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Monday, May 06, 2024

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तेरा जाना, बनके उम्मीदों का मिट जाना

जुझारू साथी फोटो जर्नलिस्ट कमल जोशी की असामयिक मौत से पीछे छूटे कई सवाल|
फोटो जर्नलिस्ट कमल जोशी हमारे बीच नहीं रहे और उनका एकाएक यूँ ही हमको छोड़ जाना दुखद घटना है लेकिन इससे भी ज्यादा दुखद है कि हम उनकी मृत्यु के कारणों को जानने के लिऐ बैचेंन नही है और न ही कोई नेता या राजनैतिक दल पत्रकार कमल जोशी की इस अकाल मृत्यु के कारणों की जाँच करने तथा उन हालातों की समीक्षा करने की बात कर रहा है जिनके चलते इस पेशे से जुड़े कर्मठ लोग या तो एक-एक कर इस पेशे को अलविदा कह रहे है या फिर दुनिया छोड़ने पर मजबूर है। हमने देखा कि देश के किसी कोने में भूख से होने वाली मृत्यु हो या फिर कर्ज के बोझ से दबे किसान द्वारा की जाने वाली आत्महत्या, सिर्फ राजनैतिक या सामाजिक संगठन ही नही बल्कि पीडित़ परिवार के हमपेशा मित्र व उसके इर्द-गिर्द रहने वाला जागरूक समाज हमेशा ही इस तरह की घटनाओं के खिलाफ आवाज उठाता है और सरकार का ध्यान उन तमाम खामिंयो व अव्यवस्थाओं की ओर खींचने की कोशिश की जाती है, जिनके चलते ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हुई कि मृतक को अपने प्राण दाँव पर लगाने पड़े लेकिन पत्रकारिता के पेशे में ऐसा कुछ भी नही है और हमें अफसोसजनक अंदाज में यह कहना पड़ रहा है कि अन्याय के खिलाफ, अन्य संधर्षशील संगठनों की आवाज बनने का दावा करने वाले हमारे मीडिया के तमाम साथी व संगठन ऐसे अवसरों पर न सिर्फ चुप्पी साध जाते है बल्कि सिर्फ श्रद्धाजंलि सभा जैसे छोटे-मोटे व पारम्परिक आयोजनों के बाद घटनाक्रम से पीछा छुड़ाने या फिर अपने कर्तव्यों की इतिश्री करने का प्रयास किया जाता है। देश भर के सभी बड़े समाचार पत्रों को ध्यान में रखकर बनाई गई मजीठिया आयोग की रिपोर्ट लागू होेने से पूर्व ही सरकारी तंत्र व न्यायालय के बीच चकरघिन्नी बन चुकी है तथा इन समाचार पत्रों में दशकों से कार्यरत् पत्रकार व अन्य कर्मचारी यह जान चुके है कि उनका भविष्य अब सुरक्षित नही है । इसके ठीक विपरीत केन्द्र सरकार डीएवीपी व आरएनआई के माध्यम से, तो विभिन्न राज्य सरकारें अपने सूचना मंत्रालयों के माध्यम से देश के तमाम लघु व मझोले समाचार पत्रों को हतोत्साहित कर बंद होने की कगार तक पहुंचाने के लिऐ अपने नियम-कानूनों में तेजी से बदलाव ला रहे है और समाचार तंत्र पर पूरी तरह काबू रखते हुये मीडिया के तमाम हिस्सों को कुछ बड़े घरानों तक सीमित रखने की नीति पर तेजी से काम किया जा रहा है। क्या पत्रकारों पर हो रहा इतना सबकुछ अत्याचार एक संवेदनशील व्यक्तित्व व पेशे से पत्रकार कमल जोशी को व्यथित करने के लिऐ काफी नही था? जो व्यक्ति हमेशा और हर आन्दोलन में अपने कैमरें के साथ जुटा रहा तथा जिसने समाज की हर व्यथा को अपने कैमरें के माध्यम से कैद कर जनता तक पहुँचाने के लिऐ पूरी तत्परता से काम किया, क्या उसे अपने हमपेशा साथियों की व्यथा, पीड़ा और रोजी-रोटी के संकट को देखते हुऐ इस हद तक व्यथित होने का अधिकार भी नही है कि उसका अपने जीवन से मोह भंग हो जाय और मोह भंग की इस स्थिति के बाद उसके मोक्ष गामी होने की स्थिति में क्या यह हम सबका कर्तव्य नही है कि हम उन तमाम कारणों को जनता व नेताओं के सामने रखे जिनके चलते एक पत्रकार अपना पेशा छोड़ने या फिर मौत को गले लगा लेने के हालातों से जूझ रहा है या फिर देश व समाज के खिलाफ एक ऐसी साजिश रची जा रही है कि सच व सरकार विरोधी खबरें जनता तक पहुँचना ही मुहाल हो जाये। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि अपने लेखों, समाचारों, चित्रों या व्यंग्य आदि के माध्यम से समाज के निचले, गरीब व बेसहारा तबके की बात करने वाला लगभग हर पत्रकार स्वंय को वामपंथी विचारधारा के नजदीक पाता है और वर्तमान में पत्रकारिता के बदल रहे अंदाज व लेखकों की बदल रही प्राथमिकताओं के बावजूद आज भी ऐसे पत्रकारों या सामाजिक योद्धाओं की कमी नही है जो हर अन्याय व भेदभाव के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने में घबराता नही है लेकिन जब सरकारी तंत्र योजनाबद्ध तरीके से जुर्म और अपराध के अलावा सामाजिक अन्याय व पूंजीवादी लूट-खसोट के खिलाफ आवाज उठाने वाले पत्रकार साथियों का ही खात्मा करने का निर्णय ले ले तो इन तथाकथित सामाजिक चिन्तको या आन्दोलनकारी संगठनों ने किस भूमिका में दिखना चाहिऐं, यह वर्तमान से जुड़ा एक बड़ा सवाल है। इधर पिछले कुछ अंतराल में पत्रकारिता के पेशे में बेईमान व धंधेबाज किस्म के लोगो के पर्दार्पण ने इस पूरी बिरादरी को बदनाम किया है और इस तथ्य से भी इनकार नही किया जा सकता कि सिर्फ हनक दिखाने के लिऐ छापे जाने वाले सामाचार पत्र या फिर धंधेबाजी के लिहाज से बांटी जाने वाली आईडी इस व्यवस्था की पहचान बन गये है और खुद को पत्रकार बताने वाली शहर की कई जानी-मानी शख्यिसतें पत्रकारिता का बिल्ला लगा प्रापर्टी डींलिग, दलाली, ब्लैकमेलिंग जैसी तमाम वारदातों में संलग्न है लेकिन इसका तात्पर्य यह तो नही कि इस पेशे में अच्छे लोग नही बचे है या फिर देश और समाज को अपने उद्देश्यों के प्रति समर्पित पत्रकारों की जरूरत ही नही है। हाँ इतना जरूर है कि उसूलों का पाबंद और अपने लक्ष्य के प्रति जुनूनी पत्रकार इस वक्त वाकई एक कठिन दौर से गुजर रहा है तथा समाज की तमाम प्राथमिकताऐं पैसे पर आकर केन्द्रित हो जाने के चलते वह खुद को कुंठित, अवसाद ग्रस्त या फिर तनाव में महसूस कर रहा है। एक के बाद एक कर असफल होते जनान्दोलनों, झूठे-सच्चे वादो पर चुनाव जीतते नेता और झूठ का पुलिन्दा बन चुके विज्ञापनों पर चलती सरकारें, उसे मजबूर कर रही है कि वह इस समाज व व्यवस्था से बगावत कर दे तथा इस बगावत के नतीजे अब कमल जोशी जैसी महान हस्तियों के हमें छोड़कर जाने के रूप में सामने आने भी लगे है लेकिन सवाल यह है कि क्या कमल जोशी जैसे साथियों की शहादत हमारे सरकारी तंत्र का ध्यान इन तमाम अव्यवस्थाओं की ओर खींच पायेंगी और तमाम पत्रकार संगठनों व प्रेस क्लबों पर मठाधीश बनकर काबिज पत्रकारों के तथाकथित नेता यह समझ भी पायेंगे कि पत्रकारों के हितों की रक्षा के नाम पर दलाली करने के अलावा उनकी अपनी बिरादरी, देश व समाज के प्रति भी कुछ जिम्मेदारी है। मौजूदा हालातों में तो यह सब कुछ इतनी आसानी से संभव नही लगता और न ही ऐसा प्रतीत होता है कि दिवंगत साथी कमल जोशी की इस असायमिक मृत्यु से हम पत्रकारों, व्यापक जनहित में संघर्ष करने का दावा करने वाले वामपंथियों और हर वर्ग की समस्या को एक मुद्दे की तरह ले उड़ने वाले विपक्ष ने कोई सबक ही लिया हो। तो क्या यह मान लिया जाय कि जुझारू फोटो जर्नलिस्ट और जिन्दादिल इंसान कमल जोशी की यह शहादत यों ही बर्बाद चली जायेगी और हममें से कुछ लोग साल में एक दिन उनके चित्र को कुछ फूल भेंटकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेंगे।

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