your Top Menu from wp menus

फिर सवालों के घेरे में है गैरसैण

राज्यहित को मद्देनजर रखते हुए जरूरी बनी राजधानी गैरसैण को लेकर जारी है राजनैतिक दांव पेंच
अपने अस्तित्व में आने के बाद से ही तारीफ के दो शब्द सुनने को बेचैन नजर आ रही उत्तराखंड की टीएसआर के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने इस बार गैरसैण का मनोवैज्ञानिक दांव खेला है और अपने शीतकालीन विधानसभा सत्र को विशेष रूप से गैरसैण में आहूत कर चुकी वर्तमान सरकार उत्तराखंड राज्य स्थापना के अवसर पर विभिन्न स्तर पर कार्यक्रमों का आवाह्न करने के अलावा प्रदेश की जनता के सम्मुख कुछ ऐसी नजीर प्रस्तुत करने के मूड में लग रही है कि लोकसभा व स्थानीय निकायों के चुनाव से पहले पूरे राज्य में भाजपा की वाह-वाह हो जाए। गैरसैण में राज्य का विधानसभा भवन बनकर तैयार खड़ा है और जाने या अनजाने में मौजूदा सरकार की यह मजबूरी भी है कि वह या तो इसका उपयोग करे या फिर इसे नकारे जाने का एक कारण बताये। खबर है कि मौजूदा सरकार के मुख्यमंत्री कुछ जमीन के कारोबारियों व अपने विधानसभा क्षेत्र के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को देखते हुए पूर्ववर्ती सरकार के समय चर्चा में आये एक और विधानसभा भवन के निर्माण को गति देना चाहते हैं लेकिन शराब की दुकानों के मुद्दे पर राज्य भर में हुए आंदोलन तथा कुछ ग्रामीण क्षेत्रों को नगर निगम, नगरपालिका अथवा नगर पंचायत क्षेत्रों में शामिल करने के अलावा सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानों को बंद करने जैसे तमाम आदेशों के खिलाफ उठते विरोध के सुरों को देखते हुए सरकार ऐसा कोई फैसला लेने की स्थिति में नहीं है कि उसके खिलाफ आन्दोलन का माहौल बने और राज्य की जनता को सड़कों पर उतरकर उस सरकार के खिलाफ नारेबाजी या अन्य आंदोलनात्मक कार्यवाही करनी पड़े जिसे चुनिन्दा छह माह पहले सर-माथे बिठाते हुए सत्ता के शीर्ष की चाबी सौंपी गयी थी। लिहाजा संघ से जुड़े लोग उत्तराखंडवासियों की दुखती रगों पर हाथ रखने की कोशिशों में जुट गए हैं और सत्ता पक्ष यह अंदाजा लगाने में जुटा है कि गैरसैंण को राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने मात्र से क्या-क्या नुकसान अथवा फायदे हो सकते हैं। हालांकि भाजपा के नेता व मौजूदा सरकार के नीति-निर्धारक यह मानते हैं कि उनके एजेंडे में गैरसैण के लिए कोई जगह नहीं है और न ही इस राज्य की जनता ने गैरसैण को इस पहाड़ी राज्य की राजधानी स्वीकार किया है लेकिन तकनीकी पेचीदिगी के चलते भाजपा की मौजूदा सरकार की मुश्किल यह है कि वह भराड़ीसैण में लगभग तैयार खड़े नये विधानसभा भवन समेत अन्य तमाम सरकारी परिसम्पत्तियों को अपने कब्जे में लिए बिना वह इस संदर्भ में एक कदम आगे नहीं बढ़ सकती जबकि अस्थायी राजधानी देहरादून के निकट एक और विधानसभा भवन व अन्य अवस्थापना सुविधाएं जुटाने के लिए जरूरी है कि सरकार इस दिशा में ज्यादा तेजी से काम करे। शायद यही वजह है कि सरकार मरे मन से ही सही इस दिशा में कदम उठाने को मजबूर नजर आ रही है और अपनी इस मजबूरी का राजनैतिक फायदा उठाने के लिए उसने आगामी विधानसभा सत्र के दौरान ग्रीष्मकालीन राजधानी का शगूफा छेड़कर एक तीर से कई शिकार करने का मन बनाया है। यह ठीक है कि सत्ता पक्ष को इस मुद्दे पर घेरने का मन बना रही कांग्रेस की मंशा भी इस विषय पर पाक-साफ नहीं है और न ही कांग्रेस में प्रभावी दिखने वाले तमाम गुट इस मसले के समाधान पर एकमत नजर आते हैं लेकिन यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि पिछली सरकार के कार्यकाल में गैरसैण का राग अलाप कर वहां विधानसभा भवन बनाए जाने की आवश्यकता को बल देने वाले तत्कालीन सांसद सतपाल महाराज इस वक्त न सिर्फ भाजपा सरकार का अहम् हिस्सा है बल्कि तत्कालीन सरकार के मुखिया विजय बहुगुणा भी अब भाजपा में ही शामिल है। यह माना कि राजनैतिक फेरबदल के बाद सत्ता पर काबिज होने वाले हरीश रावत व तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल ने अपने पूरे कार्यकाल में गैरसैण समेत पहाड़ की हर पहचान को साबित करने वाली धरोहर को जनचर्चाओं की विषय वस्तु बनाने में कामयाबी हासिल की है लेकिन यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि गैरसैंण को उत्तराखंड की स्थायी राजधानी घोषित करने के मामले में पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार का रवैय्या भी झोलझाल वाला ही रहा है और मौजूदा सरकार भी इस मुद्दे के बहाने जनभावनाओं का दोहन कर आगे बढ़ जाना चाहती है। इसलिए अस्थायी राजधानी के बाद अब ग्रीष्मकालीन राजधानी व शीतकालीन राजधानी जैसे विकल्पों पर विचार करने की बात पूरे रणनैतिक तरीके से जनता के बीच लायी जा रही है और मैदानी बनाम पहाड़ी के संघर्ष को हवा देते हुए यह शिगूफा भी छोड़ने का प्रयास किया जा रहा है कि पलायन के चलते आबादीविहीन हो चुके गांवों या सुदूरवर्ती कस्बाई क्षेत्रों को राजधानी के नजदीक होने या दूर होने से कोई फर्क नहीं पड़ता जबकि राज्य की कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा मैदानी इलाकों में रहने के कारण राज्य की राजधानी का इनके निकट, आसान पहुंच वाली जगह पर तथा नौकरशाही व राजनेताओं की दृष्टि से सुविधापूर्ण होना आवश्यक है। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा के बड़े नेताओं की निगाहबानी के चलते पिछले सत्रह वर्षों से राज्य की अस्थायी राजधानी होने का गौरव झेल रहा देहरादून इन तमाम मानकों के हिसाब से एक बार फिर गैरसैण अथवा राज्य के किसी भी अन्य हिस्से से अव्वल दिखता है और नेताओं का चाल-चरित्र तथा राजनैतिक बयानों का अंदाज यह साबित कर देता है कि एक बार फिर गैरसैण के बहाने-बयानों की जंग छेड़कर रायपुर में एक और विधानसभा भवन का शिलान्यास किए जाने की पटकथा पर काम शुरू हो गया है। लिहाजा यह मानना कि एक पूर्ण बहुमत की सरकार द्वारा गैरसैण में विधानसभा सत्र आहूत कर कोई नई परम्परा डाली जा रही है या फिर सरकार इस क्रम में कोई ऐतिहासिक फैसला लेने जा रही है, एक खामाख्याली है और उत्तराखंड राज्य के पर्वतीय चरित्र के पैरोकारों को सरकार के इस फैसले से कुछ हासिल होने वाला नहीं है लेकिन इस सबके बावजूद सत्तापक्ष व मीडिया का एक हिस्सा यह माहौल बनाने की कोशिश कर रहा है कि इस विधानसभा सत्र के दौरान पूर्ण बहुमत की सरकार ने राज्यहित में कई मुद्दों पर विचार करना है। किसी भी राज्य की व्यवस्था और राजनैतिक स्वरूप को लेकर भाजपा की एक अलग सोच रही है तथा यहां पर यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इस तरह के तमाम विषयों पर भाजपा के बड़े नेताओं व संघ के रणनीतिकारों का फैसला हमेशा ही सबसे अलग रहा है। इस सबके बावजूद अगर हम यह माने कि गैरसैण के मुद्दे पर भाजपा के लोग ठीक पूर्ववर्ती सरकारों की लीक पर चलेंगे और हरीश रावत अथवा उनके ही दल की पूर्ववर्ती सरकार द्वारा गैरसैण के संदर्भ में लिए गए निर्णयों को आगे बढ़ाया जाएगा, तो इसे हम अपनी रणनैतिक भूल कहेंगे और भाजपा द्वारा पूर्व के लिए गए फैसलों का एक अवलोकन करने मात्र से हम आसानी के साथ इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि संघ के दिशा-निर्देशों पर चलने वाले भाजपा नेता इस तरह की भूल नहीं करते। नतीजन इस निष्कर्ष पर पहुंचना आसान है कि गैरसैण को लेकर किए जा रहे भ्रामक विचार के बावजूद यहां दिसम्बर माह में प्रस्तावित विधानसभा सत्र के दौरान कहीं भी ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा जिसे किसी भी लिहाज से अवस्मणीय या फिर उत्तराखंड राज्य के हित में कहा जा सके। वैसे भी जो व्यवस्था यह मानकर राजी न हो कि स्थायी राजधानी के संदर्भ में उसके द्वारा लिए गए एक निर्णय के कारण इन पिछले सत्रह सालों में कई तरह की अराजकता फैली है और पहाड़ों पर लगातार हो रहे पलायन ने राज्य के तमाम राजनैतिक व सामाजिक समीकरण बदलकर रख दिए हैं, उस व्यवस्था से यह उम्मीद करना बेकार है कि वह अपनी पूर्व में की गयी गलतियों में कुछ इस तरह सुधार करेगी कि इसका श्रेय विपक्ष द्वारा अपने शासनकाल में लिए गए फैसलों को जाता दिखे।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *