सही योजनाओं के आभाव में | Jokhim Samachar Network

Saturday, April 20, 2024

Select your Top Menu from wp menus

सही योजनाओं के आभाव में

आपातकालीन सुविधाओं पर लगा बजटहीनता का ग्रहण
स्वास्थ्य के क्षेत्र में उत्तराखंड सरकार की बड़ी उपलब्धि मानी जाने वाली आपातकालीन सेवा-108 वर्तमान में बंदी की कगार पर है और धन की अनउपलब्धता का रोना रोती प्रदेश की सरकार इस सेवा से जुड़े तमाम कर्मकारों के वेतन व अन्य भत्तों को देने में न सिर्फ असमर्थता जाहिर कर रही है बल्कि कई मामलों में देखने को मिल रहा है कि डीजल व मरम्मत के आभाव में इस सेवा में लगायी गयी बसें सफेद हाथी बनकर अस्पतालों के कोनों में खड़ी होने लगी है। भाजपा के तथाकथित रूप से ईमानदार मुख्यमंत्री मे.ज. भुवनचन्द्र खंडूरी के कार्यकाल में जब इस बेड़े का सड़कों पर उतरना तय हुआ था तो इसे स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी उपलब्धि बताया गया तथा करोड़ों के खर्च के साथ सड़कों पर उतरे वाहनों के इस बेड़े को चलाने, देखरेख करने व योजनाओं को अमलीजामा पहनाने के परिपेक्ष्य में रखे गये कर्मकारों की नियुक्ति व तैनाती के मामले में भी कई तरह की अनदेखी व मानकों की अवहेलना के मामले सामने आये लेकिन तत्कालीन सरकार ने राज्यहित से जुड़ा मामला बताकर इन सभी मानकों की चर्चाओं व सुधार की संभावनाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया और विज्ञापन की जंग के चलते छवि निर्माण का एक सिलसिला शुरू हुआ। इसी दौरान जब तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने मुख्यमंत्री का पदभार संभाला तो आपातकालीन सेवा-108 से जुड़ी हर छोटी-बड़ी खबर को प्रमुखता दी गयी और स्वास्थ्य विभाग की नाकामी व जाहिली के चलते सड़क चलते चैपहिया वाहनों में बच्चे जनती महिलाओं को इस सेवा की एक महानतम् उपलब्धि बताया गया। इसी दौरान स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर कुछ गंभीर प्रयास भी शुरू हुए तथा सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों से मरीजों को निकटवर्ती चिकित्सालयों तक लाने के लिए डोली की व्यवस्था व एयर एम्बुलेंस की बात भी सामने आयी लेकिन इस तरह के संसाधनों को जोड़ने में कमीशनखोरी की संभावनाएं न्यूनतम् होने के चलते सरकारी तंत्र पर हावी बाबूओं की फौज ने इन योजनाओं को आगे नहीं बढ़ने दिया और शहरी व कस्बाई क्षेत्रों की मुख्य सड़कों पर दौड़ती-भागती व टूं-टां की आवाजों के साथ एक अलग तरह का भयपूर्ण माहौल बनाती आपातकालीन सेवा-108 के बेड़े में बढ़ती बसों की संख्या सरकार की एक उपलब्धि मानी गयी। यह सब कुछ तब तक ही ठीक चला जब तक यह योजना विश्व बैंक द्वारा वित्त पोषित रही और इसके उपरांत योजनाकारों द्वारा वैकल्पिक व्यवस्थाओं पर विचार ही नहीं किया गया। नतीजतन एक बड़ी लागत के साथ शुरू हुई पूर्ववर्ती सरकार की एक महत्वाकांक्षी योजना वर्तमान में बन्दी की कगार पर है और वर्षों से यहां सेवाएं दे रहे कर्मचारी व वाहन चालक न सिर्फ अपने कई माह का वेतन न मिलने से परेशान हैं बल्कि अन्य तमाम देयकों व भविष्य को लेकर चिंतित भी हैं लेकिन सरकार इस सेवा के भविष्य को लेकर खामोश है और जनता के बीच उन आंकड़ों को रखने से भी परहेज किया जा रहा है जो इस आपातकालीन सेवा की क्षमताओं का प्रदर्शन करते हैं। यह तथ्य किसी से भी छुपा नहीं है कि उत्तराखंड में कर्मचारियों की एक बड़ी संख्या के बावजूद शिक्षा विभाग के बाद स्वास्थ्य विभाग ही सबसे ज्यादा बदहाल दिखाई देता है और हालातों के मद्देनजर हम यह भी कह सकते हैं कि प्रदेश में बनने वाली तमाम जनहितकारी सरकारों ने इन तमाम व्यवस्थाओं को दुरूस्त करने के नाम पर एक ठीक-ठाक धनराशि ठिकाने लगाने के बावजूद ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिसे राज्य की उपलब्धि के रूप में प्रचारित या प्रसारित किया जा सके। नतीजतन उत्तराखंड के विभिन्न सुदूरवर्ती क्षेत्रों ही नहीं बल्कि जिला मुख्यालयों से लगे छोटे शहरों व कस्बाई इलाकों में भी योग्य चिकित्सकों समेत तमाम तरह के अनुभवी व कुशल कर्मचारियों की कमी स्पष्ट देखी जा सकती है और दुर्घटना व अन्य आपातकालीन स्थितियों में चिकित्सा सुविधाओंविहीन सरकारी भवन व सड़क पर दौड़ते वाहन पीड़ित परिवारों के मुंह चिढ़ाते प्रतीत होते हैं लेकिन सरकार इस संदर्भ में गंभीर नहीं है बल्कि अगर पूर्व के वर्षों में बनी सरकारी योजनाओं व उनके अमलीकरण पर एक नजर डालें तो हम पाते हैं कि स्वास्थ्य सुविधाओं को बहाल करने के नाम पर सरकार का पूरा जोर नये भवन बनाने या फिर उपकरणों की खरीद पर रहा है और स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूती देने के नाम पर सचिवालय में बैठे बाबूओं व नौकरशाहों की फौज ने व्यवस्थाओं को निजी हाथों में देना ज्यादा फायदे का सौदा माना है। अगर आपातकालीन सेवा-108 के आंकड़ों पर एक नजर डालें तो हम पाते हैं कि जनसामान्य को तत्काल व बेहतर सुविधा मुहैय्या कराने की नीयत से चलायी गयी इस सेवा द्वारा बचाये गए अथवा उचित इलाज हेतु ले जाए गए कुल मरीजों की संख्या में ज्यादातर वह लोग शामिल हैं जिन्हें या तो सीधे निजी अस्पताल ले जाया गया या फिर स्थानीय स्तर पर प्राथमिक इलाज देकर सघन चिकित्सा के नाम पर निकटवर्ती निजी चिकित्सालयों को स्थानांतरित कर दिया गया। अपुष्ट सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार यह चर्चाएं सरेआम हैं कि महिनों तक वेतन न मिलने के कारण अपने रोजमर्रा के खर्चों व पारिवारिक जिम्मेदारियों के वहन के लिए निजी अस्पतालों तक मरीज छोड़ने के बदले मिलने वाली इमदाद पर निर्भर होता जा रहा आपातकालीन सेवा-108 का चालक समेत तमाम कर्मचारी जाने अनजाने में पूरी व्यवस्था को ही दागदार बना रहा है लेकिन सवाल यह है कि क्या उसकी इस कमजोरी या चूक के लिए उसे ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए या फिर इस पूरी व्यवस्था पर ही इस दोष की सजा दी जानी चाहिए। हमने देखा कि सरकार ने किस प्रकार आम आदमी को लाभ पहुंचाने के नाम पर सचल अस्पताल चलाकर तमाम नामी-गिरामी कम्पनियों का पेट भरा और टेंडर के वक्त खुद ही तय किए गए मानकों का एक बड़ा हिस्सा पूरा ही न करने के बावजूद इन सभी बड़े-बड़े नामों व कार्पोरेट घरानों का पूरा भुगतान कर दिया गया। हम यह भी देख रहे हैं कि सरकार चिकित्सा सुविधा सुचारू करने के नाम पर बनाए जा रहे भवनों, ठीक-ठाक मरीजों की तादाद वाले सरकारी अस्पतालों व अन्य सरकारी सम्पत्तियों को व्यवस्था को बेहतर करने के नाम पर निजी हाथों में सौंप रही है और जनता जाने-अनजाने में अपनी जेब कटाने के साथ ही साथ तमाम सुविधाओं से भी महरूम हैं जो न्यूनतम् रूप से उसे मिलनी ही चाहिए। इन हालातों में अगर सरकार या सरकारी तंत्र का कोई हिस्सा यह कहता है कि वह राज्य की सम्पूर्ण आबादी को स्वास्थ्य की दृष्टि से सुरक्षित करने के लिए कोई बड़ा कदम उठा रहा है जो खुद-ब-खुद शक के बादल गहराने लगते हैं।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *