उच्च न्यायालय को नैनीताल से हटाये जाने की व्यक्तिगत् राय जाहिर कर सतपाल महाराज ने खेला एक और राजनैतिक दाँव।
उत्तराखंड की स्थायी राजधानी गैरसैण बनाये जाने के मुद्दे पर चल रहे आन्दोलनों के बीच राज्य के वरीष्ठ नेता व काबीना मंत्री सतपाल महाराज ने उच्च न्यायालय को नैनीताल से हटाये जाने की बात उठाकर एक नये विवाद को जन्म दिया है और महाराज के इस बयान के बाद राज्य के उच्च न्यायालय को नैनीताल से हटाये जाने के समर्थन व विरोध में आंदोलनों का दौर शुरू हो गया है। हालांकि महाराज ने यह स्पष्ट किया है कि उनका बयान सरकारी फैसला न होकर एक निजी नजरिया है और पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाने वाले नैनीताल में उच्च न्यायालय स्थापित किये जाने के बाद कानूनी वजहों से यहां एकत्र होने वाली जरूरतमंदों की भीड़ को देखते हुए उन्होंने यह बयान दिया है लेकिन राजनैतिक परिवेक्षकों का मानना है कि सतपाल महाराज जैसा अनुभवी व सुलझा हुआ नेता बेवजह ऐसा बयान नहीं देगा और अगर कोई शिगूफा छेड़ा गया है तो उसके पीछे कुछ न कुछ राजनैतिक निहितार्थ होंगे। हम यह महसूस कर रहे हैं कि उत्तराखंड में जबसे भाजपा की त्रिवेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व वाली पूर्ण बहुमत सरकार अस्तित्व में आयी है तब ही से ऐसे अनेक राजनैतिक जुमले हवा में उछाले जा रहे हैं जिन्हें लेकर जनता वर्तमान तक तो उदासीन है लेकिन जिनका गंभीर प्रभाव स्थानीय जनमानस पर पड़ना स्वाभाविक है और जिन्हें व्यापक जनचर्चाओं अथवा आंदोलनों का विषय बनाकर न सिर्फ जनमत को विभिन्न गुटों में बांटा जा सकता है बल्कि सरकार की विकास कार्यों के प्रति दिख रही उदासीनता व सरकारी कामकाज के तौर-तरीके पर उठ रहे सवालों से भी आम आदमी का ध्यान भटकाया जा सकता है। यह स्पष्ट है कि आगामी एक वर्ष के भीतर स्थानीय निकायों के साथ ही साथ लोकसभा व पंचायतों के चुनाव के माध्यम से अपना शक्ति परीक्षण करने को मजबूर राज्य की वर्तमान सरकार के पास अपनी उपलब्धियों के रूप में जनता के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए कुछ विशेष नहीं है जबकि राज्य के लगभग एक बड़े हिस्से में शराब नीति से नाराज महिलाएं, बेरोजगारी के मामले में खफा दिख रहे युवा, स्थायी राजधानी में मुद्दे पर आंदोलनरत् सामाजिक संगठन तथा वेतन वृद्धि व अन्य समस्याओं को लेकर नाराज सरकारी, अर्द्धसरकारी व संविदा कर्मियों के बड़े समूह या संगठन अपने-अपने तरीके से सरकार की खिलाफत कर रहे हैं और यह भी स्पष्ट है कि राज्य की जनता का ध्यान भटकाने के लिए सरकार अथवा सरकार समर्थकों के पास विकल्प सीमित हैं क्योंकि भाजपा अथवा उसकी नीति-निर्धारक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को यह महसूस हो चुका है कि जनता को बरगलाने के प्रमुख विषय के रूप में हिन्दू-मुस्लिम का मुद्दा यहां ज्यादा प्रभावी नहीं है तथा शैक्षणिक लिहाज से जागरूक व बुद्धिजीवी माने जाने वाले इस राज्य के मतदाताओं के एक बड़े हिस्से को झूठे आंकड़ों