रुड़की। शहर में मुस्लिम कुम्हार परिवारों के हाथों से बनाए हुए मिट्टी के दीए हिंदू परिवारों के घर में दीपावली की रोशनी बिखेरती है. जो आपसी सौहार्द का प्रतीक भी है। लेकिन समय के साथ कुम्हारों के कार्यों पर आधुनिकता भारी पड़ रही है। जिससे दिनों-दिन उनका रोजगार कम होता जा रहा है। मुस्लिम कारिगरों का कहना है कि ये उनका पुश्तैनी काम है जो उनके बाप दादा के समय से चला आ रहा है। लेकिन जब से चाइना का सामान मार्केट में आया है, उनके मिट्टी से बनाए जाने वाले बर्तन दीए और अन्य सामानों की वैल्यू गिर गई है। उन्होंने बताया कि उनके हाथ से बनाए हुए दीए देवबंद, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, हरिद्वार, ऋषिकेश और भी कई जगह जाते हैं। लेकिन इस बार मंदी की मार और चाइना का सामान मार्केट में आ जाने से उनके ऑर्डर कैंसिल हो चुके हैं। दरअसल, हाथ के बने दीये और अन्य वर्तनों की मांग हर साल घटती जा रही है। आधुनिकता की दौड़ में अब लोग मिट्टी के बने दीये नाममात्र ही खरीदते हैं। मिट्टी से बना दीया केवल गरीब आदमी की चैखट तक ही सीमित रह गया है। दीवाली में फैंसी लाइट्स से मुस्लिम कुम्हारों के कारोबार पर दोहरी मार पड़ रही है। हर दीपावली पर वह जितनी बिक्री की उम्मीद करते हैं वो उसकी आधी भी नहीं कर पाते हैं। बता दें कि बीते सालों में दिपावली में कुम्हारों की दीये की खूब डिमांड रहती थी। लेकिन बीते कुछ वर्षों में विदेशी चमक ने इनकी कारीगरी को फीका कर दिया है। दीयों की जगह अब आर्टिफिशियल लाइटों यानी चाइनीज सामानों ने ले ली हैं, जो अब बड़ी तादाद में बाजार में उपलब्ध हैं। बाजारों में इन लाइटों ने दीपावली में बिकने वाले दीयों की जगह ले ली है, क्योंकि इस व्यापार में एक बड़ा व्यापारिक तबका हावी रहता है। ग्रामीण इलाकों में कुम्हारों के रोजगार पर असर पड़ने से वे पलायन करने को विवश हैं। अब उनके पुश्तैनी कार्य से उनकी लागत नहीं निकल पा रही है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि कुम्हारों के दिन कब बहुरेंगे।