विपक्षी दलों को संतुष्ट करने में नाकाम रहा चुनाव आयोग ईवीएम मशीनों पर विपक्ष का एतराज, जायज है अथवा नहीं इस तथ्य का अंदाजा तभी आ सकता है जबकि चुनाव आयोग अपनी पूर्व घोषणाओं के आधार पर हैकाथन आयोजित करें और देश के तमाम राजनैतिक दलों के अलावा आईटी विशेषज्ञों व ईवीएम को आसानी से हैक करने का दावा कर रहे एक्सपर्टो को भी इसमें आंमत्रित किया जाय। चुनाव आयोग की पहल और हैकाथन आयोजित किये जाने की घोषणा को देखकर एकबारगी यह लगा था कि लगातार लग रहे आरोंपो के चलते घट रही विश्वनीयता को देखते हुऐ आयोग द्वारा शीघ्र ही कोई बड़ा फैसला लिया जायेगा लेकिन आयोग ने सुलह-सफाई के नाम पर देश के तमाम राजनैतिक दलों की एक बैठक बुलाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली और मजे की बात यह है कि इस बैठक में सिवाय चाय-पानी अथवा भाषण के ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि चुनाव आयोग वाकई में अपनी घटती विश्वनीयता को लेकर चिन्तित है। देश के पन्द्रह-सोलह बड़े राजनैतिक दलों द्वारा इस बैठक के दौरान खुलकर ईवीएम मशीनों के स्थान पर पुरानी व्यवस्था की ओर लौटने की मांग की गयी और ईवीएम की कार्यप्रणाली पर संदेह जताया गया लेकिन चुनाव आयोग ने इनका पक्ष ही खारिज कर दिया। मजे की बात यह है कि हर छोटी-बड़ी खबर को ले उड़ने का आतुर दिखाई देने वाला मीडिया भी ईवीएम के इस विरोध की खबरों को लेकर ज्यादा उत्सुक नही दिखा और न ही इस मुद्दे पर कोई जनचर्चा ही चलाई गयी जबकि इस सम्पूर्ण घटनाक्रम से कुछ ही दिन पूर्व न सिर्फ न्यायालयों द्वारा चुनाव आयोग की व्यवस्थाओं को कमजोर मान हारे हुये प्रत्याशियों की याचिका स्वीकार की गयी बल्कि इन क्षेत्रों में इस्तेमाल की गयी ईवीएम मशीनों को सील करने के निर्देश भी न्यायालय द्वारा जारी किये गये और दिल्ली में तो सत्ता पक्ष के विधायको ने विधानसभा अध्यक्ष की सहमति से ईवीएम मशीन को हैक कर इसे सदन की कार्यवाही में दर्ज करते हुये इतिहास का हिस्सा बनाया लेकिन इस सबके बावजूद न सिर्फ चुनाव आयोग बल्कि मीडिया भी इस मुद्दे पर चुप है और ऐसा साबित करने की कोशिश की जा रही कि मानो कहीं कोई हलचल ही नही है और जनता का एक बड़ा हिस्सा ईवीएम के इस्तेमाल को लेकर संतुष्ट है। यह ठीक है कि सत्ता के शीर्ष पर काबिज होने के बाद मोदी की लगातार बढ़ रही लोकप्रियता का मापदण्ड बन चुकी हर चुनाव में वह हर स्तर पर भाजपा के नेताओं की जीत विपक्ष के लिऐ परेशानी व ऊल-जलूल आरोंप लगाने का सबब हो सकती है और इस तथ्य से भी इनकार नही किया जा सकता कि अपनी शर्मनाक हार से खिसियाया व घबराया विपक्ष अपनी खिसियाहट छुपाने अथवा घटते जनाधार के वाजिब कारण न बता पाने के कारण सत्तापक्ष पर इस तरह के आरोंप लगा रहा हो लेकिन एक जिम्मेदार व स्वँयत्तशासी संस्था होने के कारण चुनाव आयोग का भी दायित्व बनता है कि वह अपने उपर उठने वाली किसी भी शक भरी निगाह का न सिर्फ सामना करें बल्कि पूरी मजबूती के साथ तथ्यों व सबूतों के आधार पर इस तरह के आरोंपो को खण्डन करंे। चुनाव आयोग अपना पक्ष स्पष्ट रूप से रखने में कुछ अचकचा रहा है और नेताओं द्वारा सत्ता के शीर्ष को हासिल कर लेने के बाद किया जाने वाला स्वँयत्तशासी संस्थानों का अपने फायदे के लिऐ गलत या सही इस्तेमाल किसी से छुपा भी नही है। शायद यही वजह है कि चुनाव आयोग द्वारा प्रस्तुत की गयी सफाई को लेकर ईवीएम के इस्तेमाल का विरोध कर रहे राजनैतिक दलों में संतुष्टि नही है या फिर वह चुनाव आयोग से अपनी असहमति जता देश की जनता को मोदी सरकार की खिलाफत के लिऐ तैयार करना चाहते है। देश की सत्ता पर काबिज नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में काम करते हुये तीन वर्ष से भी ज्यादा का समय हो चुका है और मजे की बात यह है कि इस अंतराल में न सिर्फ देशभर में मंहगाई व बेरोजगारी बढ़ी है बल्कि मोदी सरकार जिन वादों और दावों के साथ चुनाव मैदान में उतरी थी उन्हें पूरा करने को लेकर वह कतई गंभीर नही है लेकिन इस सबके बावजूद मोदी की चुनावी जीत का रथ रूकने का नाम ही नहीं ले रहा और विभिन्न राज्यों के चुनावों के अलावा नगर निगम व पंचायत चुनावों तक मोदी ही भाजपा का एकमात्र चेहरा है। यह ठीक है क वर्तमान में मोदी के मुकाबले के लिऐ कोई भी नेता राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस अथवा विपक्ष के पास नही है और न ही यह उम्मीद की जा सकती है कि 2019 के प्रस्तावित लोकसभा चुनावों में कोई बड़ा नाम आश्चर्यजनक तरीके से आगे आकर मोदी की सल्तनत को चुनौती दे सकता है है लेकिन इस सबके बावजूद प्रधानमंत्री के इशारे पर काम कर रहा प्रतीत होता चुनाव आयोग अपनी जिद छोड़ने या फिर खुद को साबित करने के लिऐ तैयार नही दिखता। इन हालातों में यह शक गहराना स्वाभाविक है कि कहीं न कहीं कोई गड़बड़ है। यहां पर यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि जिस देश में कई विध्वंसक, अलगाववादी व आंतकी ताकतें लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का विरोध कर रही हो तथा माओवादी व नक्सलवादी लड़ाके विचारधारा के नाम पर संवैधानिक व्यवस्थाओं को नेस्तनाबूद कर देना चाहते हो वहाँ आम जनता के बीच सरकार चुने जाने की तरीको की वैधानिकता पर सवाल उठना तथा जिम्मेदार ऐजेन्सियों द्वारा इस तरह की आंशकाओं को अनदेखा व अनसुना कर दिया जाना ठीक नही है।