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Thursday, March 28, 2024

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और फिर लिफाफा ही गलत निकला

एक छोटी सी चूक के चलते बदल जाते हैं आदमी की जिन्दगी के कई अहम फैसले
सरकारी कामकाज में लिफाफे का अपना एक अलग वजूद है और यह एक भुक्तभोगी ही जान सकता है कि इसके बदल जाने अथवा बदलने के आरोप लगने के बाद एक आम जिंदगी में कितनी कठिनाई हो सकती है। लिफाफे का बदलना सेहतमंदी का लक्षण नहीं है लेकिन सरकार बदलने के बाद अक्सर लिफाफे बदल जाते हैं या फिर बदली हुई निष्ठाएं लिफाफे बदलने को मजबूर कर देती हैं और ऐसा लगता है मानो सब कुछ जानबूझकर या पूर्वरचित तरीके से किया जा रहा हो। एक लम्बे इंतजार और शिकायतों के दौर के बाद फैसला फिर वही ढाक के तीन पात, मामला संगीन तो है लेकिन इसकी संगीनता को समझे कौन और कौन इस बात पर तवज्जो दे कि शिकायतकर्ता का असल दर्द क्या है? वैसे भी फर्जियों की भीड़ में असल की जरूरत व औकात ही क्या और क्यूं किसी से यह उम्मीद की जाय कि वह दिल को छूता हुआ सच लिखकर सरकार की आत्मा को कचैटे। जमाना वैसे भी चमचागिरी का है और चमचों की इस राज में असली-नकली का कोई भेद नहीं। बस जिसने हुजूर की ड्योडी पर सलाम बजा लिया या फिर होली-दीवाली समाज का दस्तूर निभा लिया वहीं असली और असली साबित होने के लिए कोई अलग से रिश्वत जरूरी थोड़ी ही है, जो है सब सिस्टम में है और जो सिस्टम से बाहर, तो जाओ कोर्ट-कचहरी लेकिन ध्यान रखना वहां भी पैसा बोलता है और पांच साल तक एक सरकार से लड़ने के लिए ताकत तो चाहिए ही उस पर भी यह तय नहीं कि सरकार बदलने के बाद भी सिस्टम बदलेगा ही बदलेगा। सिस्टम को बदलने के लिए जो कुछ चाहिए वह धीरे-धीरे कर खत्म हो गया है। अधिकारियों व नेताओं का जमीर ही नहीं मरा बल्कि कर्मचारी वर्ग की आत्मा ही मर गई है। इसलिए अब कुछ गलत करने के लिए या फिर किसी को लटकाने या अटकाने के लिए किसी की अनुमति की जरूरत नहीं होती बल्कि जब चाहे और जैसे चाहे आप सिस्टम को अपने हिसाब से तोड़ और मोड़ सकते हैं क्योंकि आप सिस्टम के अंग हैं या फिर यूं कहिये कि यह पूरा का पूरा सिस्टम ही आपके इशारे पर चल रहा है। सिस्टम यानि कि बाबू कल्चर। अब इसे टैण्डर की मनमर्जी का नाम दो या फिर मनमर्जी को टैण्डर का लेकिन कोई यह पूछने वाला नहीं कि हो क्या रहा है क्योंकि जो आपको पसंद नहीं वो सही होते हुए भी गलत वरना गलत की परिभाषा ही क्या है जो अपना है वह सब सही और वैसे भी गलत व सही की जांच करेगा कौन, जब सैय्या भये कौतवाल। “समरथ को नहीं दोष गुंसाई“ और जो समरथ है वो कहां बैठकर टैण्डर भरेगा या फिर कैसे अपनी इच्छा पूरी करेगा, यह तो उसकी मर्जी पर ही निर्भर करेगा और बाकियों के लिए तो टैण्डर है तो नियम है, कानून है और कई तरह के किन्तु-परन्तु भी हैं लेकिन जिसके लिए नहीं है तो कुछ भी नहीं है अर्थात् वह मालिक है अपनी मनमर्जी का। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लिफाफे कैसे लिए गए या कैसे रखे गए क्योंकि उसे तो पता है कि उसका लिफाफा बदला ही नहीं जा सकता। सच में लिफाफे का यह खेल बढ़ा ही निराला है और कुछ लोगों में कुब्बत होती है कि वह लिफाफे की तरह जिन्दगी को ही बदलकर आम आदमी के सोचने का तरीका ही बदल दे लेकिन किसी भी सिस्टम को बदलना इतना आसान नही है ओर जहाँ सिस्टम है वहाँ दस्तूर है। जहाँ दस्तूर है वहाँ रीति-रिवाज है, कायदे कानून है या फिर समाजिकता का भय है लेकिन जहाँ कुछ भी सिस्टम से न चल रहा हो और “बाड़ के खेत खाने“ वाले अंदाज में सबकुछ गड़बड़-सड़बड़ चल रहा हों, वहाँ कोई उम्मीद ही कैसे की जाये। हमारे इस लिफाफे वाले सिस्टम में देशी-पहाड़ी है, मैदानी व पर्वतीय इलाकों का अपना झगड़ा है तो पूरबिया क्षेत्रों से आये हुऐ कुछ अति महत्वाकांक्षी किरदारों के निजी हित भी जुड़े है लेकिन अपने हितों की इस लड़ाई में वह किसका अहित कर बैठेगे इसकी कोई गांरटी नही है और जिसकी कोई गांरटी नही है कि वही सरकार पर हावी है क्योंकि गांरटी न होने के कारण बदलाव उसके लिऐ एक स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा है या फिर यूँ कहियें कि उसकी कमर में रीढ़ का आभाव है और यही आभाव उसे कहीं भी झुकने या समर्पित हो जाने की योग्यता प्रदान करता है। नतीजतन दुनिया का काम बिगाड़कर अपने मुंह लगे स्वंयसेवकों का एक समूह तैयार करना तथा राज्यहित अथवा देश हित के नाम पर कुछ चुनिन्दा लोगों या खबरों को आगे बढ़ाना इनका पेशा है जिसे यह बखूबी अंजाम दे रहे है लेकिन इस सबके बावजूद कहीं न कहीं मुश्किलें आन खड़ी होती है और कोई न कोई लिफाफा इतनी मजबूती से आ खड़ा होता है कि इसे हटाना या फिर फाड़कर फैंक देना परेशानी का सबक बन जाता है और सरकार भी यह तलाशने को मजबूर हो जाती है कि यह वाहियाद फैसला किसका था। इस सबके बावजूद यह मान लेने में कोई हर्ज नही कि लिफाफा-लिफाफा होता है और इसे फाड़कर फैंक देने, न स्वीकारने या फिर बदल देने से आदमी का वजूद नही मिटता बल्कि अनेक मौकों पर देखा गया है कि सरकारी स्तर पर होने वाले इस तरह के तमाम फैसले अन्ततोगत्वा उस तंत्र के लिऐ ही नुकसानदायक होते है जिसने इन्हें शह दी होती है या फिर जिस तंत्र के जिस हिस्से की गड़बड़ी के चलते इनका जन्म होता है। यह माना कि सत्ता के शीर्ष पदों पर काबिज चेहरों को खुश करने के लिऐ तमाम नियम कानूनों को ताक में रखकर लिये गये इस तरह के फैसलों को रोजमर्रा वाले अंदाज में अंजाम दिया जाता है। यह भी माना कि तंत्र के इस हिस्से की कुछ अपनी मजबूरियां अथवा अघोषित नियम कानून होते है लेकिन इस तथ्य को नकारा नही जा सकता कि लिफाफे बदल दिये जाने मात्र से अंदर का मजमून नही बदल सकता बल्कि परेशानियाँ ही बढ़ती है। खैर कुछ फैसलों को वक्त के हाथों सौंप देना ही समझदारी मानी जाती है और ईश्वर की सर्वोच्च अदालत में लगायी जाने वाली न्याय की गुहार पर भरोसा करते हुऐ हम एक बार फिर इस उम्मीद के साथ अपने लिफाफे खुलने की प्रतीक्षा कर रहे है कि उसके घर में देर है अंधेर नहीं।

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