में उलझाकर उनका मत या समर्थन प्राप्त करना भी आसान नहीं है। लिहाजा भाजपा से जुड़े विचारक व समर्पित कार्यकर्ता मतदाताओं का ध्यान ज्वलंत मुद्दों या राज्य में चल रहे आंदोलनों के विषयों से हटाने के लिए नित् नये तरीके ढूंढ रहे हैं। राज्य का सीमा विस्तार करते हुए इसमें बिजनौर व सहारनपुर के कुछ क्षेत्रों को शामिल किए जाने के संदर्भ में स्वयं मुख्यमंत्री समेत दो-एक काबीना मंत्रियों के बयान के बाद अब राज्य के उच्च न्यायालय को नैनीताल से हटाकर कहीं अन्यत्र ले जाने की मांग भी इसी रणनीति का हिस्सा मालूम होती है और ऐसा प्रतीत होता है कि सतपाल महाराज ने यह बयान किसी भावावेश या जल्दबाजी में नहीं बल्कि पूरी सोच-समझ व राजनैतिक साजिश के साथ दिया है। ध्यान देने योग्य विषय है कि सतपाल महाराज पहले भी राज्य की बड़ी आबादी को दो हिस्सों में बांटते हुए कुमाऊं-गढ़वाल का सवाल उठा चुके हैं और उन्होंने अपने राजनैतिक बयानों में कई बार यह इशारा करने की कोशिश भी की है कि राज्य गठन के वक्त से ही गढ़वाल की जनता अनदेखी की शिकार रही है। इन हालातों में अगर यह कहा जाये कि बिना किसी मांग या आन्दोलन के सरकार के एक मंत्री द्वारा राज्य के उच्च न्यायालय को वर्तमान जगह से राज्य के किसी अन्य हिस्से में स्थानांतरित किए जाने की शिगूफेबाजी अकारण नहीं हो सकती, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैसे भी यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि भाजपा के कार्यकर्ता के रूप में अल्प अनुभव के बावजूद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के बीच अपनी गहरी पैठ बनाने में कामयाब रहे सतपाल महाराज अपने राजनैतिक अनुभव व उच्च संपर्कों के आधार पर कई बार सुपर सीएम सा व्यवहार करते हैं और एक बड़े राजनैतिक उलटफेर का दारोमदार अपने कन्धों पर रखने के बावजूद ऐन वक्त पर कुर्सी का अपने हाथ से फिसल जाना कहीं न कहीं उनके समर्थकों के मन को कचोटता है। इसलिए वह अक्सर ऐसे मौकों की तलाश में रहते हैं जिनसे मौजूदा मुख्यमंत्री को पटखनी देते हुए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के सामने अपने अपने नम्बर बढ़ाये जा सकें। इस मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ प्रतीत होता है क्योंकि सतपाल महाराज के नैनीताल से उच्च न्यायालय को हटाये जाने सम्बन्धी बयान से कुछ ही दिन पहले राजधानी देहरादून के तमाम अधिवक्ता मुख्यमंत्री के एक कार्यक्रम में उनकी मुर्दाबाद के नारे लगा चुके हैं और इस नारेबाजी के खेल में सतपाल महाराज के साथ ही कांग्रेस छोड़कर आये एक विधायक के भाई की भूमिका महत्वपूर्ण बतायी जा रही है। लिहाजा यह अंदाजा लगाया जाना मुश्किल नहीं है कि सतपाल महाराज ने अपने हालिया बयान के माध्यम से न सिर्फ मुख्यमंत्री से नाराज राजधानी देहरादून के स्थानीय वकीलों को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया है बल्कि वह बुद्धिजीवियों के इस वर्ग के बीच पैठ बना आगामी लोकसभा चुनावों के लिए टिहरी लोकसभा क्षेत्र