शराब बिक्री को सुचारू बनाये रखने के लिऐ उत्तराखंड सरकार में बदला राष्ट्रीय राजमार्गो का नाम न्यायालय के आदेशो को धता बताते हुऐ उत्तराखंड की त्रिवेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व वाली पूर्ण बहुमत सरकार ने अपनी सीमा के भीतर आने वाले लगभग सभी राष्ट्रीय राजमार्गो को राज्य व जिला मार्गो में तब्दील कर दिया और अपने इस एक फैसले से सरकार ने उन तमाम शराब विक्रेताओं को राहत दे दी जो कि उच्चतम् न्यायालय के राष्ट्रीय राजमार्गो से शराब की दुकानों को हटाये जाने सम्बन्धी आदेश के बाद अपनी दुकानों के लिऐ नये ठौर ठिकाने ढ़ूढ़ने में असफल थे या फिर नये स्थानों पर शराब की दुकान खोले जाते ही जनान्दोलन का सामना कर रहे थे। उम्मीद है कि सरकार के इस फैसले के बाद शराब बिक्री प्रभावित होने से राजस्व घाटा होने की चिन्ता में दुबली होती दिख रही सरकार राहत महसूस करेगी और प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे नशा विरोधी आन्दोलन शनैः-शनैः ठण्डे हो जायेंगे। वैसे भी नई सरकार के अस्तित्व में आने के बाद एकाएक ही सामने आयी इस समस्या का दो ही तरीके से समाधान संभव था। पहला यह है कि सरकारी तंत्र न्यायालय के फैसले की गंभीरता का मनन करते हुये इस देवभूमि को धीरे-धीरे शराबमुक्त प्रदेश की ओर ले जाता और दूसरा शराब बिक्री के लिऐ पूर्व से स्थापित तंत्र को बिना किसी छेड़-छाड़ के यथावत चलने देने का रास्ता निकाला जाता। पहला रास्ता राजनैतिक दृष्टि से आसान नही था क्योंकि इस राह में चलने पर राजस्व के नुकसान के साथ ही साथ तमाम नेताओं के निजी हित भी जुड़ें हुऐ थे। इसलिऐं सरकार ने शराब बिक्री के नये ठेके करने से पहले माहौल बनाने के लिऐ एक महिने का समय सभी कारोबारियों को दिया और शराब के तमाम कारोबारियों ने भी अपने तमाम जोड़-जुगाड़ लगाकर नयी जगह पर दुकानें खोलने की कोशिश की लेकिन स्थानीय स्तर पर शराब की इन दुकानों का विरोध जल्द ही शराब विरोधी आन्दोलन का रूप लेने लगा और स्थानीय स्तर पर नेताओं व जनप्रतिनिधियों की मुश्किलें बढ़ने लगी। नतीजतन सरकार को दूसरे उपायों पर विचार करना पड़ा और सरकार ने मंत्रीमण्डल के एक फैसले भर से तमाम समस्याओं से निजात पा ली लेकिन इन पिछले दस-पांच दिनों में शराब बिक्री व नशे के सौदागरो के खिलाफ खड़ा हुआ एक स्वतः स्फूर्त आन्दोलन अपने आप में ही कई सवाल छोड़ गया और चन्द रोज पहले ही ठीक-ठाक मतों से जीते जनप्रतिनिधियों का व्यापक जनहित से जुड़े इस महत्वपूर्ण विषय पर अलग ही रूख देखने को मिला। मजे की बात यह है कि सिर्फ सत्तापक्ष के नेता या जनप्रतिनिधि ही शराब बिक्री के इन तमाम फैसलों को लेकर सरकार का समर्थन नही कर रहे है बल्कि समुचे विपक्ष समेत स्थानीय स्तर पर थोड़ी-बहुत राजनैतिक पकड़ रखने वाले छुटभय्यै नेता भी इस मामले में सरकार के साथ है और नये स्थानों पर प्रस्तावित शराब की दुकानों के दोबारा पुराने ही स्थानों पर चले जाने को जनता की जीत का दर्जा देते हुऐ यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि अपनी इस कारगुजारियों से सरकार ने बहुत बड़ी समस्या का समाधान ढ़ूँढ़ लिया हैं। वास्तविकता में अगर देखा जाय तो न्यायालयी आदेशों और दुकानों को पुराने स्थानों से नये स्थानों पर स्थांनातरित करने या एक बार फिर नयी जगह से पुरानी जगह वापस लाने के बीच जो भी जुद्दोजहद हुई है उसे अगर एक संगठित रूप देने की कोशिश की जाती तो शायद उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिऐ हुऐ आन्दोलन की तर्ज पर ही इस राज्य के नवनिर्माण के लिऐ एक नया आन्दोलन खड़ा किया जा सकता था लेकिन सिर्फ चुनावों तक सीमित हो चुकी राजनैतिक पार्टिया व इनसे जुड़े लोग एक लंबे संघर्ष के लिऐ तैयार नही थे। शायद इसीलिऐं सरकार बिना किसी मध्यस्थता के इतना बड़ा रास्ता निकाल पायी और उसकी मुश्किलें शुरू होने से पहले ही आसान हो गयी। अगर विरोध प्रदर्शन, आन्दोलन, जन दबाव और संगठनात्मक गतिविधियों के लिहाज से गौर करें तो हम यह पाते है कि मौजूदा हालातों में सरकार ने रणनैतिक रूप से बाजी जीतते हुऐ विरोधियों को चुप करा दिया है लेकिन सवाल यह है कि क्या खनन, अतिथि शिक्षकों समेत तमाम संविदा व उपनल के कर्मचारियों तथा अन्य सामाजिक समस्याओं का समाधान ढ़ूढ़ने के लिऐ भी हमारा सरकारी तंत्र इसी किस्म की तत्परता दिखा पायेगा और उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में शराब की दुकानों के विरोध के रूप में सुलगी यह चिंगारी आने वाले कल में नशा विरोधी आन्दोलन का रूप लेते हुऐे सरकार के गले की हड्डी नही बनेगी। हो सकता है कि भाजपा के रणनीतिकारो को लगता हो कि मोदी के नाम का जादू और उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी को मिले पूर्ण बहुमत से बनी सरकार मिलकर तमाम जनसमस्याओं का वाजिब समाधान ढ़ूढ़ंते हुऐ विरोध प्रदर्शन या फिर आन्दोलन का अवसर ही नही आने देंगे तथा एक ऐसा आदर्श व विकास कार्यो का एक ऐसा ढ़ांचा विपक्ष के सम्मुख खड़ा किया जायेगा कि आगे आने वाले चुनावों में विपक्ष के पास मुद्दे ही न रहें लेकिन सरकार की चाल और राज्य की नौकरशाही को लेकर उसका अस्पष्ट नजरिया यह इशारें कर रहा है कि अभी त्रिवेन्द्र सिंह रावत की सरकार अपनी प्राथमिकताऐं ही तय नही कर पायी है। इन हालातों में अगर हम यह कहें कि शराब की दुकान के आवंटन के मामले में उच्चतम् न्यायालय के सुर ठण्डे करने वाली त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार का आगे भी हर पासा ऐसे ही सीधा पड़ेगा तो यह एक अतिशयोक्ति होगी।