फिर आया आर्थिक तंगी का दौर | Jokhim Samachar Network

Thursday, March 28, 2024

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फिर आया आर्थिक तंगी का दौर

बैंकों में खत्म हो रही धनराशि से जुड़ी खबरें इशारा कर रही हैं कि हालात वाकई में संगीन।
देश के वित्त मंत्री सरकारी आंकड़ों का सहारा लेकर कितने ही बड़े-बड़े दावे क्यों न करें और सरकार समर्थक व मोदी भक्त नोटबंदी करने या फिर जीएसटी लागू करने से जुड़े तमाम फैसलों के समर्थन में कितने ही जोर-शोर से तर्क क्यों न दे लेकिन हालात यह इशारा कर रहे हैं कि सरकार का वित्तीय प्रबंधन बुरी तरह असफल हो गया और अगर हालातों पर बहुत जल्दी काबू नहीं पाया गया तो देश में लूटमार के से हालात पैदा हो सकते हैं। अभी शांति बनी हुई है क्योंकि जनता हिन्दू-मुस्लिम, दलित बनाम सवर्ण अथवा अपराधी बनाम राजनेता जैसे मामलों में उलझी हुई है और युवा वर्ग को विश्वास है कि आगामी लोकसभा चुनावों के लिए जनता के बीच जाने से पहले देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नौकरियों व रोजगार का पिटारा खोलेंगे लेकिन जिस दिन युवाओं को यह लगने लगेगा कि आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहा देश उन्हें कोरी घोषणाओं के अलावा कुछ देने वाला नहीं है उस दिन हालात भयावह हो सकते हैं। हालांकि सरकार यह दावा कर रही है कि सब कुछ ठीक है और नोटबंदी व जीएसटी के शुरूआती दौर से उबरकर अर्थव्यवस्था फिर विकास की दिशा में आगे बढ़ रही है लेकिन हालात कुछ और ही इशारा कर रहे हैं। आम आदमी वाकई कैशलैस दिखाई दे रहा है और बैंक करेन्सी न होने का दावा करते हुए एक साधारण व्यक्ति को उसके ही द्वारा जमा की गयी रकम नकद देने से इनकार कर रहे हैं। जनसुविधा के दृष्टिकोण से खोले गए एटीएम नकद राशि न होने के कारण लगभग बंद पड़े हैं और कई बैंकों ने तो अपने संस्थागत् खर्चों को कम करने के लिए एटीएम की संख्या घटानी भी शुरू कर दी है। कहने का तात्पर्य यह है कि कुल मिलाकर स्थितियाँ नियंत्रण से बाहर होती जा रही हैं और सरकार के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि अगर उसकी ओर से कोई खामी नहीं है तो व्यवस्थाएं इस कदर बिगड़ी क्यों हैं? यह जाहिर है कि सरकार रिजर्व बैंक के माध्यम से वापस लिए गए नोटों के बराबर धनराशि की नई मुद्रा बाजार में उतार चुकी है और साथ ही साथ सरकार का यह भी दावा है कि वह डिजीटल लेन-देन की ओर आगे बढ़ते हुए व्यवस्था को कैशलैस करने की दिशा में प्रयासरत् है। इन हालातों में बैंकों से नकदी का गायब होना चैकन्ना करने वाली खबर है और अगर सूत्रों के हवाले से मिल रही खबरों को सही मानें तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि लोग बैंकों में धन रखने की जगह उसे अपने घर में ज्यादा सुरक्षित मान रहे हैं या फिर ऐसा भी हो सकता है कि पिछले दिनों बैंकों द्वारा सुविधा शुल्क व अर्थदंड के रूप में काटी गयी अनाप-शनाप धनराशि की खबरों ने जनता को शंकालु बना दिया है और अब वह किसी भी तरह का खतरा मोल लेने की जगह अपने पैसे को अपने घर में ही सुरक्षित मानकर चल रही है। नोटबंदी का फैसला लागू करते वक्त सरकार द्वारा जनसामान्य को यह भरोसा दिया गया था कि सरकार के इस फैसले के बाद देश के भीतर छुपा काला धन बाहर आयेगा और सरकार नकदी के स्थानान्तरण की जगह कैशलैस व्यवस्था की ओर आगे बढ़ेगी लेकिन यह महसूस हो रहा है कि नकदी जमा रखने के आदी हो चुके जमाखोरों को दो हजार के नोट ने ज्यादा सहूलियत प्रदान की है और आॅनलाइन ट्रांजक्सन पर अतिरिक्त प्रभार लिये जाने के चलते व्यापारी वर्ग इस झमेले से बचने की कोशिशों में जुटा हुआ है। देश में लोकसभा चुनावों की तैयारियां शुरू हो गयी हैं और यह माना जा रहा है कि इस चुनाव में सत्ता पक्ष व विपक्ष द्वारा नकद नारायण का जमकर इस्तेमाल किया जायेगा लेकिन सवाल यह है कि क्या चुनावों में खर्च की जाने वाली यह धनराशि इतनी अधिक होगी कि नेताओं ने इसके लिए अभी से नकद नोट जमा करके रखना शुरू कर दिया है या फिर एक के बाद एक कर सामने आते जा रहे बैंक डिफाॅल्ट के मामलों के बाद देश के वित्तीय संस्थानों की हालत वाकई इतनी बुरी हो गयी है कि वह जनता द्वारा बैंकों में जमा धनराशि उन्हें वापस करने की स्थिति में ही नहीं है। हालांकि सत्ता पक्ष अपने रटे-रटाये जुमलों के आधार पर व्यवस्था में आये इस दोष के लिए कांग्रेस को ही दोषी ठहरा रहा है और भाजपा की पक्षधर फेसबुकिया टीम का मानना है कि कर्नाटक विधानसभा चुनावों को देखते हुए जनता के बीच भय का माहौल पैदा करने के लिए कांग्रेस ने अपने समर्थकों व कार्यकर्ताओं को यह निर्देश दिया है कि वह बैंकों में जमा अपना धन अधिकतम् सीमा तक निकाल लें और सरकार की असफलताओं को उजागर करने के लिए एटीएम के बाहर कृत्रिम भीड़ लगाकर आम आदमी के मन में भविष्य के प्रति शंकालु भावनाओं को जन्म दिया जाय लेकिन सवाल यह है कि एक के बाद एक कर कई चुनाव हारती जा रही कांग्रेस क्या एकाएक ही इतनी शक्तिशाली हो गयी है कि वह अपनी रणनीति व कार्यकर्ताओं के दम पर एक पूरे सिस्टम को असफल घोषित कर सके। यदि वाकई ऐसा है तो इसे सत्ता पक्ष के लिए खतरे की घंटी मानना चाहिए और सरकार ने खतरे की इस आहट को समझते हुए जरूरत व वक्त के हिसाब से फूंक-फूंक कर कदम आगे बढ़ाने चाहिए। यह माना कि सरकार के पास मौजूदा हालातों से निपटने के लिए विकल्प सीमित हैं और इन हालातों में सरकार जनता से व्यवस्था को बनाये रखने की अपील के साथ ही साथ भारी मात्रा में नकद धनराशि घरों में न रखने या फिर कैश की किल्लत से बचने के लिए आॅनलाइन खरीददारी करने व प्लास्टिक मनी का उपयोग करने की गुजारिश के अलावा कुछ नहीं कर सकती लेकिन जहां तक असफलताओं का सवाल है तो सरकार को यह स्वीकार करना चाहिए कि वह भविष्य में विकट होने वाली परिस्थितियों का अंदाजा लगाने में पूरी तरह असफल साबित हुई तथा नोटबंदी के डेढ़ वर्ष बाद ही हालात इतने पुरसुकून नहीं हैं कि आम आदमी राहत की सांस ले सके। अगर सरकार के वित्तीय प्रबंधन की बात करें तो हम पाते हैं कि इन पिछले चार सालों में केन्द्र की भाजपा सरकार ने कई जनहितकारी योजनाओं को बंद किया है और गरीब व बेसहारा वर्ग को सरकार की ओर से दी जाने वाली अनुदान राशि या सब्सिडी में कटौती करने के लिए भी उसने कई नये रास्ते तलाशे हैं लेकिन इतना सब कुछ करने के बाद भी सरकार अपने खर्च पूरे करने में वित्त की अनउपलब्धता का सामना कर रही है और सरकार द्वारा बहुप्रचारित योजनाओं पर उस अंदाज में काम नहीं हो पा रहा है जैसी की उम्मीदें थी जबकि इसके ठीक दूसरी तरफ भाजपा ने इन चार सालों में न सिर्फ हाईटैक सुविधाओं से युक्त अपने राष्ट्रीय कार्यालय का निर्माण किया है बल्कि चंदा एकत्र करने के मामले में भी वह नम्बर एक है। उपरोक्त के अलावा केन्द्र सरकार व तमाम अन्य भाजपा शासित राज्यों की सरकार ने अपने विधायकों व सांसदों या मंत्रियों के वेतन आदि भत्ते बढ़ाने में भी कोई कंजूसी नहीं दिखाई है और न ही तथाकथित रूप से गरीब या फकीर कहे जाने वाले संघ के कार्यकर्ता सत्ता के शीर्ष पदों को हासिल करने के बाद अपने फैशन व विदेश दौरों के मामले में बाज आते दिख रहे हैं। लिहाजा यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि कठिन परिस्थितियों का सामना सिर्फ जनता द्वारा ही किया जा रहा है और इसके बदले उसे तथाकथित राष्ट्रभक्ति व राष्ट्रीय स्वाभिमान का पाठ पढ़ाने में भाजपा के लोग पीछे नहीं हैं लेकिन सवाल यह है कि ऐसे कब तक चलेगा और सरकार के पास जनता की समस्याओं का समाधान क्या है? अगर विपक्ष की मानें तो ऐसा लगता है कि सरकार जनता की समस्याओं का समाधान करने के मूड में ही नहीं है और लगातार बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार व अपराध के अलावा वित्तीय प्रबंधन जैसे मामलों में पूरी तरह असफल दिखाई दे रही सरकार सिर्फ और सिर्फ धार्मिक व जातीय असहिष्णुता के मुद्दे उठाकर चुनावी जीत हासिल करने की फिराक में है। अगर वाकई ऐसा है तो आने वाला दौर कठिन परिस्थितियों वाला हो सकता है और यह तय है कि कुप्रबंधन की दिशा में आगे बढ़ रहे हमारे कदम अगर अभी नहीं थमें तो फिर सम्भल पाना मुश्किल है।

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