अथवा हरिद्वार संसदीय क्षेत्र की राजनैतिक जमीन भी तलाशना चाहते हैं। पहले-पहल ऐसा ही कुछ प्रयास महाराज द्वारा स्थायी राजधानी गैरसैण का मुद्दा छेड़ पौड़ी लोकसभा क्षेत्र के लिए भी किया गया था और यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि वर्तमान में गैरसैण में राजधानी को लेकर विधानसभा भवन या जो भी अन्य आधारभूत सुविधाएं जुटी हैं उसमें महाराज का अहम् योगदान है लेकिन अब कांग्रेस से भाजपा में छलांग लगाने व शौर्य डोबाल के एकाएक ही राजनीति के मैदान में अवतरित होने के बाद परिस्थितियां तेजी से बदली हैं और सतपाल महाराज की मजबूरी है कि वह भाजपा नेता के रूप में पौड़ी संसदीय क्षेत्र पर विचार करना छोड़ कोई नया मैदान तलाश करें। लिहाजा अपने पूरे होशोहवाश में मुख्यमंत्री के चारों ओर नाकेबंदी करते हुए सतपाल महाराज द्वारा जानबूझकर उच्च न्यायालय को नैनीताल से हटाये जाने का मुद्दा छेड़ा गया है और शीर्ष नेतृत्व द्वारा इस परिपेक्ष्य में किए गए किसी भी जवाब-सवाल की स्थिति में वह आसानी के साथ स्थानीय स्तर पर नाराज अधिवक्ताओं की नाराजी को कम करने की कहानी सुना अपना पल्ला झाड़ सकते हैं जबकि इस विषय पर राज्य के कुमाऊँ परिक्षेत्र में होेने वाले किसी भी तरह के आंदोलन से उनकी राजनैतिक सेहत पर कोई फर्क पड़ता नहीं दिखता लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह की राजनैतिक मोर्चाबंदी किसी ऐसे राज्य की राजनैतिक व आर्थिक सेहत के लिए ठीक कही जा सकती है जो पहले से ही आर्थिक संकटों के दौर से गुजर रहा हो और जहां की सरकार को अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लिए भी खुले बाजार से कर्ज लेना पड़ रहा हो। यह माना कि नैनीताल के एक महत्वपूर्ण व प्रसिद्ध पर्यटक स्थल होने के कारण यहां न्याय की तलाश में आने वाले वादियों या फिर राज्य के अन्य क्षेत्रों के अधिवक्ताओं को कुछ दिक्कतों का सामना करना पड़ता है लेकिन इस तरह की परेशानियों का हवाला देकर राज्य के हर जिले में तो उच्चतम् न्यायालय नहीं खोला जा सकता और न ही राज्य गठन के इन सत्रह-अट्ठारह साल बाद उच्च न्यायालय को नैनीताल से स्थानांतरित किया जाना औचित्यपूर्ण माना जा सकता है। अगर सरकार व पर्यटन मंत्री को वाकई यहां आने वाले पर्यटकों, न्यायालयी कामकाज के चक्कर में नैनीताल की महंगी व्यवस्थाओं के फेर में पड़ने वाले अधिवक्ताओं या वादियों के साथ ही साथ स्थानीय जनता की इतनी ही चिंता है तो सरकार द्वारा उच्च न्यायालय के आसपास वाले क्षेत्रों में सस्ती व रियायती दर की रहन-सहन की व्यवस्था करने के साथ ही साथ स्थानीय स्तर पर पार्किंग आदि की सुविधाओं को मजबूत करने का प्रयास क्यों नहीं किया जा सकता लेकिन बखेड़ों को जन्म देकर अपना राजनैतिक फायदा तलाशने वाले मतलबपरस्त नेताओं को आम आदमी की समस्याओं अथवा व्यापक जनहित से क्या लेना-देना, वह तो शगूफा भर छेड़कर अपना हित साध लेते हैं और इस मतलबपरस्ती के परिणाम अकारण के आंदोलनों से परेशान होने वाली जनता को भुगतने पड़ते हैं।