तथाकथित राष्ट्रवाद के दौर में | Jokhim Samachar Network

Saturday, April 27, 2024

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तथाकथित राष्ट्रवाद के दौर में

त्रिपुरा में भी ढहा वामपंथ का किला
त्रिपुरा में मणिक सरकार की चुनावी हार के बाद सिर्फ एक राज्य तक सीमित रह गयी वाम मोर्चा की राजनैतिक ताकत के लिए यह एक बड़ा प्रश्न है कि वह अपनी सोच व काम करने के तरीके में बदलाव लायेगी या फिर लाल सलाम के नारे के साथ वाम आंदोलन का एक और नया दौर शुरू होगा। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि हमारे देश में वामपंथी आंदोलन का एक अपना इतिहास रहा है और देश की आजादी के आंदोलन वाले दौर में वामपंथी नेताओं व विचारकों ने अपने-अपने स्तर पर सर्वहारा वर्ग को संगठित करते हुए गरम व नरम दल के माध्यम से आजादी की लड़ाई में अपनी भागीदारी दी है लेकिन आजादी के आंदोलन के बाद वामपंथी नेतृत्व का एक बड़ा हिस्सा न सिर्फ चुनावी राजनीति के कटा रहा बल्कि एक लम्बे राजनैतिक संघर्ष के परिणामस्वरूप हासिल हुए जनता के बीच से सरकार चुने जाने के हक व जनतांत्रिक गतिविधियों को आधी आजादी की संज्ञा देते हुए तमाम वामपंथी विचारकों ने अपने संघर्ष व आंदोलनों के दौर का सिलसिला जारी रखा और मजदूरों, कारखानों व आदिवासी इलाकों में अपनी मजबूत पकड़ बनायी। हालांकि लोकतांत्रिक सरकारों के खिलाफ इस संघर्ष में बंदूक के जरिये लड़ी जाने वाली लड़ाई को कभी वैधानिक मान्यता नहीं मिली और उग्र वामपंथ के नाम पर देश में बड़ा राजनैतिक बदलाव लाने का दावा करने वाली उग्र व सशस्त्र ताकतें धीरे-धीरे कर अलग-थलग व कमजोर पड़ती गयी लेकिन विचारधारा के नाम पर आम आदमी को साथ लेकर चलने के वामपंथी जज्बे ने इस दौर में मजबूत राजनैतिक पकड़ बनायी और देश की सत्ता पर काबिज कांग्रेस की सरकार का विरोध करने वाली राजनैतिक ताकतों को एकजुटता के साथ सक्रिय रखने में वामपंथी नेता हमेशा कामयाब रहे। यह ठीक है कि देश की आजादी के बाद इस व्यवस्था को जस का तस संभालने के स्थान पर इसके ढांचे व काम करने के तरीके में अमूलचूल परिवर्तन करने के पक्ष में रहे वामपंथी नेताओं ने अपनी संघर्षशीलता व तर्कशक्ति के बूते किसानों, मजदूरों व सर्वहारा वर्ग के साथ ही साथ आदिवासी इलाकों व शोषित दलित समूहों के बीच अपनी सक्रियता बढ़ाते हुए जनसंघर्षों के जरिये अपने लक्ष्य को हासिल करने का प्रयास किया और कालान्तर में ही एक मजबूत राजनैतिक विकल्प के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए कई राज्यों में वामपंथी विचारधारा से ओतप्रोत सरकारों का गठन भी हुआ लेकिन यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं है कि लोकलुभावन नारों व समाज के सम्मुख आदर्श के रूप में स्थापित किए जा सकने वाले नेताओं की बड़ी तादाद के बावजूद वामपंथी आंदोलन खुद को साबित करने में नाकामयाब रहा और समय के साथ ही साथ इसके नेताओं के पारस्परिक विभेद इस विचारधारा के राजनैतिक विघटन के रूप में सामने आये। समय-समय पर किए जाने वाले सरकार विरोधी आंदोलनों व व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के रूप में प्रचारित किए जाने वाली हिंसक मुठभेड़ों ने वामपंथी विचारधारा को जनसामान्य के बीच एक लोकप्रिय मुकाम तो दिया और वामपंथी सरकारों ने बिना किसी रोक-टोक व हस्तक्षेप के देश के कुछ हिस्सों पर लम्बे समय तक राज भी किया लेकिन यह तमाम सरकारें व इनके नेता समय के साथ ही साथ अपनी विचारधारा व कार्यशैली में सृजनात्मक बदलाव लाने में असफल रहे और इनकी नीतियां व विचार आम आदमी की जीवनशैली में वह क्रांतिकारी बदलाव लाने में सफल नहीं हुई जिनकी जनता उम्मीद कर रही थी। नतीजतन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के हावी होने के बाद वामपंथियों की जड़ें कमजोर होने लगी और देश की सरकारी व्यवस्था द्वारा श्रम नीतियों में किए जाने वाले क्रांतिकारी बदलाव के बाद तो इनका कैडर मतदाता भी अपने नेताओं का मोह छोड़कर अन्य राजनैतिक ताकतों के पीछे लामबंद होकर अपना नफा-नुकसान ढूंढने लगा। इस कठिन दौर में वामपंथ ने अपना जनाधार मजबूत करने व संघर्षों के बूते सत्ता की नई राह तलाशने की अपेक्षाकृत समझौतावादी नीतियों को अपनाकर अपनी सत्ता बचाना व गठबंधन सरकारों में शामिल होना ज्यादा श्रेष्ठकर समझा जिसके चलते न सिर्फ वामपंथी आंदोलन कमजोर हुआ बल्कि इसके नेताओं की कथनी-करनी का फर्क भी स्पष्ट रूप से आम जनता के सामने आया। यह माना कि अपनी जनसाधारण से जुड़ी हुई व बिना किसी तड़क-भड़क की जीवनशैली को अपनाने वाले वामपंथी नेताओं ने शुचिता की राजनीति के नये आयाम प्रस्तुत किए और कुछ जनहितकारी फैसलों को लागू करने में वामपंथी सरकारें पूरी तरह सफल भी रही लेकिन इनके कामकाज के तौर-तरीकों में पारदर्शिता का आभाव व भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों पर रोक लगाने में वामपंथी सरकारों को मिली विफलता इनके पराभव का मूल कारण रही और इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि धर्मनिरपेक्षता व सामाजिक सद्भाव का दावा करने वाले वामपंथी नेताओं का झुकाव व तालमेल जैसे-जैसे मुस्लिम नेताओं व उनके वोट बैंक की ओर बढ़ा वैसे-वैसे वामपंथियों व अन्य सामान्य जाति-धर्म के नेताओं से इनकी दूरियां बढ़ती गयी जिसके चलते वामपंथी विचारकों व बुद्धिजीवियों की एक बड़ी तादाद के बावजूद इनकी राजनैतिक सफलता में गिरावट आने लगी और यह मान लिया गया कि पूंजीवाद के वर्तमान भागमभाग वाले दौर में वामपंथी आंदोलन गैर-प्रासंगिक हो चुका है। हालांकि वाममोर्चा की त्रिपुरा के हालिया विधानसभा चुनावों में हार के द्वारा वनवासी व आदिवासी क्षेत्रों में की गयी मेहनत को नकार नहीं सकते और सम्पूर्ण राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि खुद को वैचारिक रूप से मजबूत व बुद्धिजीवी मानने वाला वामपंथी कार्यकर्ता व इनका राजनैतिक नेतृत्व हार के अंतिम क्षणों तक इस गलतफहमी में रहा कि उनकी सरकार के जनता से सीधे संवाद के तरीके का राजनैतिक दलों के पास कोई तोड़ नहीं है लेकिन संघ के प्रचारक घर-घर जाकर व अपने कार्यक्रमों के जरिये अपनी संख्याबल का अहसास करवाने में सफल रहे और बाजी पलटने में देर नहीं लगी। यह भी हो सकता है कि बदलाव की बयार को नकारते हुए लेनिन व माओ के नाम पर वैचारिक क्रांति लाने का दावा करने वाली वामपंथी सोच मजदूर व मजलूम तबके के साथ बेहतर तालमेल रखने के साथ ही साथ देश के मध्यम वर्ग के एक हिस्से को भी अपनी ओर आकर्षित करने के बावजूद इस जनशक्ति को जनमत की ताकत में बदलने में नाकामयाब रही हो और वामपंथी विचारधारा से जुड़े बुजुर्ग नेता यह मान बैठे हों कि उनके प्रतिबद्ध मतदाता को डिगाया नहीं जा सकता लेकिन अपने हकों व अधिकारों के लिए जागरूक नजर आ रही युवा पीढ़ी को वामपंथी राजनैतिक दलों का वही सदियों पुराना तरीका पसंद न आया हो या फिर पिछले कुछ वर्षों में वही छदम् राष्ट्रवाद की बयार ने वामपंथी नेताओं को लेकर बनायी जा रही राष्ट्रदोही, आतंक समर्थक व पाकिस्तान परस्त वाली छवि को मजबूती प्रदान करते हुए नुकसान पहुंचाया हो। यह ठीक है कि वामपंथी राजनीति में सत्ता प्राप्ति के लिए राजनैतिक अथवा चुनावी संघर्ष को प्राथमिकता नहीं दी जाती और वामपंथी विचारधारा से जुड़ा नेतृत्व छल-बल या किसी भी तरह के तालमेल के जरिये सत्ता के शीर्ष को हासिल करने के स्थान पर सत्ता के केन्द्र से दूर रहकर मजदूर, मजलूम व उत्पीड़ित जनता की लड़ाई में विश्वास रखता है लेकिन इधर पिछले कुछ अंतराल में माओवाद व नक्सलवाद के नाम पर आम आदमी की लड़ाई लड़ने निकले सशस्त्र वामपंथी लड़ाकों के नेताओं ने हत्या व फिरौती वसूली को एक व्यवसाय के रूप में अंगीकार किया है और आदिवासियों, दलित समुदायों या सर्वहारा वर्ग से जंगलों में छुपकर कठिन जीवन जीते हुए जनसंघर्ष की राह अख्तियार करने की अपील करने वाले तमाम बड़े नेताओं के परिजन न सिर्फ सुविधापूर्ण व विलासिता भरा जीवन जी रहे हैं बल्कि इनके सलाम के नारे के साथ ही आंदोलन के लिए डट जाने वाली भीड़ को समझा पाना अब मुश्किल होता जा रहा है। नतीजतन वामपंथी दुर्गों में अन्य राजनैतिक दलों व विचारधाराओं की घुसपैठ का असर दिखने लगा है और कमजोर पड़ता वामपंथी आंदोलन उदारवादी अर्थव्यवस्था को अंगीकार कर सरपट भागने की जुगत भिड़ा रहे सरकारी तंत्र का मददगार साबित हो रहा है लेकिन इन विकट परिस्थितियों में यह एक बड़ा सवाल है कि अगर मजदूर संगठन, किसान व आर्थिक रूप से कमजोर लोग अपनी बात कहने या फिर अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार खो देंगे तो इनकी समस्याओं व इनसे जुड़े अन्य विषयांे को सदन व सरकार के समक्ष कौन उठायेगा। यह एक बड़ा सवाल है और सड़कों पर होने वाले बेतरतीब आंदोलन व अपना पक्ष सरकार के समक्ष रखने के लिए तमाम तरह की कवायदें करती जनता इस बात की गवाह है कि धीरे-धीरे कर देश अराजकता की ओर जा रहा है और सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं को अपनी कुर्सी बचाने के अलावा किसी भी बात से कोई लेना-देना नहीं है।

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